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आलोक वर्मा को हटाने को लेकर पीएम मोदी इतना जल्दबाज़ी में क्यों थे?

जस्टिस पटनायक के बयान पर विचार किए बिना और सीबीआई निदेशक को सुने बिना उन्हें जल्दबाज़ी में हटाए जाने से पता चलता है कि दाल में कुछ काला ज़रूर है।
आलोक वर्मा
साभार - पत्रिका

सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को उनके पद पर दोबारा बहाल कर दिया था लेकिन 10 जनवरी को अदालत के आदेश के 48 घंटे के भीतर उन्हें स्थानांतरित कर दिया गया। वर्मा को बहाल करने के शीर्ष अदालत के आदेश के बाद मोदी सरकार को बड़ा झटका लगा। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आनन फानन में हाई पावर सेलेक्शन कमेटी की बैठक बुलाई गई और वर्मा को फायर सर्विस, सिविल डिफेंस तथा होम गार्ड के महानिदेशक के पद पर स्थानांतरित कर दिया। हाई पावर सेलेक्शन कमेटी की बैठक में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ओर से जस्टिस एके सिकरी और लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे शामिल थें। 24 घंटे के भीतर वर्मा ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि उन्हें स्थानांतरित नहीं किया जा सकता है क्योंकि "वह पहले से ही 17 जुलाई, 2017 को सेवानिवृत्त हो चुके थे और केवल 31 जनवरी, 2019 तक सीबीआई निदेशक के रूप में सरकार की सेवा कर रहे थे क्योंकि ये निश्चित कार्यकाल था।”

इस समिति के दो सदस्यों ने कथित तौर पर कहा था कि वर्मा पर लगाए गए आरोप गंभीर थे और उन्हें सीबीआई निदेशक के रूप में बहाल नहीं रखा जाना चाहिए। खड़गे ने ये कहते हुए असहमति व्यक्त की कि सीवीसी (मुख्य सतर्कता आयुक्त) की रिपोर्ट में वर्मा के ख़िलाफ़ अधिकांश आरोपों की पुष्टि नहीं की गई थी इसलिए वर्मा को हटाने का कोई कारण नहीं बनता।

सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी जांच की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए के पटनायक को नियुक्त किया था। समिति द्वारा वर्मा के स्थानांतरण के एक दिन बाद जस्टिस पटनायक ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि भ्रष्टाचार के मामले में वर्मा के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि वर्मा को स्थानांतरित करने का फैसला "जल्दबाज़ी" में लिया गया और समिति को ये फैसला बहुत ही सावधानी से लेना चाहिए था क्योंकि यह एक संस्थान से संबंधित मामला था और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश इस समिति का हिस्सा थें। पटनायक ने यह भी स्पष्ट किया कि सीवीसी रिपोर्ट का कोई भी निष्कर्ष उनके द्वारा दर्ज नहीं किया गया था और यह बताया कि पूरी जांच सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना द्वारा दायर एक शिकायत के आधार पर की गई थी।

अब अस्थाना को पीएम मोदी का व्यक्तिगत रूप से पसंदीदा माना जाता है और कहा जाता है कि मोदी ने ही अस्थाना को केंद्रीय जांच ब्यूरो में लाया था। अस्थाना और दो अन्य सीबीआई अधिकारियों के ख़िलाफ़ पहले से ही सीबीआई एफआईआर दर्ज है। इस एफआईआईर को रद्द करने की अस्थाना की याचिका को दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को खारिज कर दिया था। अदालत ने अपने आदेश में सीबीआई को 70 दिनों के भीतर अस्थाना और अन्य के ख़िलाफ़ जांच पूरी करने को कहा।

गंभीर सवाल

यह पूरा प्रकरण कई गंभीर सवाल खड़े करता है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि चयन समिति द्वारा लिया गया निर्णय सही नहीं था खासकर जब पटनायक कहते हैं, "संपूर्ण जांच (सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश) अस्थाना की शिकायत पर की गई थी।" वे आगे कहते हैं: "9-11-2018 की तारीख़ वाला विवरण सीवीसी ने जो मुझे भेजा था उस पर कथित तौर पर श्री राकेश अस्थाना द्वारा हस्ताक्षर किया गया था। मैं स्पष्ट कर सकता हूं कि श्री राकेश अस्थाना द्वारा हस्ताक्षरित यह विवरण कथित तौर पर मेरी उपस्थिति में नहीं किया गया था।" शब्द 'कथित तौर पर' का दो बार इस्तेमाल करने पर उनके जोर देने को अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति पटनायक का कहना है कि कुल रिपोर्ट में 1,000 पन्नों का विवरण शामिल है।

इसके लेखक से टेलीफोन पर बातचीत में खड़गे ने गुलबर्गा से कहा कि जब पीएम ने बैठक बुलाई थी तो उन्हें पहले दिन कोई दस्तावेज़ नहीं मिला और बाद में जब सीवीसी रिपोर्ट उन्हें दी गई तो अस्थाना द्वारा लगाए गए आरोपों और जस्टिस पटनायक की अवलोकन रिपोर्ट पर आलोक वर्मा का सीवीसी को दिया गया जवाब नहीं था।

खड़गे ने कहा कि उन्होंने बार-बार अनुरोध किया इस समिति को वर्मा को एक मौका देना चाहिए ताकि वह अपना बयान समिति के समक्ष दे सकें जिसे पीएम मोदी ने अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस नेता ने कहा, “किसी व्यक्ति का पक्ष सुने बिना उसे फांसी देना कैसे संभव है? यह बहुत अजीब था”।

द वायर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस पूरे प्रकरण का एक संशययुक्त पक्ष दिखाया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, सीवीसी केवी चौधरी आलोक वर्मा के निवास पर गए थें और उनसे अस्थाना की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट पर उनके द्वारा लिए गए "नामुनासिब टिप्पणी को वापस लेने" का अनुरोध किया। टिप्पणी में लिखा गया था कि अस्थाना "संदिग्ध सत्यनिष्ठा" वाले अधिकारी हैं।

इस रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्मा द्वारा जस्टिस पटनायक को सौंपे गए एक पत्र में इन विवरणों का उल्लेख किया गया था। और यह उस समय की बात है जब सीबीआई कोयला ब्लॉक आवंटन से संबंधित अनियमितताओं के संबंध में पीएम मोदी के सचिव आईएएस अधिकारी भास्कर खुल्बे के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने की योजना बना रही थी।

रिपोर्ट के अनुसार जब वर्मा सीवीसी के अनुरोध पर सहमत नहीं हुए तो अस्थाना ने उनके ख़िलाफ़ सीवीसी में शिकायत दर्ज की जिसके कारण पिछले साल 23 अक्टूबर की मध्यरात्रि को हटाने की घोषणा कर दी गई और अंततः सीबीआई से उनका निष्कासन कर दिया गया जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रक्रियात्मक उल्लंघन का हवाला देकर उन्हें बहाल कर दिया गया।

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने एक फेसबुक पोस्ट में दावा किया कि उन्होंने न्यायमूर्ति एके सीकरी से बात की जो हाई पावर कमेटी के तीसरे सदस्य थें और इस कारण को बताया कि न्यायमूर्ति सीकरी ने वर्मा को स्थानांतरित करना क्यों उचित समझा। उन्होंने जस्टिस सीकरी की राय के रूप में छह बिंदु बताए।

1. फेसबुक पोस्ट के अनुसार सीवीसी ने प्रथम दृष्टया उसके समक्ष प्रस्तुत सामग्री में वर्मा के खिलाफ कुछ गंभीर आरोप का दोषी पाया।

2. सीवीसी ने वर्मा को अपने प्रथम दृष्टया निष्कर्षों को दर्ज करने से पहले सुनवाई की थी।

3. दोष के इन गंभीर प्रथम दृष्टया निष्कर्षों के मद्देनजर और सामग्री प्रस्तुत करने के बाद जिस पर वे आधारित था जस्टिस सीकरी की राय थी कि जब तक इस मामले की पूरी जांच नहीं हो जाती और वर्मा के दोष या निर्दोष के बारे में कोई अंतिम निर्णय दिया जाए उन्हें सीबीआई निदेशक के पद पर नहीं रहना चाहिए बल्कि समान रैंक के किसी अन्य पद पर स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए।

4. वर्मा की सेवा को समाप्त नहीं किया गया था जैसा कि कुछ लोगों का मानना है। उन्हें निलंबित नहीं किया गया है बल्कि उनके वेतन और भत्तों को बरकरार रखते हुए केवल तबादला किया गया है।

5. जहां तक वर्मा की सुनवाई नहीं करने का सवाल है यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि अभियुक्त को सुनवाई के बिना निलंबन भी किया जा सकता है और निलंबन के दौरान जांच बहुत आम बात है। यह महज बर्खास्तगी है जिसे सुनवाई के बिना नहीं किया जा सकता है।

वर्मा को निलंबित नहीं किया गया है बल्कि पदच्युत किया गया है। उन्हें एक समकक्ष पद पर स्थानांतरित किया गया है।”

इस कथन के साथ समस्याएं हैं। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले का मूल आधार प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन डीओपीटी (कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग) द्वारा सीबीआई के निदेशक के रूप में वर्मा को हटाना था जो सीवीसी रिपोर्ट के आधार था जो फिर से अस्थाना द्वारा लगाए गए आरोप पर आधारित था। आस्थाना के खिलाफ सीबीआई ने रिश्वत लेने को लेकर एफआईआर दर्ज किया था। द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक उनके लिए सीवीसी ने पीएमओ के आदेश का पालन किया था।

डीओपीटी की कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए पलट दिया था कि ऐसी कार्रवाई कानूनी रूप से उचित नहीं है। और सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस पटनायक को पर्यवेक्षक नियुक्त किया, उन्होंने कहा “भ्रष्टाचार के संबंध में वर्मा के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं था। पूरी जांच (सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश) अस्थाना की शिकायत पर की गई थी।" जस्टिस सीकरी ने खुद कहा (न्यायमूर्ति काटजू की फेसबुक पोस्ट के अनुसार) ये" प्रथम दृष्टया परिणाम" हैं। इसलिए, समिति के लिए यह उचित होता कि स्थानांतरण से पहले वर्मा को सुना जाता।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि सीवीसी की रिपोर्ट विस्तृत थी और इंडियन एक्सप्रेस के लेख में कहा गया है कि यह संलग्नक सहित 1,000 से अधिक पृष्ठों का है। किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि वर्मा को स्थानांतरित करने को लेकर बैठक बुलाने के लिए इन सभी दस्तावेजों को 24 घंटे से कम समय में कैसे पढ़ा जा सकता है? जब खड़गे ने कहा कि उन्हें पर्यवेक्षक की रिपोर्ट की प्रति नहीं मिली है, तो क्या जस्टिस सीकरी ने पूरी रिपोर्ट पढ़ी? और, अगर उन्होंने पढ़ी, तो क्या उन्होंने शिकायतकर्ता की मदद करने को लेकर वर्मा के लिखित अनुरोध को उनके आवास पर सीवीसी के जाने के बारे में संज्ञान नहीं लिया, जैसा कि द वायर की रिपोर्ट में बताया गया है?

एक अन्य बिंदु यह है कि सरकार द्वारा नियुक्त नए अंतरिम सीबीआई निदेशक नागेश्वर राव पर उनके खिलाफ काफी ज़्यादा आरोप हैं। अगर मोदी सरकार की मंशा सीबीआई की छवि दुरुस्त करने की होती जैसा कि दावा किया गया था तो वह राव को इस पद पर नियुक्त नहीं किया होता।

इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कार्यभार संभालने के तुरंत बाद राव ने वर्मा द्वारा लिए गए निर्णयों को पलट दिया और "इसके परिणामस्वरूप, इस संबंधित सभी कार्यों को रद्द कर दिया गया।" वर्मा के आदेशों को पलटते हुए नए अंतरिम सीबीआई प्रमुख ने वर्मा द्वारा हस्ताक्षरित एक फाइल को निरस्त कर दिया जिसके कारण कोयला ब्लॉक आवंटन में कथित अनियमितताओं के मामले में खुल्बे के खिलाफ जांच हो पाता।

सीवीसी पर खुद भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। द वायर की रिपोर्ट में कहा गया है: “उनका नाम पूर्व सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा के विजिटर डायरी मामले में सामने आया था। चौधरी को सीवीसी नियुक्त किए जाने के बाद एक व्यापारी निखिल मर्चेंट के कार्यालय में भी देखा गया था जो माना जाता है कि प्रधानमंत्री का करीबी था।

बिरला और सहारा समूह के कॉरपोरेट कार्यालयों से उनके विभाग द्वारा बरामद किए गए दोषपूर्ण दस्तावेजों की सामग्री की जांच करने को लेकर एनजीओ कॉमन कॉज द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में चौधरी की नियुक्ति के ख़िलाफ़ एक जनहित याचिका दायर की गई थी जो एक शीर्ष आयकर अधिकारी के रूप में उनकी अनिच्छा को देखते हुए भ्रष्टाचार निरोधी कार्यों के लिए उनकी फिटनेस पर सवाल उठाया था। इन दस्तावेजों में गुजरात के सीएम सहित विभिन्न व्यक्तियों या संस्थाओं को भुगतान की बात की गई थी। वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी उस समय गुजरात के सीएम थें।

ये सभी उदाहरण संस्थानों में मोदी सरकार के हस्तक्षेप को ज़ाहिर करते हैं और संदेह पैदा करते हैं कि क्या कुछ भ्रष्ट अधिकारियों को जो पीएम से बेहद करीब हैं उन्हें बचाने की कोशिश है। इस प्रक्रिया में संस्थानों की स्वायत्तता, अखंडता और साख नष्ट का जा रही है।

तो क्या हमें अभी भी विश्वास करना चाहिए कि पीएम मोदी भ्रष्टाचार से लड़ने वाले 'मसीहा' हैं जैसा कि उनकी सरकार और उनकी पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) के कार्यकर्ता दावा करते हैं!

 

(रवि नायर ने रफ़ाल घोटाले को उजागर किया है और वह इस विषय पर एक किताब लिख रहे हैं। इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं।)

 

 

 

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