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अम्बेडकर की तीन चेतावनियां और आज का भारत

डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’
Dr. Ambedkar

तुलना बड़ी विचित्र है, किन्तु विडंबनाओं के दौर में सम्भावनाओं के विकल्प सीमित हो जाना लाजमी है। 
पिछले दिनों साक्षी महाराज का  ये चुनाव देश के आखिऱी चुनाव होंगेका आप्तवचन पढ़ा तो बाबा साहब अम्बेडकर की याद आई। खासतौर से उनकी वे तीन चेतावनियां याद आईं जो उन्होंने 25 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान का फाइनल ड्राफ्ट राष्ट्र को सौंपते वक्त दिए अपने भाषण में दी थीं। उनकी गजब की दूरदर्शिता और उनके मुल्क की असाधारण सामाजिक जड़ता दोनों पर आश्चर्य हुआ।
डॉ. बी आर अम्बेडकर ने अपने उस -अब तक कालजयी साबित हुए- भाषण में कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा। इस बात की तो संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएंगे जब संविधान लागू करने का जिम्मा ही उन लोगों के हाथ में चला जाएगा जो मूलत: इस संविधान के ही खिलाफ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि में हासिल सामाजिक चेतना को दफनाकर उस पर मनुस्मृति की प्राणप्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे।
संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने और तानाशाही से बचने के लिए बाबा साहब ने इसी भाषण में तीन चेतावनियां भी दी थीं। इनमे से एक; आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीको पर ही चलने से संबंधित थी। इसकी जो गति आज असंवैधानिक गिरोहों और उनके गुंडा दस्तों ने बनाई हुयी है वह अयोध्या से कुलबुर्गी होते हुए वाया अख़लाक़-गुरुग्राम तक इतनी ताजा, सतत और निरन्तरित है कि उसे याद दिलाने की जरूरत नहीं। साक्षी महाराज का कथन इसी का अगला चरण है। अगले चुनाव में हो, उसके पहले या बाद में हो, अगर उनकी चली, तो होगा जरूर क्योंकि देशज हिटलरों की नूतन और प्राचीन दोनों मीन काम्फ  में लोकतंत्र और संविधान वाहियात चीजें करार दी गयी हैं।
उनकी दूसरी चेतावनी और ज्यादा सीधी और साफ़ थी। उन्होंने कहा  था कि  अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति -भले वह कितना ही महान क्यों न हो- के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे संविधान और लोकतंत्रके लिए खतरनाक स्थिति है।"  इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’  1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले पांच वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। 
ये कहाँ आ गए हम अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेडिय़ों के साथ सहअस्तित्व करते करते
सवाल इससे आगे का; क्यों और कैसे आ गये का भी है। इसके रूपों को अम्बेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था किहमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया - मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फेटर्निटी)उन्होंने चेताया था कि यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’ 
17वीं लोकसभा के निर्वाचन की ओर बढ़ते देश में बाबा साहब की यह आशंका अपनी पूरी भयावहता के साथ सामने हैं। सामाजिक लोकतंत्र के प्रति जन्मजात वैर रखने वाले अँधेरे के पुजारी राजनीतिक लोकतंत्र का भोग लगाने को व्याकुल आतुर दिखाई दे रहे हैं।
अप्रैल मई में होने वाले आमचुनाव में दांव पर बहुत कुछ है। खेती किसानी, मेहनत मजदूरी, रोजी रोटी, नौकरी चाकरी समेत भारत के संविधान के पहले दो शब्द हम भारत के लोगमें समाहित भारत की जनता की जिंदगी तो दांव पर है ही; संविधान में लिखा भारत दैट इज इंडियाकी अवधारणा ही खतरे में है। इस तरह, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, दांव पर खुद भारत है।
जब परिस्थितियां असामान्य होती हैं तो उनका सामना करने और उनसे उबरने के लिए रास्ते भी नये तलाशने होते हैं। 
पीने के लिए साफ और शुद्ध ताजे पानी को ही एकमात्र विकल्प मानने वाले भी नहाने के लिए कुएँ बावड़ी और रखे हुए बासी पानी से काम चला लेते हैं। मगर जब बस्ती को झुलसाने के लिए आग बढ़ती दिख रही हो तो उसे बुझाने के लिये गंगाजल या किसी आर.ओ के पानी की तलाश में वक्त जाया नहीं किया जाता। 2019 के चुनाव, इस सर्वनाशी आग को बुझाने के लिए नमी की सारी संभावनाओं को एकजाई  करके झोंकने की तात्कालिक जरूरत का वक्त है। जाहिर है कि तात्कालिकताएं अपरिहार्य होती है, एक अनिवार्य फौरी आवश्यकता होती हैं किन्तु यदि वे दूरगामी लक्ष्य के साथ, मंजिल के साथ अपने रिश्ते को अनदेखा कर दें तो निरर्थक भी हो सकती है। साथ ही यह बाकी दूसरों के आचरण पर कम अपनी समझ और जरूरत पर अधिक निर्भर होती हैं।  
डॉ. अम्बेडकर की ये तीन चेतावनियां उनके 1936 के उस मूलपाठ के साथ मिलाकर पढऩे से यह मंज़िल भी स्पष्ट हो जाती है। अपनी पहली राजनीतिक पार्टी - इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, जिसका झंडा लाल था - के घोषणा पत्र में उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोडऩे का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।लोकसभा के इस आमचुनाव में देशवासी अँधेरे और विघटन, लूट और फूट की ब्रांड अम्बेसेडर संघ नियंत्रित भाजपा और उसकी मण्डली को निर्णायक रूप से पराजित कर आगे की बड़ी और निर्णायक लड़ाई का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
2019 में भी वे हमारे साथ हैं और इन चुनावों में भी बाबा साहब हमारे बीच होंगेचुनावों का प्रावधान करने वाले, सबको मतदान का समान और सार्वत्रिक अधिकार देने वाले संविधान के लोकार्पण के दिन दी अपनी इन चेतावनियों के साथ।

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