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अमेरिका-चीन ट्रेड वार : किसका फायदा, किसका नुकसान

आज की दुनिया में हम सब उपभोक्ता हैं। हमारी जरूरतें तमाम दूसरे देशों के साथ वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही पर निर्भर करती हैं और इसके असंतुलित और अनियंत्रित होने से पैदा होता है ट्रेड वार।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Financial Times

हमने वर्ल्ड वार के बारें में सुना है, इसकी तबाहियों से परिचित भी हैं, लेकिन बदलती हुई दुनिया के समीकरण में वर्ल्ड वार नहीं बल्कि ‘ट्रेड वार’ होते हैं। ट्रेड वार यानी इस आर्थिक युद्ध के हथियार परमाणु या हाइड्रोजन बम नहीं होते बल्कि हम सबकी जिन्दगी में रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजें होती हैं। हमारे जूते से लेकर कपड़े तक और खाने से लेकर लैपटॉप तक सभी ट्रेड वार में हथियार की तरह इस्तेमाल होते हैं। इस समय अमेरिका और चीन के ट्रेड वार की खबरें रोजाना अखबारों की सुर्ख़ियों का हिस्सा बन रही हैं।

अमेरिका और चीन के ट्रेड वार को समझने से पहले उन तरीकों को समझ लेते हैं जो किसी ट्रेड वार में हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं।

आज की दुनिया में हम सब उपभोक्ता हैं। हमारी जरूरत की चीजें केवल हमारे देश में ही उत्पादित नहीं होती, उनका उत्पादन दुनिया के हर कोने में होता है, इसलिए हमारी जरूरतें तमाम दूसरे देशों के साथ वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही पर निर्भर करती है।

इसलिए आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि ट्रेड वार का पहला तरीका है कि एक देश से दूसरे देश में वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही यानी आयात और निर्यात पर टैक्स यानि टैरिफ  बढ़ा दिया जाता है। इसकी वजह से किसी देश में जरूरी वस्तुओं और सेवाओं की कमी हो जाती है। देश का विकास तो रुकता ही है, इसके साथ लोगों को भी परेशानी होती है। इसे विश्व व्यापार की भाषा में संरक्षणवाद की नीति कहते हैं। हर देश घरेलू लोगों के व्यापार और रोजगार पर ध्यान देते हुए एक हद तक तक इस इस नीति का पालन करता है। लेकिन वैश्विक व्यापार को नियंत्रित करने वाली संस्था मतलब विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित टैरिफ संरचना को पूरी तरह से नकारकर जब कोई देश मनमाने तरीके से टैरिफ की दर निर्धारित करने लगता है तो विश्व व्यापर में ट्रेड वार की स्थिति उत्पन्न होती है।

दूसरा तरीका होता है, सरकारी सब्सिडी आदि देकर अपने देश में उत्पादित होने वाली वस्तुओं और सेवाओं की लागत जबरन कम करते रहना ताकि विश्व बाजार में दूसरे देश के वस्तुओं और सेवाओं के बजाय केवल अपने देश की वस्तुओं और सेवाओं की मांग बनी रहे। तीसरा तरीका होता है बाजार की बजाय सरकार द्वारा मुद्रा का अवमूल्यन (करेंसी डीवैल्यूएशन) करते रहना।

आर्थिक जानकार परंजॉय गुहा ठाकुरता इसे इस तरह समझाते हैं कि कोई सरकार अपनी मुद्रा की कीमत में जबरन गिरावट करती है, ताकि वैश्विक व्यापार में अमुक देश का निर्यात बढ़ता रहे। जैसे एक डॉलर के बदले अगर 10 युआन के बदले 15 युआन मिलता रहे तो तो युआन मुद्रा वाले देश का निर्यात बढ़ना तय है। अमेरिका सहित कई देशों का कहना है कि चीन वैश्विक व्यपार में अपनी धाक जमाने के लिए पिछले कई दशक से अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है। इसकी वजह से चीन का निर्यात बहुत अधिक बढ़ा है। पूरे विश्व बाजार में चीन का माल बिक रहा है। इसकी वजह से चीन ने बहुत अधिक विदेशी मुद्रा जमा कर ली है। हाल फिलहाल ट्रेड वार की स्थिति पैदा करने में यही तीन तरीके मुख्यतः उपयोग किए जाते हैं।

अब बात करते हैं कि अमेरिका और चीन के हालिया दौर में चल रहे ट्रेड वार की। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की हाल में जारी हुई रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका और चीन के ट्रेड वार की वजह से विश्व आर्थिक विकास की अनुमानित दर में 0.2 फीसदी की  कमी होने की सम्भावना है। यह विकास दर तकरीबन 3.7 फीसदी रहने वाली है। 

चीन और अमेरिका के ट्रेड वार की कहानी कुछ इस तरह से शुरू होती है। डोनाल्ड ट्रम्प ने 2017 में राष्ट्रपति के लिए अपनी चुनावी दौड़ में चीन को लेकर अपने इरादे साफ कर दिए थे। उस दौरान ट्रम्प ने कहा था ‘‘हम चीन को अपने देश का बलात्कार करने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, चीन जो कर रहा हैं वह दुनिया के इतिहास में हुई अब तक की सबसे बड़े चोरी है।” इसी तर्ज पर मार्च 2018 में अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में चीन की विभेदीकृत  आर्थिक लाइसेंसिंग नीतियों पर केस दायर किया, तकनीक के महत्वपूर्ण क्षेत्र में किये जा रहे निवेश पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही और चीन के सूचना और संचार, एयरोस्पेस और मशीनरी जैसे उत्पादों पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही। उसके बाद से अब तक की स्थिति यह है कि अमेरिका ने चीन के साथ तकरीबन 250 बिलियन डॉलर के आयात पर 25 फीसदी के दर से टैक्स (टैरिफ) लगा दिया है और अमेरिका द्वारा किए गए इस कार्रवाई के बदलें में चीन ने अमेरिका के साथ किये जाने जा रहे तकरीबन 110 बिलियन डॉलर के आयात पर 5 फीसदी से लेकर 10 फीसदी के दर से टैरिफ लगा दिया है। डोनाल्ड ट्रम्प कह रहे हैं कि भविष्य में चीन से किये जाने वाले तकरीबन 500 बिलियन डॉलर के आयात पर टैरिफ लगाया जा सकता है।

अमेरिका चीन पर लगाये गये टैरिफ के लिए यह कारण बताता है कि चीन अपने देश में अमेरिका के निवेश को रोकने का काम कर रहा है, अमेरिका की बौद्धिक संपदा  चुरा रहा है, अमेरिका की तकनीक की बिना इजाजत नकल कर रहा है। अमेरिका चीन पर यह भी आरोप लगाता है कि चीन ने विश्व व्यापर संगठन की वैश्विक व्यापर के ढांचों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है जैसे कि लगातार मुद्रा का अवमूल्यन कर,घरेलू बाजार में बहुत अधिक सब्सिडी देकर और दूसरे देशों की टेक्नोलॉजी चुराकर विश्व बाजार को असंतुलित कर अपनी तरफ झुका लिया है। चीन ने मेड इन चाइना-2025 की योजना के तहत काम करना शुरू कर दिया है। इस योजना के तहत चीन का लक्ष्य है कि वह विश्व बाजार में एकछत्र राज करे, दुनिया के सारे देशों में चीन का माल बिके। इसके लिए चीन ने  संरक्षणवाद की नीति को खुलकर अपनाना शुरू कर दिया है। ट्रम्प तो खुलकर कहते हैं कि चीन ने पूरी दुनिया की बाजार में अपने स्टील की मांग बढ़ाने के लिए अपने देश की स्टील के कारखानों को जमकर सब्सिडी देता है।

इन सारे सवालों के जवाब में चीन का कहना होता है कि इसमें किसी को क्या परेशानी हो सकती है कि लोगों को सस्ते दामों पर सामान और सेवाएँ मिले। हमारी वजह से विश्व समुदाय को सस्ते दामों में सामन मिल रहे हैं। हम अमेरिका या किसी भी देश से ट्रेड वार नहीं करना चाहते है और न ही विश्व व्यापार संगठन के द्वारा बनाये गए नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं लेकिन अगर कोई देश हमारी साथ किए जाने वाले व्यापार पर ऊँचें दर पर सीमा शुल्क और टैरिफ दर लगाएगा तो हमें भी उसकी प्रतिक्रिया में काम करना पड़ेगा।

इस ट्रेड वार के परिणाम विश्व स्तर पर भयंकर साबित हो सकते हैं। विश्व व्यापार संगठन के द्वारा निर्धारित टैरिफ अनुबंधों का बिखराव हो सकता है। अमेरिका द्वारा लगाया जा रहा टैरिफ भविष्य में जाकर अमेरिका को भी परेशान कर सकता है। चूँकि अमेरिका और चीन दोनों विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यस्थाएँ हैं, इसलिए इन दोनों के बीच चलने वाले झगड़े का प्रभाव एक-दूसरे से आर्थिक तौर पर जुड़े हुए विश्व में भी बहुत बुरी तरह से पड़ सकता है। वह अर्थव्यस्थाएँ जो विश्व  व्यापर संगठन को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में नियम कायदे बनाये रखने के लिए जिम्मेदार मानती है, वह अर्थव्यवस्थाएं भी अमेरिका और चीन के ट्रेड वार से सीखते हुए विश्व व्यापर संगठन द्वारा बनाये गये नियम कानून को तोड़ने का इरादा बना सकती हैं।

भारत के लिहाज से देखा जाए तो विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के संघर्ष से पूरी दुनिया पर प्रभाव पड़ना बड़ा स्वभाविक है। इस लिहाज से भारत की अर्थव्यवस्था भी बहुत कमजोर होगी। भारत अपनी विदेशी मुद्रा डॉलर में रखता है, ट्रेड वार की वजह से डॉलर की कीमत बढ़ेगी और रुपये की कीमत में गिरावट आएगी। यानी जिन वस्तुओं और सेवाओं की जरुरत को भारत दूसरे देश से आयात कर पूरा करता है, उसके लिए भारत को अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी जैसे कि पेट्रोलियम उत्पादों पर। निर्यात से ज्यादा आयात के लिए अधिक भुगतान करने की वजह से भारत का चालू खाता घाटा (करेंट अकाउंट डेफिसिट) बढेगा। कहने का मतलब यह है कि जिन देशों की अर्थव्यवस्थाएं निर्यात से ज्यादा आयात पर निर्भर करती हैं, उन्हें इस ट्रेड वार की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। भारत के साथ अन्य विकासशील देश भी जो अपनी जरूरतें अन्य देशों से आयात से पूरा करते हैं, उन्हें  ट्रेड वार की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसके साथ यही स्थिति चलती रही और चीन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करता रहा तो चीन की वस्तुएं और सेवाएँ ही विश्व में बिकेंगी। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि इसकी वजह से भारतीय बाजार में भी लोग चीन से आए सस्ते दाम वाले मोबाइल ही खरीदेंगे न कि भारत के महंगे दाम वाले मोबाइल।

इसके अलावा चीन और अमेरिका के ट्रेड वार से अन्य देशों को कुछ फायदे भी हो सकते हैं। चीन जिन मालों को खरीदने के लिए अमेरिका की तरफ रुख करता था, उन मालों की ऊँची कीमत की वजह से वह अमेरिका को छोड़कर अन्य देशों की तलाश करेगा। ठीक इसके उल्टा भी होगा। अमेरिका चीन के आलावा अन्य व्यापारिक साझेदार की तालाश करेगा। जैसे चीन को अपनी प्रोटीन जरूरतों को पूरा करने के लिए सोयाबीन की जरूरत होती है और इसकी पूर्ति चीन अमेरिका से करता था लेकिन टैरिफ की वजह से हो सकता है कि सोयाबीन की जरूरतें भारत से पूरी की जाने की कोशिश की जाए। 

इस लिहाज से ट्रेड वार की वजह से शुरूआती दौर की स्थितियां तो असंतुलित होकर भी संतुलित रहती हैं लेकिन जब विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे की अर्थव्यवस्थाओं के सहारे  युद्ध की तरह टकराने लगती हैं तो इसका प्रभाव बहुत गंभीर होता है। विश्व आर्थिक विकास की दर कम होने लगती है। विश्व व्यापर संगठन जैसी संस्थाओं में भरोसा कम होने लगता है और दुनिया के व्यापार में अनियंत्रणकारी गतिविधियों का जन्म होने लगता है। जिनका सबसे अधिक खामियाजा उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भुगतना पड़ता है जो आयात पर निर्भर करती हैं।

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