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भारत की जलवायु परिवर्तन नीति का विश्लेषण

भारत की जलवायु परिवर्तन नीति की शुरुआत 2008 से मानी जा सकती है, जब जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद (परिषद) द्वारा जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) की घोषणा की गई थी। 
Analysing India’s Climate Change Policy

आइपीसीसी की हालिया रिपोर्ट ने अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन के परिणामों को रेखांकित कर दिया है, इसी आलोक में सिद्दार्थ चतुर्वेदी अपने इस लेख में देश-काल की हमारी मौजूदा वास्तविकता के साथ साम्य-संतुलन स्थापित करने के लिए भारतीय जलवायु परिवर्तन की नीति में कुछ बदलाव करने का सुझाव देते हैं। 

भारत की जलवायु परिवर्तन नीति का पता 2008 से लगाया जा सकता है, जब जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद ने जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) की घोषणा की थी। इसके अंतर्गत जलवायु परिवर्तन में बहुआयामी, दीर्घकालिक और एकीकृत रणनीतियों के महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रमुख रूप से आठ राष्ट्रीय मिशन शामिल किए गए थेः-

  • राष्ट्रीय सौर मिशन, 
  • राष्ट्रीय विकसित ऊर्जा दक्षता मिशन,
  • राष्ट्रीय सतत पर्यावास मिशन,
  • राष्ट्रीय जल मिशन,
  • राष्ट्रीय हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पोषणीय मिशन,
  • राष्ट्रीय “हरित भारत” मिशन, 
  • राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, और
  • जलवायु परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन। 

उपरोक्त आठ मिशन भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा शुरू किए गए हैं, और इनके तहत किए गए या किए जाने वाले कार्यों की प्रगति की समीक्षा के लिए कोई वैधानिक निकाय नहीं है, जबकि इन नीतियों को घोषित होने के बाद से ढेर सारा बहुमूल्य समय बीत गया है। 

अंतरराष्ट्रीय मंच पर, अनेक देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन की रोकथाम की दिशा में कुछ कदम उठाए गए हैं। किंतु ये उपाय विकराल होती इस समस्या के निराकरण के लिहाज से नाकाफी साबित हुए हैं, जैसा कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) की हालिया रिपोर्ट से जाहिर होता है। 

आइपीसीसी की रिपोर्ट बेबाक तरीके से कहती है कि जब तक कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में तत्काल, त्वरित गति से एवं बड़े पैमाने पर कमी नहीं लाई जाती, तब तक अगले 20 साल में वैश्विक तापमान में अनुमानतः1.5 डिग्री की बढ़ोतरी रोकी नहीं जा सकती। 

मौजूदा कमियां

हालांकि एनएपीसीसी एक परिषद के मातहत काम करती है, लेकिन परिषद के हिस्से में नाम मात्र की जवाबदेही रखी गई है। नवम्बर 2014 में इसके पुनर्गठन पर एक रिपोर्ट पेश करने और जनवरी 2015 में एक बैठक आयोजित करने के अलावा, परिषद की इसके आगे और कोई बैठक होने या उसके द्वारा कोई निर्णय लिए जाने की सूचना नहीं है। 

यह विशेष रूप से इस बात से संबंधित है कि परिषद को (अ) जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर एक समन्वित प्रतिक्रिया विकसित करने पर अपना ध्यान केंद्रित करने, (ब) जलवायु परिवर्तन के आकलन, उसके अनुकूलन और उसके शमन के लिए बनाई गई क्षेत्र की कार्य-योजनाओं का निरीक्षण करना, और (स) प्रमुख नीतिगत निर्णयों की एक निश्चित समय पर निगरानी किए जाने की आवश्यकता है। 

यह प्रावधान यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) के जलवायु परिवर्तन अधिनियम-2008 की धारा 56 के विपरीत है, जिसमें सरकार के महत्त्वपूर्ण विभाग के मंत्री (राज्य सचिव) संसद के समक्ष रिपोर्ट पेश करते हैं, जिसमें जलवायु परिवर्तन के मौजूदा और अनुमानित असर से ब्रिटेन के संभावित जोखिमों का आकलन शामिल होता है। 

भारत को कार्बन बजट बनाने में अभी हिचकिचाहट हो सकती है, लेकिन वह समय अब बहुत ही करीब है, जब इसकी वास्तव में आवश्यकता हो सकती है। 

हमारे नीति-निर्माताओं की तरफ से जो तर्कों दिए जाते हैं, उनमें से एक यह है कि एक विकासशील राष्ट्र होने के नाते, भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों की कोटि में नहीं रखा जा सकता, जिसने खुद को 2050 तक कार्बन-तटस्थ देश बनाने की प्रतिबद्धता  जताई है। हालांकि, यह तर्क इस पर गौर नहीं करता कि एक विकासशील राष्ट्र के रूप में, भारत धीरे-धीरे एक विकसित राष्ट्र के रूप में विकसित होगा, जिससे मांग और खपत के स्तरों में वृद्धि होगी।

भारत में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) जलवायु परिवर्तन से संबंधित संबंधित एक केंद्रीय मंत्रालय है, जबकि, ब्रिटेन में, जलवायु परिवर्तन से निपटने में सरकार द्वारा की गई प्रगति पर संसद को रिपोर्ट पेश करने की व्यवस्था है। वहां जलवायु परिवर्तन समिति नामक एक वैधानिक प्राधिकरण की भी स्थापना की गई है, जिसे सरकार को बदलाव और नई नीतियों की सिफारिश करने का भी जिम्मा सौंपा गया है।

भारत सरकार को भी इसी तर्ज पर जलवायु परिवर्तन की चुनौती से व्यापक रूप से निपटने के लिए एक निकाय स्थापित करने का लक्ष्य रखना चाहिए। 

निगमन के लिए अनुशंसित परिवर्तन

भारत को आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के बिगड़े मिजाज का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए, उसे किसी भी नीतिगत निर्णय को अपनी राष्ट्रीय रणनीति बनाते समय क्षेत्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा। 

भारतीय कई राज्यों ने जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाएं (SAPCCs) बनाई हैं। हालांकि, ये APCC, जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए एक दृष्टिकोण का खाका भर तैयार करती हैं। एपीसीसी में उल्लिखित नीतियों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए कोई निर्धारित निगरानी तंत्र (ब्रिटेन की जलवायु परिवर्तन समिति की तरह) नहीं है।

भारत के लिए अपनी जलवायु परिवर्तन नीति में नए बदलावों को शामिल करना समय की मांग है। हालांकि भारत सरकार ने कोई विशिष्ट जलवायु परिवर्तन कानून नहीं बनाया है, लेकिन 2015 में बीजू जनता दल के लोकसभा सांसद कालिकेश सिंह देव द्वारा पेश किए गए एक निजी विधेयक में उल्लिखित प्रावधानों में से कम से कम दो प्रावधानों को शामिल करने की सिफारिश की गई थी। इसे जलवायु परिवर्तन विधेयक (बिल) 2015 नाम दिया गया था। 

'कार्बन बजटिंग' को कवर करने वाले विधेयक के अध्याय 3 में 2015-2020 के वर्षों से शुरू होने वाली प्रत्येक बजट अवधि के लिए कार्बन बजट पेश करने के लिए केंद्र सरकार पर एक अनिवार्य कर्तव्य निर्धारित किया गया है। विधेयक में यह भी परिकल्पना की गई थी कि "वर्तमान और भविष्य की अवधि के लिए कार्बन बजट को पूरा करने के लिए प्रस्तावों और नीतियों को निर्धारित करने वाली एक रिपोर्ट" को संसद के समक्ष पेश करना सरकार का कर्तव्य होगा। 

दूसरा प्रस्ताव जिसे बिल में उल्लिखित के रूप में शामिल किया जा सकता है, वह है- कार्बन ट्रेडिंग अथॉरिटी की निगरानी में एक "कार्बन ट्रेडिंग स्कीम" की स्थापना। 

इस तरह की किसी भी पहल की शुरुआत के पहले, राज्यों की यह जिम्मेदारी होगी कि वे पहले उन उद्देश्यों को व्यापक रूप से तैयार करें, जिन्हें वे अपनी क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार किसी विशेष वर्ष में प्राप्त करने की परिकल्पना करते हैं। इन उद्देश्यों को केंद्र सरकार के समक्ष पेश किया जा सकता है, जो तब एक विशेष राज्य द्वारा हासिल किए गए लक्ष्यों के अनुभवों के साथ एक लाइव डैशबोर्ड को सक्रिय कर सकती है। 

केंद्र सरकार किसी भी वर्ष के अंत में राज्यों की एक राष्ट्रव्यापी रैंकिंग जारी कर सकती है, जिसे "स्टेट क्लाइमेट चेंज रैंकिंग मिशन" कहा जाता है। इससे इस मुद्दे पर जन जागरूकता बढ़ाने और जवाबदेही को लागू करने में भी मदद मिलेगी। 

भारत में और उससे आगे की अदालतें

भारत में विधायिका और कार्यपालिका जबकि प्रासंगिक कानूनों और नीतिगत उपायों के माध्यम से नुकसान को कम करने की कोशिश कर रही हैं, दुनिया भर की अदालतों ने भी जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों को उठाने में गहरी दिलचस्पी दिखाई है। मैसाचुसेट्स बनाम पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (2007) के मामले में दिए गए अपने फैसले में, अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अमेरिकी राज्य मैसाचुसेट्स के पास पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (ईपीए) पर मुकदमा चलाने का अधिकार है। अदालत ने बहुमत की राय से फैसला सुनाया: 

"ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को विनियमित करने के लिए ईपीए का मजूबत इनकार मैसाचुसेट्स के समक्ष "वास्तविक" और "आसन्न" दोनों नुकसान का जोखिम पेश करता है।”

2015 में, पाकिस्तान के लाहौर उच्च न्यायालय ने, असगर लहरी बनाम पाकिस्तान संघ में, ने कहा था कि : 

"जीवन का अधिकार, मानवीय गरिमा का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और संविधान के अनुच्छेद 9, 14, 23 और 19A के तहत सूचना का अधिकार राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय के संवैधानिक मूल्यों के साथ ही पढ़ा जाता है, जो जलवायु परिवर्तन के मसले के हल के लिए सरकार के व्यवहारों पर निगरानी करने को लेकर न्यायपालिका को आवश्यक औजार प्रदान करता है।" 

उपरोक्त दो निर्णयों से जाहिर होता है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को संबोधित करने में अदालतों की एक सक्रिय भूमिका हो सकती है, चाहे वह राष्ट्र विकसित हो या विकासशील हो। 

भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के अधिकारों को अक्षुण्ण रखने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाई है। पर इन अदालतों को जल्द ही 'जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुकदमे' से दो-चार होना पड़ सकता है, और उसे जलवायु परिवर्तन को एक ऐसी समस्या के रूप में मान्यता देनी पड़ सकती है, जो नागरिक के मौलिक अधिकारों को गंभीरता से कमतर करती है। 

जलवायु परिवर्तन सबसे अधिक दबावकारी मुद्दों में से एक है, जो वर्तमान में मानवता से संबंधित है। यह उम्मीद की जाती है कि भारत में आगे पर्यावरण की स्थिति के और बिगड़ने के साथ, भारत की जलवायु परिवर्तन नीति में तत्काल बदलाव की दरकार होगी। 

समय आ गया है कि केंद्र सरकार हमारे समय की बदलती वास्तविकताओं को समायोजित करने के लिए अपनी मौजूदा जलवायु परिवर्तन नीति में महत्वपूर्ण बदलाव लाने पर विचार करे।

(सिद्दार्थ चतुर्वेदी धर्मशास्त्र राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, जबलपुर में अंतर-स्नातक कक्षा के एक छात्र हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं) 

सौजन्य : दि लीफ्लेट 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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