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अंतरजातीय विवाहों से टूटेगा जाति का बंधन

“हमें अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों के पक्ष में अभियान चलाना होगा। क्योंकि प्रेमी जोड़े किसी दबाव में आकर शादी नहीं करते हैं बल्कि अपने मन के मुताबिक फैसला करते हैं। ऐसे में उनके खिलाफ खड़े होने वालों के विरोध में तार्किक और प्रगतिशील समाज बनाने का सपना देखने वालों को भी आगे आना होगा।”
प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : उमा राग

बरेली की साक्षी मिश्रा और अजितेश कुमार के अंतरजातीय प्रेम विवाह ने भारतीय समाज में गहरे पैठे जातीय भेदभाव और श्रेष्ठताबोध को सतह पर ला दिया है। समूची हिंदी पट्टी में इस युवा जोड़े की प्रेम कहानी की चर्चा जोरों पर है। मीडिया से लेकर सत्ता के गलियारों में इस विवाह की धमक सुनी जा रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रेमी युगल को सुरक्षा देने का आदेश देते हुए दोनों की शादी को वैध मानते हुए किसी भी प्रकार की आपत्ति को खारिज कर दिया है। वहीं इलाहाबाद में ब्राह्मण सभा ने बैठक कर अंतरजातीय विवाह के खिलाफ अभियान चलाने का प्रस्ताव पारित किया है।

इस शादी के बाद लड़की के परिजनों के पक्ष में सोशल मीडिया पर एक तरह से अभियान चलाया जा रहा है। लड़के-लड़की पर तरह-तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं औऱ तरह-तरह की अफवाह भी फैलाई जा रही हैं। लड़के को नशेड़ी और आपराधिक प्रवृत्ति का बताया जा रहा है। खबर तो यह भी आ रही है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने शादी करने वाले युवक और उसके परिजनों के बारे में जानकारी मांगी है। जबकि सच्चाई यह है कि लड़का-लड़की दोनों बालिग हैं, और दोनों पढ़े-लिखे हैं। कानूनी रूप से दोनों शादी करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन शादी करने के बाद से ही दोनों के ऊपर आफत का पहाड़ टूट पड़ा है। लड़के-लड़की को अपनी जान बचाने के लिए हाईकोर्ट और पुलिस प्रशासन से सुरक्षा करने की गुहार लगानी पड़ रही है ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर दोनों की शादी के विरोध के पीछे का कारण क्या है?

वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी कहते हैं, आज 21वीं सदी में भी हमारा समाज पूरी तरह से आधुनिक नहीं बन पाया है। हमारे समाज में आज भी जाति-गोत्र की भूमिका महत्वपूर्ण है। कम से कम राजनीति और शादी में तो जातीय अस्मिता खुलकर सामने आ ही जाती है। इस मामले में भी यही हो रहा है। जबकि यह विवाह कहीं से भी गलत नहीं है।

आज भी हमारे समाज में एक तरह की जड़ता है। कानून ने भले ही दो बालिगों को शादी करने की छूट दी है लेकिन सामाजिक स्तर पर अंतरजातीय प्रेम विवाहों को मान्यता नहीं है। यहां तो और ही मामला जटिल है। लड़की उच्च जाति ब्राह्मण और लड़का अनुसूचित जाति का है। लड़की का पिता राजनीति-आर्थिक रसूख वाला है। वह सत्तारूढ़ दल का विधायक है। ऐसे में शासन-प्रशासन को वह अपने इशारों पर नचा सकता है। दूसरी तरफ समाज के ठेकेदारों को भी यह मान्य नहीं है कि ब्राह्मण जाति की लड़की किसी अनुसूचित जाति के लड़के से शादी करके आराम से अपना जीवन-यापन करे।

वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कहते हैं, साक्षी और अजितेश के विवाह पर जिस तरह से अभियान चलाया जा रहा है उसके पृष्ठभूमि में दम तोड़ रहा ब्राह्मणवाद है। आज केंद्र और यूपी में बीजेपी की सरकार है जो ब्राह्मणवाद की पोषक है। ऐसे में सत्तारूढ़ दल के ब्राह्मण विधायक की बेटी का दलित युवक के साथ विवाह करने की घटना ब्राह्मणवादी शक्तियों के अहम पर चोट करता है। 

ब्राह्मणवादी सत्ता को कारण इस घटना ने गंभीर रूख अख्तियार कर लिया है। इस घटना ने दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को सामने रख दिया है। दरअसल, दलितों को आज भी बराबर नहीं माना जाता है।

बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष और आर्य समाज के नेता स्वामी अग्निवेश कहते हैं, साक्षी और अजितेश के विवाह का विरोध करने वाले संविधान औऱ कानून के विरोधी हैं। ऐसे लोग समाज में नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं। इस घटना के विरोध का मूल कारण जातीय श्रेष्ठता है। सामाजिक रूप से भले ही जन्मना जातिवाद को महत्व मिलता हो लेकिन धार्मिक और कानूनी रूप से जन्मना जातीय श्रेष्ठता का कोई औचित्य नहीं है। जन्म के आधार पर जातीय श्रेष्ठता सृष्टि के नियमों के खिलाफ है। यह मानवतावादी मान्यताओं का भी विरोध करता है। जिस धर्म का झंडा लेकर हम जातीय विभाजन को सही ठहराते हैं वास्तव में धार्मिक ग्रंथ जन्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव के विरोध में है।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि हिंदू धर्म का मूल ग्रंथ वेद और उपनिषद हैं। वेद और उपनिषद में जन्म के आधार पर जाति श्रेष्ठता का कहीं जिक्र नहीं है। यहां तक कि स्कंद पुराण में तो स्पष्टरूप से लिखा गया है कि- जन्मना जायते शूद्र संस्कारात द्विज उच्यते। अर्थात हर इंसान शूद्र पैदा होता है और संस्कारों से ही उसका दूसरा जन्म होता है। तो जन्म के आधार पर किसी को ऊंच -नीच अपराध है। 

यहां यह बुनियादी सवाल है कि सृष्टि में कोई ऊंच या नीच नहीं है। जन्म के समय सब इंसान बराबर होते हैं। जन्म के बाद विकास में बराबर का अवसर न मिलने पर व्यक्ति और समाज पीछे छूट जाता है। जातिवादी-कट्टरपंथी तत्व नियमों के विरुद्ध जाकर जातिवादी व्यवस्था को बनाए-बचाए हैं। कोई धर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि जिसमें इंसान को इंसान नहीं माना जाता बल्कि जन्म से ही उसे नीच और अछूत बता दिया जाता है। ऐसे धर्म की रूढ़ियों को हमें पूरी तरह से इंकार करना चाहिए और ऐसे धर्माचार्यों और जातिवादी ताकतों का विरोध करना चाहिए। जन्मना जातिवाद का हमारे समाज में समय-समय पर विरोध होता रहा है। दरअसल, जन्म के आधार पर श्रेष्ठता का कोई तार्किक-वैज्ञानिक कारण नहीं है।

इतिहास में कई अवसरों पर इसके खिलाफ तीखा संघर्ष चला है। स्वतंत्रता संग्राम के समय बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने जातिवाद के संपूर्ण उन्मूलन की आवाज उठाई थी। उसके पहले ज्योतिबा फुले जैसे मनीषियों ने जातिवाद के खिलाफ बिगुल बजाया था। महर्षि दयानंद ने जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को गलत बताते हुए युवा-युवतियों के गुण–कर्म-स्वभाव के आधार पर स्वयंवर प्रथा को पुनर्जीवित करने के लिए प्रबल आग्रह किया है। महात्मा गांधी ने तो संकल्प लिया था कि वह किसी ऐसी शादी में भाग नहीं लेंगे जो जाति के अंदर हो रहा होगा और नारायण भाई देसाई जो उनकी गोद में खेले थे उनकी शादी में इसीलिए नहीं गए क्योंकि वह अंतरजातीय नहीं था।

भारत के संविधान को लागू हुए लगभग 70 साल हो रहे हैं और अभी भी जन्मना जातिवाद और निचली जातियों का उत्पीड़न जारी है। रोज के हिसाब से पूरे देश के अलग-अलग कोने में इस प्रकार की दर्द भरी आवाज में सुनने को पढ़ने को मिल रही है। जिस तरीके से जातिवाद को खत्म किया जा सकता है यानी अंतरजातीय विवाह करने वाले युवा जोड़ों के प्रोत्साहन देकर, तो उस पर पहरा बैठाया जा रहा है। इसका खात्मा करने के लिए हमें अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों के पक्ष में अभियान चलाना होगा। क्योंकि प्रेमी जोड़े किसी दबाव में आकर शादी नहीं करते हैं बल्कि अपने मन के मुताबिक फैसला करते हैं। ऐसे में उनके खिलाफ खड़े होने वालों के विरोध में तार्किक और प्रगतिशील समाज बनाने का सपना देखने वालों को भी आगे आना होगा। आज जब युवा जाति-धर्म के बंधन को तोड़ कर एक नया समाज बनाने की तरफ अग्रसर हैं तो सरकारों को ऐसी शादी करने वाले नौजवानों को पूर्ण सुरक्षा मिलनी चाहिए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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