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अनुच्छेद 370 : घाटी ने BJP और संघ के 'एकीकरण' को नकारा

कश्मीर के गुस्से से भरे सिविल कर्फ्यू से राज्य की सही स्थिति दिखाई दे जाती है।
article 370

बीजेपी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से 35A के तहत मिली संवैधानिक सुरक्षा और विशेष दर्जा हटाए जाने के बाद अब दो महीने से ऊपर वक्त गुज़र चुका है। दो महीनों से ही कश्मीर घाटी को गुस्से और निराशा ने जकड़ रखा है। माहौल में अब डर और अनिश्चितता बनी हुई है। विरोध प्रदर्शनों को बेरहमी से दबा दिया गया। लोगों का गुस्सा पूरी घाटी में हो रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में देखा जा सकता है। एक किस्म की मुर्दा शांति छाई हुई है।  

निचले और उच्च दर्जे के सभी शैक्षिणिक संस्थान अब भी बंद पड़े हैं। बंद से कश्मीरियों, खासकर मजदूर वर्ग की रोजी-रोटी पर बहुत बुरा असर पड़ा है। घाटी में मची उथल-पुथल से उन्हें फिर नुकसान हुआ है। कश्मीरी सेब उद्योग को बहुत बुरी मार पड़ी है। पिछले दो महीनों में दैनिक कामगार, मजदूर, स्टाल वेंडर्स, छोटे दुकानदार, ऑटोवाले और ड्राईवर समेत तमाम लोगों ने एक पैसा तक नहीं कमाया। एक तरफ इन लंबे प्रदर्शनों ने उनकी रोजी-रोटी को ख़तरे में डाल दिया है, तो दूसरी तरफ राज्य के दमन से उनकी जान पर बन आई है। दोनों ही तरफ से उनको राहत नहीं है।  

अगस्त,1952 में जम्मू और कश्मीर विधानसभा में दिए गए शेख अब्दुल्ला के भाषण को आज याद किया जाना चाहिए।  इस विख्यात भाषण में उन्होंने कहा था, 'भारत के साथ हमारे रिश्तों की सबसे बड़ी गारंटी लोकतंत्र और पंथनिरपेछ भावनाओं की पहचान है...मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मनमर्जी से अगर इस संबंध के आधार का उल्लंघन किया गया, तो न केवल भारत के संविधान की आत्मा और शब्दों का उल्लंघन होगा, बल्कि इससे भारत के साथ हमारे राज्य के समन्वयपूर्ण जुड़ाव पर भी गंभीर प्रभाव पड़ेगा। '  

अब राज्य का विशेष दर्जा छीनकर उसे दो हिस्सों में बांट दिया गया। यह जम्मू-कश्मीर के लोगों और भारत में रह रहे लोकतांत्रिक नागरिकों की भी मर्जी के खिलाफ है। 2019 में बीजेपी के बड़े बहुमत से वापस आने के बाद से ही विशेष दर्जे पर संकट के बादल छाने लगे थे। अब साबित हो चुका है कि बीजेपी कश्मीर समस्या के समाधान और शांति लाने में विश्वास नहीं रखती। इसके उलट यह कश्मीर में अपनी दमनकारी नीतियों को लागू करवाने और भारत-कश्मीर संबंध के जटिल सवाल को दोबारा सामने लाने पर खुश है।

राज्य में ज्यादातर लोगों का सोचना है कि नई दिल्ली का यह कदम तार्किकता से परे है। इस एहसास के बहुत खतरनाक नतीजे होंगे। भारतीय राज्य अब पूरी तरह से बेहद घृणित होकर बदनाम हो गया है। उनकी नजरों में भी जो पहले भारतीय राज्य के साथ थे। इसने भयंकर खतरनाक स्थितियों की निर्माण का रास्ता खोल दिया है। अब इस बात का अनुमान लगाना कठिन हो चुका है कि कैसे घाटी में स्थितियां सामान्य होंगी।  

कश्मीर में भारी सैन्य कार्रवाई में हजारों लोगों को गिरफ्तार कर आगरा, बरेली और दूसरी जगह भेज दिया गया है। तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत कई विधायक अब भी या तो गिरफ्तार हैं या नजरबंद कर दिए गए हैं। राज्य में इस वक्त बहुत बड़े स्तर का संचार अवरोध है, ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया। साथ ही सैन्यबलों की संख्या में भी बहुत इज़ाफा किया गया है। किसी के समझ से परे है कि डिजिटल इंडिया की बहती गंगा में एकदम से सूखा आ गया है और किसी को कस्बों और गांवों में सैनिकों की बाढ़ की कोई खबर ही नहीं है।

सबकुछ सेना और अर्धसैनिक बलों के हाथ में दे दिया गया है।  इनकी गाड़ियां खाली सड़कों पर गश्त लगाती हैं। जगह-जगह बैरिकेड लगाए गए हैं और स्थानीय लोगों, खासकर युवाओं के काग़ज़ातों की जांच की जा रही है। भीतरी ग्रामीण इलाकों में तो सैन्यबल के हाथों में ही कानून-व्यवस्था है। इन इलाकों में गांव के बुजुर्गों, युवाओं और धार्मिक गुरूओं को अक्सर आर्मी कैंपों में सवाल-जवाब के लिए बुलाया जाता है। स्थानीय पुलिस के हाथ से ताकत छीन ली गई है।  

साफ है कि गृहमंत्री के तौर पर पिछले कार्यकाल में राजनाथ सिंह की तमाम यात्राएं, कश्मीर पर मध्यस्थ की नियुक्ति और मोदी का इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत का जाप सिर्फ भाषणबाजी और ढकोसला था। क्योंकि पहली बार बड़ी संख्या में भीतरी इलाकों में आर्टिलरी हथियारों की तैनाती की गई है। ताकि स्थानीय लोगों को डराकर अपनी मर्जी के अधीन किया जा सके। कुछ गांवों और शहरी इलाकों में प्रदर्शन के बाद सुरक्षाबलों द्वारा स्थनीय लोगों की पिटाई और संपत्ति को नुकसान की खबरें भी सामने आई हैं।  

असहमत कश्मीरियों को दबाने के लिए ताकत के इस अंधे और दंभ भरे इस्तेमाल से साफ है कि बीजेपी सरकार की कश्मीर में शांति लाने में रुचि नहीं है। भारत में नफरत, कट्टरपंथ और उदासीनता के माहौल में किसी को भी कश्मीरियों की जिंदगी के बारे में चिंता नहीं है। संघ परिवार दुर्भावना से भरा अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस नाजुक वक्त का पूरा इस्तेमाल कर रहा है। संघ की नफ़रत पर आधारित राजनीति, जो यह शेष भारत में बेहूदगी से इस्तेमाल करता है, वह अब कश्मीर पहुंच चुकी है। इससे विध्वंस की आग पैदा हुई है।

इसी आग को जलाए रखने के लिए अनुच्छेद 370 को हटाया गया है, जबकि साफ था कि इससे ज्यादा नुकसान होगा। इसके बावजूद संघ परिवार ने राजनीतिक पूंजी बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया। इसमें संघ की कारपोरेट मालिकों वाले मीडिया के एक बड़े हिस्से ने बहुत मदद की।

गुज़रते सालों में जैसे-जैसे लोग सद्भाव और सुलह की राजनीति की अहमियत समझ रहे थे, उनका भरोसा अब उठ चुका है। पिछले दो महीनों में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का उत्कृष्ट विचार तार-तार हो चुका है। यही वो चीजें थीं, जो भारत कश्मीरियों को देने का दावा करता था। चिंता इस बात की है कि अब एक कट्टरपंथी मिलिटेंट की एक नई नस्ल सामने आ सकती है। आशा करनी चाहिए कि ऐसा न हो, पर लगता है भारत इस बात फिक्र नहीं करता कि चीजें अब कहां जा रही हैं।

इस बात को जरूरी तौर पर समझ लेना चाहिए कि संघ परिवार पंथनिरपेक्षता और संवैधानिक गणराज्य के विचारों को नहीं मानता। यही दो विचार कश्मीर और भारत को जोड़ते हैं।  आरएसएस का पुरातन विचार रहा है कि देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य उनके सपनों का हिंदू राष्ट्र बनाने में सबसे बड़ा रोढ़ा है।

तर्कों के लिए ही सही, भारत लंबे वक्त तक मानता रहा कि पंथनिरपेक्षता को जिंदा रखने के लिए कश्मीर का भारत में होना जरूरी है। जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में पहली बार कहा था, 'हमने हमेशा कश्मीर समस्या को सांकेतिक माना है, जबकि भारत पर इसके लंबे प्रभाव पड़ेंगे। कश्मीर इस बात को साबित करता है कि हम एक पंथनिरपेक्ष राज्य हैं। कश्मीर से भारत और पाकिस्तान दोनों में प्रभाव पड़ता है, क्योंकि अगर हम द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर कश्मीर को अलग कर देते हैं, तो भारत और पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे लाखों लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। बहुत से भर चुके जख्म दोबारा हरे हो जाएंगे।'

जब संघ अपने सांप्रदायिक, फासिस्ट और पंथनिरपेक्ष विरोधी विचारधारा की कसम खाता है, तो कश्मीर की पंथनिरपेक्ष धारा उन्हें कैसे रास आ सकती है। शेख अब्दुल्ला ने भारत की पंथनिरपेक्षता और संवैधानिकता में कश्मीर का विलय किया था, न कि संघ और इसकी नफरत भरी विचारधारा में। अपने जीते जी वो कभी उनसे सुलह नहीं कर पाए और हमेशा उनकी विचारधारा को नकारते रहे। कश्मीर और भारत के रिश्तों को वापस पटरी पर उतारने के लिए जरूरी है कि राज्य में लोकतंत्र लागू किया जाए और पूरी स्वायत्ता के साथ राज्य का दर्जा बहाल किया जाए।  

(बशारत शमीम, जम्मू-कश्मीर के एक ब्लॉगर और लेखक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) 

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

Art 370: Valley Rejects BJP-Sangh ‘Integration’

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