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असहिष्णुता – हम राजनीतिक सहमति के नहीं, बढ़ते टकराव के दौर में प्रवेश कर रहे हैं

प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी का स्वर बेशक बदला हुआ है। लोकसभा में ‘संविधान दिवस’ पर चर्चा के आखिर में, प्रधानमंत्री का वही स्वर सुनायी दिया, जो इससे पहले एक बार ही सुनायी दिया था–प्रधानमंत्री पद संभालने के फौरन बाद के उनके भाषण में। इसके दो दिन बाद, राज्यसभा में वैसी ही चर्चा के अंत में एक बार फिर वही समावेशी सुर अपनाकर, प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया कि उनका सुर सचमुच बदल गया है। लोकसभा में  असहिष्णुता पर बहस भी अपेक्षाकृत आसानी से निकल गयी। हालांकि, एक बार तोमोहम्मद सलीम के एक पत्रिका द्वारा राजनाथ सिंह के नाम पर छापी गयी ‘हिंदू राजा’ संबंधी टिप्पणी उद्यृत करने पर, खुद सत्तापक्ष ही सदन की कार्रवाई को पटरी से उतारता नजर आया। खुद गृहमंत्री के परोक्ष अनुमोदन से सत्ताधारी दल, एक प्रकाशित टिप्पणी को जस का तस उद्यृत करने के लिए, एक वरिष्ठ सांसद से ‘शब्द वापस लेने’ से लेकर ‘माफी मांगने’ तक की मांगों पर अड़ता नजर आया। विशेषाधिकार हनन प्रस्तावों का भी जिक्र आया। सत्ताधारी पार्टी जैसे हाथ के हाथ ‘असहिष्णुता’ का एक और सबूत पेश कर रही थी, जिसने सीपीएम नेता को ‘बहुमत की निरंकुशता’ की शिकायत करने का भी मौका दे दिया।
 
बहरहाल, दो-दो स्थगनों के बाद, लोकसभा की स्पीकर ने और जाहिर है कि सत्ताधारी दल के परोक्ष अनुमोदन से, विवादित उद्घरण को ही कार्रवाई से निकालने के अपने निर्णय के जरिए, स्थित को संभाल लिया। अंत में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस बहस के अपने जवाब में असहिष्णुता बढ़ऩे के आरोपों को खारिज करते हुए भी, न सिर्फ इसका एलान किया कि सामाजिक समरसता की किसी भी कोशिश को बख्शा नहीं जाएगा, उन्होंने इसका भी भरोसा दिलाया कि सरकार की ओर से अगर कोई कमी रही है, तो उसे दूर किया जाएगा। इतना ही नहीं उन्होंने सम्मान लौटाने वाले लेखकों-बुद्धिजीवियों से सम्मान वापस लेने की भी अपील की और कहा कि उनकी अगर कोई आशंकाएं हैं, तो गृहमंत्री बैठकर बात करने के लिए तैयार हैं।
 
इस सब के आधार पर बढ़ते आग्रह के साथ यह दावा किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार अब तक भले ही टकराव के रास्ते पर चलती रही हो, अब सहमति और सर्वानुमति के रास्ते पर चल पड़ी है। प्रधानमंत्री ने खुद कहा भी है कि देश, बहुमत से नहीं, सहमति से चलता है। कुछ चतुर सुजानों ने नरेंद्र मोदी 2.2 या मोदी राज-पार्ट 2 की शुरूआत की भी खोज कर डाली है। खासतौर पर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया न सिर्फ खुलकर ‘असहिष्णुता’ की चर्चा से थकान प्रदर्शित कर रहा है बल्कि आग्रहपूर्वक यह मांग भी कर रहा है कि यह चर्चा अब बंद होनी चाहिए। कहा जा रहा है कि बहुत हुई असहिष्णुता की चिंता, अब देश को आगे बढ़ऩे दीजिए। जैसे असहिष्णुता की चिंता ने ही देश के पांव जकड़ रखे हों। बेशक, नरेंद्र मोदी की सरकार के इस नये वर्शन के आने के कारणों की व्याख्याएं भी हैं। सबसे आसान व्याख्या तो यही कि यह बिहार की हार का असर है। इसमें लोकसभा उपचुनाव की पहली हार (रतलाम-झाबुआ) और एकदम ताजा, गुजरात में जिला परिषद यानी ग्रामीण स्थानीय निकाय चुनावों की हार को भी जोड़ लीजिए। 2014 की अभूतपूर्व जीत का नशा उतर गया है। राज्यसभा में बहुमत का सपना अब और दूर खिसक गया है। दूसरी ओर, फिलहाल चुनावों का कोई दबाव नहीं है। अगले साल होने वाले विधानसभाई चुनावों में एक असम को छोड़क़र भाजपा का वैसे भी कोई खास दांव नहीं है और असम में भी चुनाव अब सीधे मोदी के नेतृत्व में लड़े जाने संभावना बहुत ही कम है। अब मोदी सरकार को ‘कर के दिखने’ में जुटना होगा। उसने समझ लिया है कि वह अब और हाशिए के तत्वों को, अपने विकास के एजेंडे की लाइम लाइट छीनने नहीं दे सकती है, आदि आदि।
 
 बहरहाल, ठीक इसी बीच ऐसा बहुत कुछ घट रहा था, जो मोदी राज-पार्ट 2 के पार्ट 1 का विस्तार होने को ही दिखाता है। यहां सिर्फ दो प्रकरणों का उल्लेख करना काफी होगा। इनमें से एक प्रकरण तो संसद का ही है, जहां मोदी सरकार के स्वर में सबसे ज्यादा अंतर आया बताते हैं। पूर्व-मंत्री तथा कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य, कुमारी शैलजा ने, जो खुद अनुसूचित जाति से हैं, संविधान दिवस पर चर्चा के क्रम में, सामाजिक भेदभाव अब तक चल रहे होने के उदाहरण के तौर पर इसका जिक्र किया था कि मंत्री रहते हुए, द्वारिका के एक मंदिर में उनके साथ भेदभाव हुआ था और उनकी जाति पूछी गयी थी। संभवत: इसलिए कि संबंधित प्रसंग गुजरात का था, नयी-नयी ‘समावेशी’ और ‘सहिष्णु’ हुई सरकार के वित्तमंत्री और राज्यसभा के नेता, अरुण जेटली को कुमारी शैलजा के बयान के 48 घंटे के अंदर-अंदर, सदन में ही इसका दावा करना जरूरी लगा कि अपने साथ सामाजिक भेदभाव होने की उनकी शिकायत झूठी थी। अपने इस दावे के पक्ष में मंत्री महोदय ने द्वारिकाधीश मंदिर की अतिथि पुस्तिका का पन्ना भी पेश किया, जिसमें मंत्री की हैसियत से कुमारी शैलजा ने मंदिर प्रबंधन के लिए प्रशंसात्मक टिप्पणियां की थीं। सरकार के ही एक और मंत्री पीयूष गोयल ने कुमारी शैलजा द्वारा उठायी गयी समस्याओं को ही ‘‘मैन्यूफैक्चर्ड प्राब्लम्स’’ और भेदभाव की उनकी शिकायत को ‘‘मैन्यूफैक्चर्ड डिस्क्रिमिनेशन’’ करार दे दिया। याद रहे कि अरुण जेटली ने लेखकों-बुद्धिजीवियों के विरोध के लिए ठीक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया था। और यह तब था जबकि संबंधित सांसद ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि उक्त घटना बेट-द्वारका मंदिर की थी, न कि द्वारिका के मुख्य द्वारिकाधीश मंदिर की। क्या यही सहमति की राजनीति के लक्षण हैं! अचरज नहीं कि सत्तापक्ष का इस तरह का आचरण राज्यसभा में हंगामे का कारण बन गया। अंतत: दोनों केंद्रीय मंत्रियों को माफी भी मांगनी पड़ी।
 
 दूसरा प्रकरण, अपेक्षाकृत जमीनी स्तर का है। गोमांस पर रोक-टोक के विरोधस्वरूप, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में छात्रों के एक ग्रुप ने ‘‘बीफ फेस्टिवल’’ के आयोजन का एलान किया था। चूंकि आयोजन का मकसद यह संदेश देना है कि गोमांस खाना न खाना एक निजी मसला है और अपने लिए इसका निर्णय करने का अधिकार हरेक नागरिक को होना चाहिए, 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस पर यह आयोजन किया जाना था। अचरज नहीं कि हिंदुत्ववादी संगठनों ने इसे चुनौती की तरह लिया और पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग देने की सचेत कोशिश में, उसी दिन ‘‘पोर्क फेस्टिवल’’ के आयोजन का एलान कर दिया। याद रहे कि मुसलमान सुअर को अपवित्र मानते हैं। बहरहाल, यह मामला यहीं तक नहीं रुका। प्रधानमंत्री के सुर में सारे बदलाव और भाजपा नेताओं की सोच-समझकर बोलने की सारी चेतावनियों के बावजूद, एक स्थानीय भाजपा विधायक राजा सिंह, दक्षिण के संगीत सोम बनने के लिए सीधे मैदान में कूद पड़े। उन्होंने बीफ फेस्टिवल का आयोजन करने वालों को ‘‘दादरी जैसा हश्र’’ करने की धमकी दे डाली। दिलचस्प है कि यह भाजपा विधायक इतने पर भी रुका नहीं है। उसने, ‘बीफ फेस्टिवल नहीं रोकने के पक्ष में बोलने के लिए’, तेलंगाना राज्य के भाजपा अध्यक्ष, जी किशन रेड्डी के इस्तीफे की मांग भी कर दी है। इस असहिष्णुता को रोकना क्या सिर्फ तेलंगाना सरकार का काम है?
 
बेशक, लेखकों व अन्य विचारशील लोगों की आलोचनाओं से नरेंद्र मोदी की सरकार पर बने दबाव को, बिहार की हार और उसके बाद शुरू हुए हार के सिलसिले ने और बढ़ा दिया है। सरकार की राज्यसभा बाधा के साथ जुडक़र इसने, मनमानी के लिए गुंजाइश बहुत कम कर दी है। लेकिन, इन मुश्किलों के बीच से रास्ते बनाने के लिए मौजूदा सरकार एक कार्यनीति के तौर पर किन्हीं खास मुद्दों, जैसे जीएसटी पर सुलह के रुख का पैंतरा तो अपना सकती है, लेकिन न तो अपने हिंदुत्ववादी आधार की बढ़ती मांगों तथा आक्रामता पर रोक लगा सकती और न इससे विभिन्न क्षेत्रों में पैदा होने वाली असहिष्णुता पर बढ़ते राजनीतिक टकराव से उबर सकती है। उल्टे मोदी राज की चमक जैसे-जैसे फीकी पड़ेगी, वैसे-वैसे इस कमी को पूरा करने की कोशिश में हिंदुत्ववादी आधार की आक्रामकता और आगे बढ़ेगी। वास्तव में हम राजनीतिक सहमति के नहीं, बढ़ते टकराव के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। कार्पोरेट हितों को आगे बढ़ाने पर प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की सहमति भी, इस टकराव को रोक नहीं सकती है।
 
सौजन्य: हस्तक्षेप

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