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असम : विधानसभा, संसदीय सीटों के परिसीमन और ज़िलों के विलय से आशंकाएं बढ़ीं

31 दिसंबर, 2022 की असम सरकार की अधिसूचना से पता चलता है कि लगभग 100 गांवों को मौजूदा ज़िलों से अलग करके अन्य ज़िलों के साथ जोड़ दिया गया है।
असम

दो मुद्दों ने पूरे असम में बड़ी आशंकाएं पैदा कर दी हैं; जिसमें, चार जिलों को अन्य चार जिलों में विलय करने का फैसला और साथ ही राज्य में परिसीमन प्रक्रिया की घोषणा करना शामिल है, जिस पर विपक्ष, आलोचकों और संबंधित लोगों ने अपनी चिंताओं को व्यक्त किया है। चूंकि ये मुद्दे आपस में गुंथे हुए हैं इसलिए इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता है।

नए साल की पूर्व संध्या पर, असम के मुख्यमंत्री, हिमंत बिस्वा सरमा ने चार जिलों के विलय की घोषणा की: जिसमें बजाली, विश्वनाथ, होजई और तमुलपुर, बारपेटा, सोनितपुर, नागांव और बक्सा शामिल हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि यह फैसला अस्थायी है। सनद रहे कि सरमा कैबिनेट मंत्रियों के साथ दिल्ली आए थे, और असम कैबिनेट की बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस दिल्ली में आयोजित की थी। 

जैसा कि सरमा ने बताया, निर्णयों के पीछे का कारण चुनाव आयोग की अधिसूचना का अनुपालन करना था, जिसने परिसीमन प्रक्रिया के पूरा होने तक राज्य में नई प्रशासनिक इकाइयों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया है। चुनाव आयोग का प्रतिबंध 1 जनवरी, 2023 से प्रभावी हो गया है। यह सवाल तुरंत उठता है कि पहले बनाए गए जिलों को विलय क्यों करना पड़ा। यदि ईसी प्रतिबंध प्रभावी है, तो मौजूदा जिले मानदंडों का उल्लंघन कैसे करते हैं? वे वैसे भी कोई नई प्रशासनिक इकाई नहीं हैं।

विशेष रूप से, सीएम ने घोषणा की कि कई गांवों को उन जिलों से अलग कर दिया गया था जो इन जिलों में पहले आते थे और जिन्हे अन्य जिलों के साथ शामिल कर दिया गया था।  उदाहरण के लिए, बारपेटा जिले के छह गांव अब बोंगाईगांव का हिस्सा हैं।

31 दिसंबर, 2022 की असम सरकार की अधिसूचना से पता चलता है कि लगभग 100 गांवों को मौजूदा जिलों से अलग कर उन्हे अन्य जिलों के साथ जोड़ दिया गया है। स्थानीय लोगों को जब जिलों के पुनर्गठन के बारे में पता चला तो उन्होने इसके प्रति अपना विरोध दर्ज कराया है। मुद्दे का दूसरा हिस्सा परिसीमन भी है। जवाबों से अधिक कई सवाल है। इस वक़्त परिसीमन कराने की अचानक जल्दबाजी क्यों दिखाई जा रही है? आइए जानते हैं कि सन 1976 से असम में परिसीमन क्यों नहीं हुआ था?

पृष्ठभूमि 

परिसीमन पूरे देश में आयोजित एक आवधिक प्रक्रिया है, जहां राज्यों के विधानसभा और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से तैयार किया जाता है। भारत में अंतिम परिसीमन 2002 में शुरू हुआ था, और इसका आधार 2001 की जनगणना की रिपोर्ट थी। असम और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों को छोड़कर, 2008 तक, अधिकांश राज्यों ने परिसीमन प्रक्रिया को पूरा कर लिया था। 

असम के संदर्भ में, 2002 के परिसीमन का विभिन्न क्षेत्रीय संगठनों, नागरिक समाजों और राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर विरोध किया था। सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शन की गूंज राज्य विधानसभा के भीतर भी सुनाई देने लगी थी, और प्रक्रिया को जारी न रखने का संकल्प लिया गया। गौरतलब है कि असम विधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष टंका बहादुर राय ने 16 मई, 2007 को परिसीमन आयोग के अध्यक्ष को एक पत्र भेजा था। पत्र, 11 मई, 2007 को सर्वदलीय प्रस्तावों के आधार पर, प्रक्रिया जारी नहीं रखने के लिए आयोग को भेजा गया था।

असहमति की बात यह थी कि एनआरसी (नागरिकों की राष्ट्रीय रजिस्ट्री) को उन्नत (अपग्रेड) किए बिना, निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का कोई अर्थ नहीं है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए एजेपी (असम जातीय परिषद) के अध्यक्ष और एएएसयू (ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन) के पूर्व महासचिव लुरिन ज्योति गोगोई ने कहा कि, "5 मई, 2005 को तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह के साथ एक बैठक हुई थी। आसू (AASU) भी इसका एक हिस्सा था, और असम के लोगों की चिंताओं को वहां उठाया गया था। एनआरसी को अपडेट किए बिना परिसीमन क्यों निरर्थक होगा, यह स्पष्ट रूप से पीएम को बता दिया गया था।

ल्यूरिन ने यह भी कहा कि चायगांव और बारपेटा में पायलट प्रोजेक्ट थे। "लेकिन जैसा कि उस समय एनआरसी उन्नयन की प्रक्रिया भी शुरू हुई थी, एक आम सहमति बनी थी कि पहले एनआरसी और फिर परिसीमन होना चाहिए। लुरिन ने कहा कि, विदेशी आप्रवासन मुद्दा 80 के दशक से असम की राजनीति के केंद्र में रहा है, फिर भी इसे हल नहीं किया गया है।"

गौहाटी उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता शांतनु बोरठाकुर ने कहा कि, "2005 में शुरू हुई परिसीमन प्रक्रिया के खिलाफ असम में हर स्तर पर लड़ाई लड़ी गई थी। प्राथमिक चिंता एनआरसी थी, जिसे अभी तक हल नहीं किया गया है। एक मामला उच्च न्यायालय में भी था जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय में गया और प्रक्रिया पर एक स्थगन आदेश लागू कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में स्थगन आदेश को हटा दिया, और प्रक्रिया फिर से शुरू हो गई। हालांकि, यह फिर से 2001 की जनगणना रिपोर्ट पर आधारित होगा। नागालैंड में भी परिसीमन पर रोक लगी हुई है।"

असम की राजनीति में अब भी विदेशी आप्रवासियों और एनआरसी एक मुद्दा है। हालाँकि, मुद्दों को हल करने के स्पष्ट संकेत होने की जरूरत है। इन्हें लेकर असम में परिसीमन की प्रक्रिया रोक दी गई थी। परिसीमन आयोग ने 2007 में एक मसौदा भी तैयार किया था, और इसके बाद विरोध और बंद तेज हो गए, और विधानसभा भी इस अभ्यास को जारी नहीं रखने का संकल्प लेकर आई। इस प्रकार, असम में 2007-08 के दौरान परिसीमन नहीं हुआ। तब से यह प्रक्रिया ठप पड़ी है।

वर्तमान गोरखधंधा 

परिसीमन की घोषणा और जिलों के विलय के साथ, असम में यह बहस फिर से शुरू हो गई है। हालाँकि, इस बार भी कुछ विरोध या आंदोलन देखे जा सकते हैं, हालाँकि संबंधित जिलों और गाँवों के नागरिकों ने कुछ प्रदर्शन किए हैं। आशंकाएं कुछ बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं- सबसे पहले, परिसीमन 2001 की जनगणना पर आधारित होगा। फिर यह पहले वाले से कैसे भिन्न होगा? दूसरा, एनआरसी को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है, इसलिए 2005 में परिसीमन के विरोध का आधार खत्म नहीं हुआ है। तीसरा, क्या यह प्रक्रिया/अभ्यास देशज  लोगों की रक्षा करेगा, जैसा कि सीएम हिमंत बिस्वा सरमा दावा कर रहे हैं?

हाँ, ये बिंदु अभी भी कायम हैं। विशेष रूप से, आसू (AASU) इस बार इतना मुखर नहीं रहा है। मसौदा तैयार होने के बाद 2007 में यह आंदोलनों की मुख्य ताक़त थी। 

प्रमुख असमिया दैनिक समाचार पत्र, अमर असोम की एक रिपोर्ट के अनुसार, हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि उन्होंने परिसीमन की घोषणा से पहले आसू को सूचित किया था। हालांकि, आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जल भट्टाचार्य ने इससे इनकार किया है।

फिर भी, इस बार आसू के नेतृत्व में कोई संगठित विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ है। गौरतलब है कि आसू को पिछले साल सीएम और अन्य मंत्रियों के साथ बैठक के लिए आमंत्रित किया गया था। आरोप है कि इस मुलाकात की जानकारी मीडिया तक को नहीं दी गई थी। और यह भी पता नहीं चल पाया है कि चर्चा क्या हुई।

विपक्षी दलों को लगता है कि परिसीमन प्रक्रिया को फिर से शुरू करने में कुछ गड़बड़ है।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के असम समिति के सचिव सुप्रकाश तालुकदार ने कहा, "यह कदम विशुद्ध रूप से राजनीति से प्रेरित है।"

तालुकदार ने, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संदिग्ध रुख पर सवाल उठाते हुए कहा कि, "2005 में, भाजपा भी परिसीमन प्रक्रिया का विरोध कर रही थी। उनके तर्क भी एनआरसी और 2001 की जनगणना के इर्द-गिर्द मँडरा रहे थे। क्या वे बदल गए हैं? क्या परिसीमन 2001 की जनगणना पर आधारित नहीं होगा? एनआरसी अभी भी अधर में लटकी है। फिर बीजेपी इस बार इसका कैसे समर्थन कर सकती है? बीजेपी का दोहरा मापदंड इस बार उजागर हो गया है।

"अब यह सर्वविदित है कि भाजपा का राज्य की सत्ता के तंत्र पर अभूतपूर्व नियंत्रण है। चुनाव आयोग भी उनके पक्ष में है। क्या हम विश्वास कर सकते हैं कि इस प्रक्रिया में कोई निहित राजनीतिक हित शामिल नहीं है?"

बोरठाकुर ने यह भी कहा कि परिसीमन को इस तरह से तैयार किया जा सकता है ताकि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अल्पसंख्यक की निर्णायक भूमिका हो, उन्हें फिर से परिभाषित किया जा सके। बोरठाकुर ने कहा, "इस प्रक्रिया से बीजेपी को अल्प समय के लिए फायदा हो सकता है।"

"यह सब जल्दबाजी में किया जा रहा है, जिसे केवल 2024 के आम चुनाव को लक्षित कर किया जा रहा है। भाजपा इसके माध्यम से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगी। हम फिर से पुष्टि करते हैं कि यदि परिसीमन किया जाना है, तो यह असम के लोगों के लाभ के लिए होना चाहिए, न कि भाजपा के लाभ के लिए।"

गोगोई ने कहा कि, आप इस बात को भी देखें कि "कैसे सैकड़ों गांवों को रातोंरात अलग-अलग जिलों को सौंप दिया गया है। और उन्होंने जिलों का विलय क्यों किया है? वित्तीय मुद्दे भी शामिल हैं। राज्य की आर्थिक स्थिति वास्तव में खराब है, और जिला प्रशासन चलाने में पैसा लगता है, जिसे सरकार कम करने की कोशिश कर सकती थी।

असम विधानसभा के विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया ने भी इसी तरह की चिंता जताई है। एक स्वच्छ प्रक्रिया की मांग के अलावा, उन्होंने अलग जिलों के लिए आंदोलनों में शामिल लोगों की पीड़ा और चिंता को दोहराया।

सैकिया ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, "जिलों में जटिल ऐतिहासिक तथ्य शामिल हैं और लोगों के लंबे संघर्ष भी हैं। बजाली जिले की घोषणा सर्बानंद सोनोवाल के शासन के दौरान की गई थी। सीएए विरोधी आंदोलन से पहले, एक अलग जिले की मांग के विरोध में एक युवा ने अपनी जान गंवा दी थी। वे इसे कैसे भूल सकते हैं?" बजाली जिले और अन्य को सीएए आंदोलन के दौरान लोगों को खुश करने के लिए घोषित किया गया था।"

सीएम हिमंत बिस्वा सरमा के अनुसार वे 'मूल निवासियों की भावनाओं की रक्षा' को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। 31 दिसंबर को दिल्ली में अपने प्रेस संबोधन में, उन्होंने कहा कि परिसीमन और जिलों के विलय की पूरी कवायद भारी मन से की गई थी, लेकिन एक बड़े लक्ष्य के लिए ऐसा किया गया था।

इस बिंदु पर, असम के एक प्रमुख पत्रकार, सुशांत तालुकदार ने टिप्पणी की कि, "मुझे लगता है कि सत्तारूढ़ भाजपा देशज समुदायों की रक्षा करने की धारणा बनाने की कोशिश करके परिसीमन प्रक्रिया का इस्तेमाल अपनी चुनावी रणनीति को आगे बढ़ाना चाहती है, हालांकि यह अभ्यास सिर्फ पुनर्समायोजन है। निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं में जातीय आधार पर सीमाओं को फिर से परिभाषित करने का एक सीमित दायरा है। परिसीमन के बाद निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण और अधिक जटिलताएं पैदा करेगा जिसे अनदेखा करना सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए मुश्किल होगा।"

"यह स्पष्ट रूप से भाजपा द्वारा अभियान को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार दोहराया जाने  वाला बयान कि देशज समुदायों के लिए जनसांख्यिकीय खतरा पूर्व बंगाल मूल के मुसलमानों से आया है। यह देखा जाना बाकी है कि चुनाव आयोग परिसीमन के लिए क्या तौर-तरीके अधिसूचित करता है। पुनर्समायोजन नहीं होने जा रहा है। तालुकदार ने कहा, 2026 के बाद कई निर्वाचन क्षेत्रों को स्थायी कर दिया जाएगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Assam: Delimitation of Assembly, Parliamentary Seats, Merging of Districts Raise Apprehensions

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