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अयप्पा का ब्रह्मचर्य महिलाओं को दबाने का बहाना मात्र

बीजेपी इस मुद्दे का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है, वहीं कांग्रेस भी "हिंदू वोट" अपने हाथ से निकलने देने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और महिलाओं के खिलाफ इस तरह के भेदभाव पर अपना रूख स्पष्ट नहीं कर रही है।
Sabarimala

केरल के पथानामथिट्टा ज़िले के पश्चिमी घाट पर स्थित सबरीमाला में अयप्पा मंदिर हिंदू समुदाय के लोगों का तीर्थ स्थल है। यहां 28 सितंबर 2018 तक महिलाओं के लिए प्रवेश पर रोक थी। अयप्पा ब्रह्माचारी देवता हैं और इस तरह महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाना देवता के ब्रह्मचर्य की रक्षा करना है। 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक भेदभाव को लेकर इस प्रतिबंध को रद्द कर दिया। देश भर में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के बीच इस फैसले को लेकर काफी उत्साह था, वहीं केरल और अन्य जगहों पर कई लोगों ने इस फ़ैसले का विरोध किया। इस भेदभावपूर्ण प्रथा और तर्कहीन विश्वास पर प्रतिबंध लगाने वाले फ़ैसले पर यह तर्क दिया जा रहा है कि यह हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को नुकसान पहुंचाता है। एक तरफ, उन भक्तों द्वारा तर्क दिए गए हैं जो इस परंपरा को भेदभाव के रूप में नहीं मानते हैं और दूसरी तरफ हिंदू दक्षिणपंथी पार्टी भारतीय जनता पार्टी और अन्य हिंदुत्व संगठन "भावनाओं की राजनीति" कर रहे हैं। उधर कांग्रेस भी इसका लाभ उठाने के लिए तैयार है।

"भावनाओं की राजनीति"

केरल देश के उन 11 राज्यों में से एक है जहां बीजेपी अपनी उपस्थिति दर्ज करने में सक्षम नहीं है। राज्य भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की अगुवाई में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार है जो बीजेपी की न सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है बल्कि वैचारिक प्रतिद्वंद्वी भी है। बीजेपी और संघ परिवार के पास राज्य की सत्ता और वोट हासिल करने का कोई रास्ता नहीं है। जैसा कि वे इस तरह की परिस्थितियों में विशेष रूप से करते हैं, सबरीमाला के फ़ैसले का इस्तेमाल भावनाओं को उत्तेजित कर राज्य को ध्रुवीकृत और सांप्रदायिक बनाने में किया जा रहा है। इस सबके बीच राज्य की वाम सरकार इस फैसले के प्रति पूरी वचनबद्धता के साथ खड़ी है।

राज्य में बीजेपी नेता जैसे पीएस श्रीधरन पिल्लई और राज्य के आरएसएस प्रमुख पी गोपालकुट्टी मास्टर पूरी तरह से समर्थन में आए हैं और फ़ैसले के खिलाफ कई विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में एक शीर्ष आरएसएस नेता के बयान को प्रकाशित किया गया है, उन्होंने कहा, "फ़ैसले पर विचार करते समय भक्तों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है", और साथ ही सहयोगियों को एक समीक्षा याचिका की संभावना पर विचार करने की सलाह दी। एक बयान में आरएसएस के महासचिव भाईयाजी जोशी ने कहा, "सबरीमाला देवस्थानम का मामला एक स्थानीय मंदिर की परंपरा और आस्था का मुद्दा है जिसमें महिलाओं सहित लाखों भक्तों की भावनाएं शामिल हैं। फ़ैसले पर विचार करते समय इन भक्तों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।"

बीजेपी और संघ परिवार के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन के खिलाफ प्रमुख लेखकों, धार्मिक व्यक्तियों और कार्यकर्ताओं के एक बयान में कहा गया है, "प्रगतिशील केरल उच्च जाति-दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक एजेंडा पर झुक नहीं सकता है जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करना और इस कवायत को 'मुक्ति के लिए दूसरे संघर्ष' के रूप में पेश करना है। जो लोग लोकतंत्र में विश्वास करते हैं उन्हें उन लोगों के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए जो प्रथा की रक्षा करने की आड़ में केरल को पराजित करने का शोर कर रहे हैं।"

अयप्पा का ब्रह्मचर्य या भेदभाव?

जो लोग सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत नहीं कर रहे हैं वे तर्क दे रहे हैं कि यह भक्तों की भावनाओं से न्याय नहीं करता है, जो उनके अनुसार अयप्पा के ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए मिशन के अग्रदूत हैं। ये भावनाएं भेदभावपूर्ण प्रथाओं से ज्यादा कुछ नहीं है और इसके बाद की प्रतिक्रियाएं समाज में गहरी भेदभावपूर्ण पितृसत्ता का सबूत है।

यह 12 अक्टूबर 2018 को उस समय साबित हो चुका था जब मलयालम अभिनेता कोल्लम तुलसी ने सबरीमाला जाने वाली महिलाओं को दो टुकड़े करने की धमकी दी थी। वह कोल्लम में एक समारोह में बोल रहे थे जहां उन्होंने बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पीएस श्रीधरन पिल्लई के साथ मंच पर मौजूद थे।

बीजेपी के सदस्य तुलसी साल 2016 के विधानसभा चुनावों के दौरान कोल्लम में कुंद्रा से पार्टी के उम्मीदवार थे, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध करने के लिए बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की घटक भारत धर्म जन सेना द्वारा आयोजित 'सबरीमाला बचाव' अभियान में धमकी दी थी।

अयप्पा पौराणिक ग्रंथों में वर्णित लाखों हिंदू देवी-देवताओं में मौजूद नहीं है। माना जाता है कि ये ब्रह्मचर्य भगवान हरि हर सूता (विष्णु तथा शिव के पुत्र) हैं जो केवल दक्षिणी भारत में पूजे जाते हैं। इनके भक्त ज्यादातर केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक तथा आंध्र के कुछ हिस्सों में हैं। इन राज्यों में इनके कई मंदिर हैं और विडंबना यह है कि उनमें से कोई भी महिलाओं को प्रवेश करने से रोकता नहीं है; इसी तरह भक्त इन मंदिरों (सबरीमाला के अलावा) में किसी भी दिन बिना किसी प्रतिबंध के जा सकते हैं, उन्हें सबरीमाला की तीर्थ यात्रा करने से पहले 41 दिनों तक यौन व्यवहार से परहेज़ करना होगा। ये विडंबना हमें पूछने के लिए प्रेरित करती है कि सबरीमाला मंदिर में ही केवल ऐसे प्रतिबंध और नियम क्यों हैं?

भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जुलाई में सुनवाई के दौरान इस सवाल को उठाया था। उन्होंने कहा था, "यह एक असंभव शर्त है कि किसी को 41 दिन के लिए परहेज़ करना होगा..आप इसे लगा रहे हैं। आपने 41 दिन लगाया ताकि कोई महिला न जा सके। क़ानून में जो आप नहीं कर सकते हैं इस शर्त को लागू करके किया जा रहा है। आप इसे अप्रत्यक्ष रूप से कर रहे हैं।" ये मंदिर केवल उन लड़कियों को आने की अनुमति देता है जो व्यस्क नहीं हैं और वे महिलाएं जो मासिकधर्म से मुक्त हो गई हैं। जैसा कि मिश्रा द्वारा उचित तर्क दिया गया है, 41 दिनों के परहेज़ के नियम, अनिवार्य प्रार्थनाएं और अनुष्ठान स्वतः मासिक धर्म वाली महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकता है। सबरीमाला में महिलाओं के मंदिर प्रवेश की यह बहस कोई नई नहीं है। अब तक राज्य सरकार, अदालत, पांडलम शाही परिवार, पुजारी वर्ग, हिंदुत्व संगठन और भक्तों के इस मुद्दे पर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। अब, जब सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को हटा दिया है तो प्रतिबंध के पक्ष में रहने वाले कई लोग तर्क दे रहे हैं कि मंदिर में मुख्य देवता ब्रह्मचारी हैं। इसलिए महिलाओं को मंदिर में पूजा करने की अनुमति देना पाप है।

क्या हमारे पास कोई देवी है जो ब्रह्मचारी है और पुरुषों को मंदिर जाने की इजाज़त नहीं है क्योंकि देवी ब्रह्मचारी हैं? (हां, केरल में मंदिर हैं जहां विशिष्ट अनुष्ठानों के दौरान पुरुषों को अनुमति नहीं है, फिर भी ये पुजारी हमेशा देवता के लैंगिक असमानता के बावजूद पुरुष होते हैं) मासिक धर्म को अशुद्ध माना जाता है और इसलिए मासिक धर्म वाली महिलाएं अशुद्ध होती हैं।

यह प्रतिबंध कितना पुराना है?

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध साल 1991 से ही लागू हुआ है। ये प्रतिबंध केरल हिंदू प्लेसेस ऑफ पब्लिक वरशिप रूल्स1965 के नियम 3 (बी) के तहत लागू किया गया था जो निर्देश देता है कि "प्रथा के अनुसार” महिलाओं को धार्मिक क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति नहीं है, उन प्रथाओं को क़ायम रखा जाएगा। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह निषेध सभी महिलाओं के खिलाफ नहीं है, बल्कि केवल वे महिलाएं जो मासिक धर्म की उम्र से गुज़र रही होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीश खंडपीठ ने अपने 4:1 की बहुमत के फैसले में कहा कि यह प्रावधान हिंदू महिलाओं के धर्म का पालन करने के अधिकार का उल्लंघन करता है। यह भी कहा गया है कि धर्म में पितृसत्ता को पूजा करने का अधिकार किस तरजीह पर नहीं दिया जा सकता है।

मासिक धर्म की पाबंदी होने के साथ यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को "माया" माना जाता है, एक पथ भटकाने वाली। मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना क्योंकि देवता ब्रह्मचर्य हैं इस आस्था और निषेध की सिर्फ एक पुनरावृत्ति है। इन आस्थाओं का इस्तेमाल हिंदू पितृसत्तात्मक समाज द्वारा महिलाओं को अधीन करने के लिए किया गया था और सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के इस प्रथा में इसकी उचित पहचान की है।

महिलाओं का दबाने के लिए धर्म पितृसत्ता का एक बहुत ही मज़बूत साधन रहा है। महिलाओं को विश्वास कराया जाता है कि देवता जिनको मानव अस्तित्व और दिव्यता से परे माना जाता है, उनकी मौजूदगी से विचलित हो जाएंगे; और मासिक धर्म की वजह से उनका शरीर इन देवताओं के क़रीब होने के लिए शुद्ध नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लैंगिक भेदभाव का ये प्रतिबंध हटाए जाने के बावजूद ये तर्क देवासवम बोर्ड के प्रवक्ता ने दिया। एनडीटीवी के साथ पैनल परिचर्चा में देखा गया है कि, अधिवक्ता साई दीपक जिन्होंने अदालत में देवता का प्रतिनिधित्व किया है, भगवान तथा देवता, बहिष्कार और भेदभाव के बीच अंतर करके इस फ़ैसले के विरोध में तर्क दे रहे हैं। उनका तर्क यह है कि अयप्पा एक देवता हैं, न कि भगवान, और प्रतिबंध "केवल एक" बहिष्कार है और न कि भेदभाव जो इस फैसले के खिलाफ सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने उठाया है।

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