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बच्चों की सुरक्षा इस देश में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है?

राष्ट्रवाद और विकास जैसे तमाम मुद्दों के साथ हो रहे लोकसभा चुनाव में बच्चों की चर्चा बिल्कुल भी नहीं हो रही है जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि समाज और सरकारें बच्चों को सुरक्षित वातावरण मुहैया करा पाने में नाकाम रही हैं।



सांकेति​क तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर। (फोटो साभार: गूगल)

दिल्ली में गायब हुए बच्चों को तलाश करने में पुलिस की विफलता लगातार बढ़ती जा रही है। हिन्दुस्तान अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक लापता बच्चों को ढूंढ़ने का प्रतिशत बीते 10 वर्षों में करीब 45 फीसदी घट गया है। 

साल 2008 में दिल्ली पुलिस गायब हुए बच्चों में से 95 फीसदी को ढूंढ़ निकालने में सफल होती थी। वहीं, 2019 में अब तक यह आंकड़ा 51 फीसदी तक पहुंच गया है। बीते साल यह 69 फीसदी रहा था। 

राज्यसभा में पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2015 से 2018 के बीच 27,356 बच्चे दिल्ली से लापता हुए हैं। इनमें से करीब 8,000 बच्चों के बारे में अब तक कोई खबर नहीं है।

ये तो सिर्फ दिल्ली में बच्चों के अपहरण की बात हुई लेकिन अगर हम देश के स्तर पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो तस्वीर और भी भयावह नजर आती है।

भारत में वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में 889 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इन सोलह सालों में बच्चों के प्रति अपराध 10,814 से बढ़कर 1,06,958 हो गए। इनमें भी बलात्कार और यौन हिंसा के आंकड़े बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं। 

2001 से लेकर 2016 यानी इस सदी के पहले सोलह सालों में बच्चों से बलात्कार और गंभीर यौन अपराधों की संख्या 2,113 से बढ़कर 36,022 हो गई। यह वृद्धि 1705 प्रतिशत रही।

एक तरह जहां बच्चे हमारे समाज में अपहरण, यौन हिंसा का सामना कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ हमारे राजनीतिक दलों ने बच्चों से जुड़े मुद्दों पर लगभग चुप्पी साध रखी है। वोट बैंक न होने के कारण बच्चों पर किसी भी दल या राजनेता का ध्यान नहीं जा रहा है।

बच्चों के मामले में हमारे राजनेता यह बेसिक सी बात समझने को तैयार नहीं है कि सिर्फ चुनाव जीतना ही उनका काम नहीं है बल्कि एक बेहतर समाज के निर्माण की जिम्मेदारी भी उन पर है।

ज्यादातर राजनेता अपराध में कमी लाने का वादा करते हैं। उनका मानना होता है कि इससे बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में भी लगाम लग जाएगी, जबकि वो शायद आंकड़ों पर गौर नहीं करते हैं। बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में बड़ी संख्या में परिचित और रिश्तेदार शामिल होते हैं। ऐसे में बच्चों के साथ होने वाले अपराध पर लगाम लगाने के लिए उन्हें एक अभियान छेड़ना पड़ेगा। 

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अध्ययन ‘चाइल्ड एब्यूज इन इंडिया’ के मुताबिक भारत में 53.22 प्रतिशत बच्चों के साथ एक या एक से ज्यादा तरह का यौन दुर्व्यवहार और उत्पीडन हुआ है। यानी लगभग हर दूसरे बच्चे के साथ ऐसी घटनाएं घटी हैं। ऐसे में हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमारे परिवार के बच्चों के साथ यौन अपराध नहीं हुए हैं लेकिन हम फिर भी चुप हैं। 

स्कूल, घर, खेल के मैदान से लेकर लगभग हर कोने में बच्चों के साथ यौन शोषण की घटनाएं सामने आई हैं। लेकिन हमारे राजनेता खासकर सत्ताधारी दल के नेता चीख-चीख कर यह बता रहे हैं कि भारत बहुत महान देश है। भारत विश्व गुरू है। भारत का एक संप्रदाय सबसे श्रेष्ठ है। जबकि वास्तविकता यह होती है कि जब नेता ऐसा बयान दे रहे होते हैं तो उस समय वो बच्चों के साथ हो रही हिंसा, बलात्कार और बुरे बर्ताव को नजरंदाज कर रहे होते हैं।

ऐसा नहीं है कि लोगों के केंद्र में बच्चे नहीं हैं। पिछले दिनों ‘मॉमप्रेसो’ के अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि लोकसभा चुनाव में मतदान करने वाली अधिकतर मांओं के लिए निजी सुरक्षा एवं बच्चों की सुरक्षा देश का प्रमुख मुद्दा है, जिसे किसी भी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में महत्ता नहीं दी है।

अध्ययन में पाया गया कि लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं राजनेताओं से प्रभावित नहीं हैं और निजी सुरक्षा, बच्चों की सुरक्षा जैसे मुद्दों को प्रमुखता देती हैं, जिस पर कोई भी राजनीतिक दल बात नहीं कर रहा है।

अध्ययन पूरे भारत की 1,317 मांओं को शामिल करके किया गया, जिसमें 33.7 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी और 66.3 प्रतिशत गृहणियां थीं। इसमें कोई शक नहीं है कि अध्ययन में काफी कम लोग शामिल किए गए थे लेकिन इसमें जिस तरह की राय सामने आई है वह सोचने पर मजबूर करते हैं।

दरअसल सिर्फ वोट की राजनीति और चुनाव जीतने की मशीन बन चुके दल जनता से इतने दूर हो गए हैं कि उन्हें जनता के असली मुद्दे दिखाई देने बंद हो गए हैं। ऐसे में वो कुछ नए और बेहद गैरजरूरी मुद्दे गढ़कर जनता को उसी में भरमाकर रखते हैं। 

इसके अलावा हमारी आर्थिक विकास की नीतियों ने समाज और परिवारों के लिए आर्थिक उन्नति की प्रक्रिया में केवल एक ही विकल्प छोड़ा है कि परिवार के हर व्यक्ति कमाने के लिए निकले, ऐसे में बच्चे हाशिए पर चले गए हैं। 

किसी भी समाज के चरित्र को पता लगाने का सबसे बेहतर तरीका ये हो सकता है कि वो समाज अपने बच्चों के साथ कैसा बर्ताव कर रहा है। हमारे समाज और हमारे नीति निर्मताओं का बर्ताव बता रहा है कि भारत का समाज बर्बर व्यवहार के साथ संवेदनहीनता के नए मुकाम की तरफ बढ़ रहा है। हमारा न्यू इंडिया और उसका वातावरण बच्चों के अनुकूल बिल्कुल भी नहीं है। 

 

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