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बढ़ते दाम परिवारों के मुँह से छीन रहे हैं खाना

वेतन में थोड़ी सी बढ़ोतरी और जरूरी वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगे
बढ़ते दाम

दिल्ली में तीन दिवसीय, 9-11 नवम्बर को महापडाव में जमा हो रहे मजदूरों की माँग बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की भी है. महँगाई बढ़ने के कारण पहले से ही कम वेतन निरंतर और  कम लग रहा है, इस तरह महंगाई गरीबों और शोषितों से संसाधनों को समृद्ध और मालदार लोगो की तरफ स्थानांतरित करने का एक शक्तिशाली हथियार बन गयी है. परिणामस्वरूप, मजदूर, कर्मचारी, और किसान को अपने पारिवारिक खर्चों को कम करने के लिए सस्ती खाने की वस्तुएं खरीदते हैं, गरीब बस्तियों में रहते हैं, बस या मेट्रो लेने के बजाय पैदल चलते हैं, बच्चों को स्कूल जाने से रोक लेते हैं या फिर किसी स्थानीय नकली डॉक्टर के पास जाते हैं, बच्चों को अच्छे डॉक्टर के पास जाने के बजाय स्थानीय नकली डोक्टरों के पास ले जाते हैं. जब तक वेतन में बढ़ोतरी नहीं होती, उनके सामने मुद्रास्फीति की मार को झेलने का यही एक तरीका बचा है. इसलिए, बढ़ती कीमतें कामकाजी लोगों के लिए मरने और जीने का सबब बनी हुयी है. 

पिछले तीन वर्षों में, खाद्य पदार्थों के दाम तेज़ी से बढे हैं. गरीब परिवारों के लिए, जो अपनी महीने की आधी तनख्वाह/आय खाने पर खर्च करती है उनपर यह बढ़ोतरी तबाह बरपा रही है. मीट, मछली, अंडे, दूध, दूध के पदार्थ – जो कि सभी प्रोटीन के बेहतरीन स्रोत हैं – के दाम करीबी-करीब 25 प्रतिशत बढ़ गए हैं, जबकि सब्जियों और फलों के दाम 55 प्रतिशत बढे हैं. दालों की कीमते भी आम मजदूरों की पहुँच से बहार हो गयी हैं और नतीजतन कामकाजी परिवारों की बड़ी संख्या ने दाल खाना छोड़ दिया है और वे पौषक प्रोटीन खाने से महरूम हो गए हैं. दुसरे शब्दों में कहे तो मोदी सरकार द्वारा कीमतों में नियंतरण न कर पाने की वजह से मजदूरों और उनके बच्चों/परिवारों के मुहं से खाना छीन गया है.

अगर कोई भी पिछले पूरे दशक पर नज़र डाले तो स्पष्ट होगा कि वर्तमान में मोदी सरकार कांग्रेस सरकार की ही नीतियों को आगे लेकर चल रही है. वे भी कीमतों पर नियंतरण पाने में असफल रहे और इसके लिए खूब जाने जाते हैं. 2004 और 2015 के बीच गेहूं के दाम 117 प्रतिशत, चावल के 137, दालों के 123, सब्जियों के 350, दूध के 119, अण्डों के 124 और चीनी के 106 प्रतिशत दाम बढे हैं.

इस लगातार बढ़ोतरी के अलावा, देश में कुछ जरूरी खाद्य पदार्थ जैसे, सब्जियों में प्याज़, टमाटर इत्यादि में २-३ महीने तक लगातार समय दर समय बढ़ोतरी देखने को मिली है. इस तरह की बढ़ोतरी छोटे समय में ही आम आदमी से करोड़ों रुपया छीन लेती है और वह धन सीधे बड़े धन्नासेठों/व्यापारियों की तिजोरियों में बंद हो जाता है. कुछ सप्ताह के लिए जल्दी सड़ने वाली सब्जियों की जमाखोरी (जैसे प्याज़) या टमाटर के चलते बड़े व्यापारियों के कार्टेल बिना किसी भय के उनकी कीमतों को मनमाने ढंग से बढ़ा देते हैं.

यह सरकार आम जनता का यह कहकर मुर्ख बना रही है कि वह जल्द ही कृषि बाज़ार कानून में संसोधन कर किसान को सीधे उपभोक्ताओं को माल बेचने की छूट दे देगी, जिससे बिचौलियों की जमात हट जायेगी और कीमते भी नीचे आ जायेंगी. अगर किसानों के छोटे से वर्ग जोकि बड़े शहरों के समीप रहते हैं उन्हें छोड़ दें, तो बाकियों के लिए यह नहीं हुआ. ये तबका तो पहले भी अपना माल सीधे शहरों में ही बेचता था. असल में मंडियों में रजिस्ट्रेशन हटाने से उलटे भारी-भरकम जेबों वाले व्यापारियों को ही फायदा हुआ और मंडी उनके कब्ज़े में आ गयी.

मोदी सरकार ने एक और तरीके को अपना कर निजीकरण की निर्दयी नीतियों के जरिए जरूरत की सभी सेवाओं जैसे चिकित्सा सेवाएँ, शिक्षा, बीमा, बैंकिंग आदि को आम आदमी के बेतहाशा महंगा कर दिया है. एन.एस.एस.ओ. के एक अध्यन के अनुसार डॉक्टर की फीस, जांच की फीस, दाखिले आदि की फीस निजी अस्पतालों में 5 से 10 दफा ज्यादा है. शिक्षा का भी कुछ ऐसा ही हाल है.

अपने लिए राजस्व जमा करने के लिए मोदी सरकार ने पेरोल और डीजल जैसे इंधनों के दाम काफी ऊँचे रखे हैं और यह तब है जब दुनिया में इनके दाम 50 प्रतिशत कम हो गए हैं. मई 2014 में भारतीय सरकार ने कच्चा तेल 107 बैरल प्रति डॉलर खरीदा था. तीन वर्ष बाद, सितम्बर 2017 में यह घटकर उसका आधा यानी मात्र 54 डॉलर प्रति बैरल हो गया. सरकार ने टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल के दाम करीब 71 रूपए प्रति लीटर और डीजल के दाम को 58 रूपए प्रति लीटर पर बना कर रखा. इससे पैदा हुआ अतिरिक्त मुनाफा आज सरकारी की तिजोरी में बंद है जबकि इसकी वजह से परिवहन के दाम बढ़ने के साथ-साथ सभी जरूरी वस्तुओं के दाम बढ़ गए हैं.

अगर कम में कहें तो मोदी सरकार कीमतों में नियंतरण के मामले में पूरी तरह असफल हो गयी है – इससे 2014 में वोट मांगने के लिए मोदी द्वारा दिए नारे “महंगाई की बढ़ती मार, अबकी बार मोदी सरकार” की पोल खोल कर रख दी है और देश के आम गरीब, कर्मचारी और मजदूर को गरीबी की भट्टी में झोंक दिया है.

यह विडम्बना ही है कि कृषि उत्पाद जैसे अनाज, सब्जियां या दूध के उपभोक्ताओं को अपनी जेब से ज्यादा अदा करना पड़ रहा है और किसानों को इसका कोई फायदा भी नहीं मिल रहा है. कृषि, उर्वरक, कीटनाशकों, बीज आदि की लागत बढ़ गई है. इसके अलावा, ईंधन और उर्वरकों पर सब्सिडी की भारी कटौती, बिजली के टैरिफ में बढ़ोतरी और कई अन्य सार्वजनिक उपयोगिता की सेवाओं के नियंत्रण से बढ़ती कीमतों पर एक व्यापक प्रभाव पडा है. इसलिए वे वास्तव में काफी नुकसान उठा रहे हैं. सरकार ने मल्टी ब्रैंड रीटेल व्यापार में एफडीआई को भ्रामक मंजूरी देने का फैसला किया है और कवायद ये कि इससे कीमतों में गिरावट आएगी तथा किसानों को बेहतर रिटर्न प्रदान करेगी, भले ही फिर विश्वव्यापी अनुभव कुच्छ भी भिन्न हो.

तो फायदा किसे हो रहा है? यह मुनाफा केवल बड़े व्यप्परी और बड़े व्यापारिक घरानों को हो रहा है. सरकार के आशीर्वाद से वे अपनी मोटी जेबें भर रहे हैं जिसपर वास्तविक तौर पर कामकाजी लोगों का हक है. वे किसानों से सस्ता माल खरीदते हैं क्योंकि किसानों को नकद पैसे की जरूरत होती है और वे माल को दूर बेचने के लिए न तो परिवहन का खर्चा उठा सकते हैं और न ही उतना इंतज़ार कर सकते हैं. अंतत: वे उपभोक्ताओं को माल बेहद नमुदार कीमतों पर बेचते हैं.

एक सशक्त तरीका जिसमें सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता था वह सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) है. इससे न केवल सस्ते दामों पर दालें, अनाज, खाना पकाने के तेल, चीनी, मिट्टी के तेल आदि उपलब्ध होंगे बल्कि छात्रों के लिए सस्ती नोटबुक्स और कलम / पेंसिल जैसी चीजों को भी शामिल कर सस्ते दामों पर उपलब्ध कराया जा सकता है. इससे खुले बाजार की कीमतों में भी गिरावट आएगी क्योंकि निजी खुदरा विक्रेताओं को तब तक ग्राहक नहीं मिलेगा जब तक कि वे कीमतों में कमी न ले आयें.

लेकिन सरकार इस सबसे उचित और स्पष्ट तरीके को अपनाने के विपरीत, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ही खत्म कर रही है और उसका गला घोट रही है. पीडीएस में शामिल वस्तुओं की संख्या को सीमित करके, आबादी के एक हिस्से को अपने वितरण को "लक्ष्यीकरण" करके, नकदी हस्तांतरण का प्रयोग जिसका स्पष्ट मतलब है सरकार लोगों को खुले बाजार से माल खरीदने के लिए मजबूर कर रही है और  आधार लिंकिंग आदि जैसी बाधाएं डालकर मौजूदा व्यवस्था को चकनाचूर करे दे रही है.

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