Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बहुरुपिया : अपने पे हंस कर जग को हंसाया

बहुरुपिया समाज की स्थिति ये है कि उसको किसी भी केटेगरी में नहीं रखा गया है इसलिए आरक्षण की परिधि से वह बाहर है. छुआछूत और जातीय उत्पीडन का शिकार होने पर भी उन्हें अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम की धाराओं से कोई सुरक्षा नहीं क्योंकि मुस्लिम होने के कारण उन्हें दलित नहीं माना जाता और न ही पसमांदा आन्दोलन या मुख्यधारा का कोई और आन्दोलन उन तक पहुंचा I
Samshad

“झूठ बोल्यु नहीं, सच बोलने की आदत नहीं,
धंधा ढेले का नहीं, फुर्सत एक मिनट की नहीं,
काका की दुकान कानपूर, बाबा की बॉम्बे,
हमारो आज को कारोबार आज जोगिया गाँव में.
भगवान को ठाठ है, घर पे खाट भी नहीं है.”

ऐसे ही चटपटे अंदाज में होती है शमशाद और नौशाद बहुरूपियो के एंट्री. आज के दौर में लोगो को शायद ही याद हो के बहुरुपिया क्या होता है लेकिन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद के फाजिलनगर कस्बे से करीब ६ किलोमीटर दूर जोगिया गाँव में, राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई गाँव से भाग लेने आये शमशाद और नौशाद बहरूपिये अपने बेहतरीन अभिनय से लोकरंग में लोगो का दिल जीत रहे थे.

शमशाद और नौशाद राजस्थान के दौसा जिले के बंदिकुइ गाँव से आते है. उनका जातिगत पेशा ही बहुरुपिया है और यह उनकी सातवी पुश्त काम कर रही है. हो सकता है इसके बाद उनके बच्चे इस पेशे में न आयें. बड़े भाई नौशाद बताते है कि हमारी हालत ख़राब है, सरकारी स्कूल में बच्चे को पढ़ाकर कोई लाभ नहीं और प्राइवेट में भेजने के लिए हमारे पास पैसा नहीं है. १५ हज़ार से अधिक की आबादी वाला यह समुदाय पुर्णतः भूमिहीन है. ‘मेरी पीढ़ी ज्यादा हिन्दुओ में रही है. मेरे पिता जी शुभ्राती जी से मैंने सीखा.. उनका मूल नाम शिवराज था. उन्हें गाँव में शिवराज बहुरुपिया नाम से जाना जाता है. उनके दादा का नाम गोपी. बहुरुपिया हमारा पुस्तैनी पेशा था. आज जब उन्हें आधार कार्ड बनाने में दिक्कत हुई तो पिता का नाम बदलकर सुबराती बहुरुपिया लिखाया.

muslim

बहुरूपियों का धर्म

बहुरुपियो के इतिहास को थोडा टटोलना पड़ेगा . इनकी कहानी से मिलते जुलते अन्य घुमंतू समुदाय भी इन्ही हालातो में रह रहे है जिनका मुख्य पेशा नौटंकी, टैटू बनाना, मदारी का खेल दिखाना, बन्दर भालू नचाना उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों परम्पराओं को अपनाया, दोनों नाम चले और महिलाए सिन्दूर और बिंदी भी लगाती है. लेकिन बिना बहुत कुछ बड़े शोध के भी इस बात का हल्का विश्लेषण किया जा सकता है आखिर क्यो ये समुदाय ऐसा करते है ? मैंने कुशीनगर में रहने वाली हसीना नट से ये प्रश्न पूछा था के वह ये सिन्दूर क्यों लगाती है, तो उनका कहना था के क्योंकि वह अधिकतर हिन्दू लोगो में जाते हैं और उनकी परम्पराओं में ढलते है इसलिए ये एक मज़बूरी है. मुझे ऐसा लगता है के जातिवाद की घिनौनी व्यवस्था के चलते बहुरूपियो ने इस्लाम ग्रहण किया लेकिन मुसलमानों की बड़े वर्ग ने भी उन्हें नहीं अपनाया और वे भेदभाव का शिकार रहे. मस्जिद में नमाज़ साथ पढ़ देने से ही नहीं बराबरी नहीं आती. रोटी बेटी और सामाजिक स्वीकार्यता आदि और भी बाते है जो बहुरुपियो, नटो और ऐसे अन्य समाजो को नसीब नहीं हुआ इसलिए आर्थिक प्रश्नों के कारण उन्हें ‘जैसा देश वैसा भेष’ के सिद्धांत पर चलना पड़ता है. इसलिए जैसा गाँव वैसी परम्पराये और वेशभूषा. सभी लोग नवरात्रों, दश्हरो और अन्य त्योहारों को भी मानते है और ईद भी. नवरात्रों के व्रत भी लोग रखते है और रोजे भी, फलस्वरूप उनके ‘जजमान’ उन्हें खुश होकर कुछ दे देते है.

mulim

इसलिए ये बात इनलोगों की जिंदगी से साबित होती है कि केवल धर्म परिवर्तन से तो पेट नहीं भरता, अर्थ की भी बहुत बड़ी भूमिका है. इस समुदाय का पुस्तैनी पेशा मनोरंजन का था जिसके लिए अधिकांशतः हिन्दू सवर्णों या राजस्थान में कह दे तो राजपूतों में इनकी निर्भरता बहुत थी. शायद इसीलिये अभी भी बहुरूपिये मुस्लिम होने के बावजूद हिन्दू परम्पराओं और त्यौहारों को भी मनाते है. हालाँकि कुछ वर्षो में हिन्दू कट्टरपंथी उन्हें मुस्लिम नाम होने के कारण अलगथलग रखना चाहते है और इन समुदायों में भी परम्पराओं के नाम पर ऐसे तबके हावी हो गए जो उन्हें ऐसे ही देखना चाहते है ताकि वे हिन्दू पर्वो से दूरी बनाकर रख सके लेकिन अभी तक तो ऐसे तत्व बहुत ज्यादा नहीं है. मैंने शमशाद से यह प्रश्न पुछा के क्या उनके हिन्दू पात्रो को लेकर समुदाय में कोई विरोध है तो उन्होंने कहाँ

‘हमारे समुदाय में कोई विरोध नहीं है. मेरे पिता को मुस्लिम समाज ने सम्मानित किया क्योंकि उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता की बात है. हमारा उद्देश्य कला को बचाना है. हम सामने वाले दर्शक के अनुसार काम करते है. मैंने भोलेनाथ, रामचंद्र जी, हरिश्चंद्र, नारद, श्रवन कुमार आदि के रोल किये है तो दूसरी और सेठ की भूमिका, लैला मजनू, जानी दुश्मन, शहंशाह अकबर आदि भी, इसलिए हमारे लिए तो हिन्दू मुसलमान दोनों बराबर और भाई भाई है’.

गुजरा जमाना बहुरूपियों का

आज के दौर में तकनीक ने जहाँ मनोरजन को नए मुकाम पर पहुंचा दिया है वही ये समुदाय अभी भी अपने सबसे कठिन समय से गुजर रहा है. इस चुनौती को बताते हुए शमशाद कहते है :

muslim

‘पहले बहुत पैसे मिलते थे . आजकल मनोरंजन के नए साधन आ गए है. इन्टरनेट आ गया है इसलिए बहुरुपिया को लोग अच्छे से नहीं देखते लेकिन पहले लोग इंतज़ार करते थे, हमारी जजमानी थी, वे हमारे कद्रदान थे, ख्याल रखते थे. लेकिन आज लोग हमसे पूछते है के आपमें बदलाव क्यों नहीं आया. इसके कारण है के हमारे पास आय का कोई जरिया नहीं है. किसी भी परिवर्तन के लिए कुछ साधन चाहिए. कोई स्थाई रोजगार नहीं है. यदि स्थाई रोजगार होता तो बहुरुपिया से अधिक बड़ा कोई कलाकार नहीं होता’. आज उनके मेकअप का खर्चा तक निकलना बहुत मुश्किल होता है इसलिए उनके घर की महिलाए उनके कपडे आदि स्वयं तैयार करती है. शमशाद के अनुसार :‘मेकअप में चार सौ पांच सौ का खर्चा है. बाज़ार से खरीदेंगे तो हजारो का खर्च होता है. हमारे कलाकारों के पास मेकअप नहीं होता हम केवल घर पर हमारी महिलाओं के जरिये ही ये कार्य होता है. वे हमारे कपडे से लेकर अन्य मेकअप सामान तैयार करते है. पहले मेकअप का कांसेप्ट नहीं था केवल नक़ल करते थे.’

जातिभेद के शिकार बहुरूपियें

बहुरूपियो के साथ छुआछूत होती है, बहुत जातिभेद है, अपमान सहना पड़ता है लेकिन शायद सवर्णों या बड़े मुसलमानों में लोग इन कलाकारों के जरिये अपने अहम् की संतुष्टि भी करते थे. क्योंकि अधिकांश पैट्रन बड़े लोग थे अतः सभी बाते ‘जाति’ की ‘सीमाओं’ और ‘महानताओ’ के गुणगान में ही होती थी. बहुत कुरेदते कुरेदते जब मैंने पुछा के क्या आप लोगो कोई परिवार खाना खिलाता है या चाय पिलाता है तो शमशाद कहते है :

‘मानने न मनाने की सोच दुसरो में होनी चाहिए, हम तो सबको मानते है . हमें कोई चाय नहीं पिलाता. खाना खिलाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है. कभी कभार चाय की गुंजाइश होती है लेकिन हमारे लिए ऐसे व्यवस्था बाहर ही होती है. मतलब ये के इनके गिलास या थाली बाहर ही रखी होती है और उसी में चाय पीकर धोकर रखना पड़ता है.’

जब मैंने पुछा के आपने मुझसे बातचीत में ये बात क्यों नहीं बोली और क्यों मुझे घुमा फिरा कर इस बात का पता करने के लिए चाय और खाने की बात पर आना पड़ा तो शमशाद कहते है :

बहुरुपिया बहुत कमजोर वर्ग का है. हमारे पास कोई संघठन नहीं है. हम कोई दुश्मन नहीं लेना चाहते. हम मुहोब्बत करते है. हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.

हम समझ सकते है के जब आपकी पूर्ण जीविका दूसरो पर निर्भर हो तो आप ऐसी व्यवस्था को चुनौती कैसे दे सकते है. हकीकत यह है के अनुसूचित जाति जनजाति के नियमो के तहत भी अधिकांश लोग इसीलिये ऍफ़ आई आर नहीं लिखवा सकते क्योंकि आर्थिक बहिष्कार का खतरा होता है लेकिन फिर भी शमशाद और नौशाद दोनों भाई कहते है कि ‘जनता ने बहुत सहयोग किया और अब कर्त्तव्य सरकार का का है के क्या वह भारतीय लोक कला को वाकई में बचाना चाहती है. सरकार से कहना है के यदि आपको हमारी संस्कृति को बचाना है तो बहुरुपिया, नट, भांड आदि समुदायों पर विशेष ध्यान देना होगा और उनकी कला को बचाना होगा. उनके आर्थिक सशक्तिकरण पर ध्यान देना होगा.

बहुरुपियों को न छत्त, न उनकी कला की चिंता

दोनों भाइयो को बहुरुपिया बनते सालो हो गया. बचपन से ही अपने पिता के साथ काम करते करते आज पूरे देश में उनका नाम है. लेकिन दर्द है के रहने के लिए छत नहीं और बच्चो को बढ़िया स्कूल में भेजने के लिए पैसे नहीं है. आखिर ये काम क्यों करे अगर सम्मान सहित नहीं रह सकते.

हमारे पिताजी ६ बच्चो को पालने वाले थे. उनके पास कोई विकल्प नहीं था.उस समय फिर भी गुजारा हो जाता है लेकिन आज बहुत मुश्किल है. वैसे भी सिनेमा, इन्टरनेट, टीवी आदि से लोगो के रोजगार पे असर पड़ा है. आज कोई उनका इंतज़ार नहीं करता इसलिए अगर पर्याप्त कमाई नहीं है तो कोई भी परिवार अपने बच्चो को इस पेशे में नहीं डालेगा. लेकिन पेट में अगर दाना नहीं तो कला का वह क्या करेगा.

आज उनके परिवार के जिन्दा रहने के लिए सभी काम करते है. शमशाद कहते है :

हमारा पूरा परिवार एक साथ रहता है और एक साथ कमाता है. भारत सरकार के संस्कृति मंत्रायल के लिए काम करते है. प्रति कलाकार आठ सौ से हज़ार रुपैया तक मिलता है. मेकअप और रस्ते का खर्चा नहीं मिलता. अभी तो काम मिल जाता है लेकिन और लोगो को नहीं मिलता. ६ लोगो की आमदनी सरकार देती है. लेकिन ६ महीने ही काम मिलता है. फिर वह अपने जजमान के पास जाते है जो अधिकांशतः राजपूत है. समझ सकते है के सामाजिक बदलाव या मनुवादी सत्ता को अभी भी सांस्कृतिक चुनौती देने वाला कोई डायलाग हमें बहुत कम दिखाई देता है तो इसके आर्थिक कारण है. व्यक्तिगत जीवन में इन्होने इस्लाम अपना लिया लेकिन अभी भी स्वीकार्यता और आर्थिक तंगी होने से इनकी स्थिती बहुत मुशिकल हालातो वाली है क्योंकि सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

अगर भारत में लोककलाओ को जिन्दा रखना है तो उनके लिए समर्पित समाजो के लिए कार्य करने की जरुरत है. समाज में प्रतिभाओं का अम्बार लगा है लेकिन ब्राह्मणवादी ढोंगी मेरिटधारियों की नज़र इनके टैलेंट और हुनर पर नहीं जाति. कला के जरिये भारत ने ज्ञान में जातिभेद किया . लोककलाओ के पोषक और प्रवर्तक बहुजन समाज के लोग थे इसलिए उन्हें हासिये पर रखा गया और जब ब्राह्मणों का ‘आशीर्वाद ‘ इन ‘कलाओ ‘ को मिल गया तो सवर्ण ‘कलाकार’ पनपने लगे और पैसो का अम्बार लग गया और नयी कला को ‘शास्त्रीय’ कह दिया गया..

इन बुरे हालातो में भी बहुरुपिया जैसे प्रेम बरसाते रहते है. उनके साथ दो बच्चे जो लंगूर के भेष में है वे

सैनी बिरादरी से है, हालाँकि मुझे उसमे भी कुछ शक लगा क्योंकि राजस्थान में सैनी समाज तो अपने बच्चो को बहुरूपियो के साथ नहीं भेजेगा और दुसरे ये के बच्चे बता रहे थे कि वे अनुसूचित जाति से आते है.

बहुरुपिया समाज की स्थिति ये है कि उसको किसी भी केटेगरी में नहीं रखा गया है इसलिए आरक्षण की परिधि से वह बाहर है. छुआछूत और जातीय उत्पीडन का शिकार होने पर भी उन्हें अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम की धाराओं से कोई सुरक्षा नहीं क्योंकि मुस्लिम होने के कारण उन्हें दलित नहीं माना जाता और न ही पसमांदा आन्दोलन या मुख्यधारा का कोई और आन्दोलन उन तक पहुंचा. सवर्णों के कुछ वर्ग उनकी ‘कला’ का ‘सम्मान’ करते है लेकिन उससे तो उनका पेट नहीं भरता. लगभग पूरा समाज भूमिहीन है और सरकार की योजनाओं से बाहर.

सरकारी काम ६ महीने से ज्यादा का नहीं होता और बाकी छे महीने ये गाँव में जाते है और मज़बूरी है के पूरे परिवार के साथ जाएँ क्योंकि बिना परिवार के इन्हें कोई रहने की जगह नहीं देता. अब आप समझ सकते है यदि ये लोग हमेशा इधर उधर जाते रहेंगे तो बच्चे पढेंगे कैसे ? इन ६ महीनो में गुजारा कैसे होता है, उसके बारे में शमशाद बताते है :

गाँव में हम पूरे परिवार के साथजाते है. पांच सात दिन खेल तमाशा करते है. पैसे के लिए अपने जजमान के पास जाते है. एक महीने का समय लगता है.एक महीने में तीन से चार हज़ार रुपैया कमाते है. जजमान हमें कुछ अनाज देते है और उसी से हमारा गुजारा चलता है.

बहुरूपियो में महिलाओं का काम केवल घर के अन्दर का है. वे इनके कपडे इत्यादि सिलती है और बच्चो की जिम्मेवारी संभालती है. पुरुष लोगो बाहर काम करते है. इन्हें ५२ कलाओं में पारंगत माना जाता है, मतलब ये के ५२ रूप धारण कर सकते है परन्तु आज के दौर में समस्या ये है के इनलोगों को ‘बाज़ार’ के अनुसार भी चलना पड़ता है. उनके मेकअप महंगे है और जो रंग इत्यादि ये सजने में इस्तेमाल करते है उससे त्वचा इत्यादि की समस्याए होती है. रंग से इन्फेक्शन होता है और आंखे अक्सर लाल होती है. क्योंकि पुस्तैनी कार्य है इसलिए ये लोग कर रहे है और स्वयं को संतुष्ट करने के लिए ये कहते है के ‘गॉड गिफ्ट’ है . सवाल इस बात का है के भगवान् आखिर अपने सबसे ज्यादा चाहने वाले इमानदार लोगो को ही सजा क्यों देता है. आखिर उन्होंने तो राम, कृष्ण, भोले, अकबर, सलीम, सेठ आदि सभी के रोल किये है तो कुछ तो दया आनी चाहिए भगवान को.

शायद उन्हें पता चल चूका है के यदि भगवान् है भी तो इनके काम का नहीं है इसलिए वे कह रहे है के उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था हो, उनके बच्चो को नौकरी मिले, शिक्षा में भी विशेष ध्यान दिया जाए ताकि ये समाज जो सदियों से दूसरो का मनोरजन करता आया है उसका भी विकास हो सके और वो भी सर उठा के जी सके.

Courtesy: The Citizen,
Original published date:

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest