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बिहार बाढ़ : हर साल के नुक़सान के साथ बेसहारा, बेघर होने की कहानी

हालांकि जलवायु में आए गंभीर परिवर्तन ने मूसलाधार बारिश के पैटर्न को विचलित कर दिया है, लेकिन अध्ययन इस बात की तसदीक़ करता है कि नेपाल की सीमा से सटे क्षेत्र में बाढ़ का ख़तरा अधिक बढ़ गया है। ग़रीब तबकों को प्रशासनिक लापरवाही की वजह से पीड़ित होने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस बाढ़ के बीच लुप्तप्राय होते बाघों के अलावा अन्य वन्यजीव और उनके जीवन को शिकारियों से गंभीर ख़तरा बढ़ गया है।
बिहार बाढ़
शुगर मिल में आधा साल काम, बाक़ी बचे आधे साल में धान की पैदावार की चिंता का संघर्

माधव यादव, जो अपने साठ के दशक के आख़िर में हैं एक कच्ची बांस की छत के साथ एक झोपड़ी के नीचे बैठे हैं जिसे बाँस के ढांचे की दो परतों में बाँधा जाता है, जो छत के बोझ को संभालता और उसे उभारता भी है। पशुओं के लिए चारा कुटिया के एक कोने में रखा है; दूसरी तरफ़ माधव का बिस्तर लगा हुआ है। माधव के ज़हन में 2017 की बाढ़ की यादें आज भी ताज़ा हैं, जो किसी भी बढ़ती उम्र में भूलने की बीमारी से अछूती है। माधव को इस साल बाढ़ की आशंका है। “क्या होगा समझ में नहीं आता है।" बुधवा ने कहा, "हमने इससे पहले इस तरह की किसी भी प्राकृतिक आपदा का सामना नहीं किया है।” माधव भोजपुरी में कहते हैं। मौसम विभाग ने आने वाले हफ़्तों में भारी मूसलाधार बारिश की चेतावनी दी है।

माधव की तरह ही भारत के सबसे ग़रीब राज्य बिहार के पश्चिम चंपारण ज़िले के लारिया ब्लॉक के पडरौन गांव में 35 अन्य परिवार भी रहते हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, केवल जुलाई के महीने में, नेपाल की सीमा से लगे बिहार के उत्तरी ज़िलों में बाढ़ के कारण 90 से अधिक लोगों की मौत हो गई है; वास्तविक आंकड़ा इससे बहुत अधिक होने का अनुमान है। बिहार के 12 ज़िलों के क़रीब20 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, बाढ़ ने स्थानीय लोगों के सामने पलायन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा है।

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बाढ़ वाले क्षेत्र में सूखी रोपाई और गन्ना सड़ने से निर्वाह करने वाली खेती मरती नज़र आती है।

हालांकि, लौरिया गांव के लोग इस क्षेत्र को ख़ाली करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उनका मानना है कि लौरिया-नंदनगढ़ बुद्ध स्तूपा उनके बचाव के लिए वहां मौजूद है। 26 मीटर उंचे विशाल बौद्ध के मक़बरे में सम्राट अशोक के शासन की जड़ मिलती है जिन्होंने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में इस क्षेत्र पर शासन किया था। पुरातत्वविदों ने यह अनुमान लगाया है कि भगवान बुद्ध की राख को यहां रखा गया था।

विलास यादव, जो 100 रुपये की मज़दूरी करके पास के एक गांव से लौटे हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि गांव के लोग 2017 की बाढ़ में सुरक्षा के लिए नंदनगढ़ स्तूप पर चढ़ गए थे, और अगर अब बाढ़ आई तो वे फिर से ऐसा ही करेंगे।

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विलास यादव इस बाढ़ में एक एकड़ से अधिक धान की फसल खो चुके हैं, अब वे राज्य के बाहर जाने की योजना बना रहे हैं ताकि कुछ पैसे कमाने के लिए एक मैनुअल मज़दूर के रूप में काम कर सकें।

इस साल लगातार बारिश होने के कारण विलास को धान की फसल का 15 कट्ठा (यानी 10,800 वर्ग फुट) खेती का नुक़सान हुआ है। वे कहते हैं, ''मैंने यह सोचकर महंगा बीज ख़रीदा था कि इससे अच्छी उपज मिलेगी। मुझे इस तरह के क़हर का कोई अंदाजा नहीं था।" उन्होंने इस क्षेत्र की अदिया बत्तैया [एक प्रकार का साझा खेती, जिसके तहत जोतने वाला किसान उपज का आधा हिस्सा मालिक को देता है] पर अनौपचारिक क़रार किया है। अब, विलास चिंतित है क्योंकि उसे ज़मीन के मालिक को कुछ मुआवज़ा तो देना होगा। वे कहते हैं, "हम में से अधिकांश [पडरौना गांव में] के पास सिर्फ़ घर बनाने के लिए ज़मीन है, इसके अलावा कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं है। हम भूमिहीन हैं।'' प्रधानमंत्री मोदी की प्रधानमंत्री बीमा योजना (पीएमएफ़बीवाई) के बारे में गाँव में किसी को भी पता नहीं है कि मोदी सरकार की कृषि उपज का बीमा करने की बहु-अरब रुपये की प्रमुख योजना है। बाढ़ से प्रभावित इस क्षेत्र में अशिक्षा भी सर्वव्यापी है, जो पीड़ितों को उनके अधिकारों के बारे में ज्ञान से वंचित करती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के एक किलोमीटर के दायरे के भीतर एक प्रसिद्ध चीनी मिल है। सर्दियों के मौसम में हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) द्वारा संचालित लौरिया चीनी मिल इस क्षेत्र में गन्ने की पैदावार को बढ़ाती है। विलास अभी भी गन्ने के 13 ट्रेलर-ट्रकों के भुगतान का इंतज़ार कर रहा है, जो उसने इस चीनी मिल को दिया था, भुगतान न होने से उसका संकट काफ़ी बढ़ गया। वह कहता है, ''मैंने सारी आशा खो दी है। हम पारंपरिक डेयरी किसान हैं, लेकिन अब हम ऐसा नहीं कर सकते हैं।” यादव पारंपरिक डेयरी किसानों का एक जातिगत नाम है, लेकिन इस गांव में किसी के पास आय का एक भी स्रोत नहीं है।

विलास जब छोटा था, तो उसके पास 10 से अधिक गायें थीं, लेकिन अब एक ही गाय बची है। उसने पशुओं को इस बात को ध्यान में रख कर बेचा कि वह बाढ़ आने पर उनकी रक्षा नहीं कर पाएगा। “कोई घास का मैदान नहीं है। चीनी मिल का कामकाज शुरू होने के बाद लोग इस क्षेत्र में आते रहे हैं।'’ कई बस्तियाँ यहाँ हाल के दिनों में बसी हैं और इस प्रकार पानी के प्रवाह में रुकावट के चलते भु जल स्तर कम हुआ है।

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वकील मियां जो भूमिहीन हैं और कसाई भी हैं, को दस साल की लगातार अपील के बाद आवास योजना के अंतर्गत फ़ंड मिला है।

वकील मियां लॉरिया शहर के बाज़ार में मांस बेचते हैं। वह शाम के बाज़ार के जमने से पहले शहर पहुंचने के लिए कमर कस रहे हैं ताकि वह अच्छा लाभ कमा सकें, वह हमसे बात करने के लिए कुछ समय निकाल लेते हैं और कहते हैं: “हमारे पास क्या है? कीचड़ से रंगी यह कुटिया/झुग्गी, और क्या? अगर मैं आज नहीं कमाऊंगा, तो मेरे परिवार को भूखा सोना पड़ेगा।'' एक दशक से अधिक समय तक संघर्ष के बाद, आख़िरकार उन्हें ग़रीबों के लिए बनाई गई आवास योजना के तहत धनराशि मिली है। इसके लिए, उन्होंने कथित रूप से ग्राम प्रधान को 10,000 रुपये की रिश्वत का भुगतान किया। इन हालात पर वकील का ग़ुस्सा और पीड़ा स्पष्ट दिखायी देती है - सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार ने ग़रीबों को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया है। जब बाढ़ की बात चलती है, तो वह घाव को और हरा कर देती है।

वकील मियां की पड़ोसन संतिमा देवी की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। बल्कि इनकी काहानी में एक मोड़ है। संतोषी ने एक स्थानीय ज़मींदार के साथ ज़मीन को लेकर पैसे का आदान-प्रदान किया था। रेहान इस लेन-देन का शब्द है। भूमिहीन संतिमा को भूमि छोड़नी होगी क्योंकि भूमि मालिक पैसा वापस कर रहा है, उधार बिना वृद्धि के वापस दिया जा रहा है। "वह [भूस्वामी] ब्याज के साथ मेरे पैसे वापस नहीं करेगा। मैंने पहले ही बाढ़ में फसल खो दी है, "संतिमा कह रही है," हम ग़रीब हमेशा ग़रीब रहेंगे।" संतिमा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित है। यहाँ के ज़मींदार उच्च जाति के तबके के हैं जिन्होंने बाढ़ के बाद लेन-देन (बार्टर) की इस तकनीक को अपनाना शुरू कर दिया है।

26 साल के सनाउल्लाह अंसारी चीनी मिल में ठेके पर काम करते हैं जिसके लिए उन्हें सर्दियों और वसंत के बीच 15,000 रुपये मिलते हैं, जिस दौरन चीनी मिल चलती है। बाक़ी बचे दिनों के लिए, यह सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम, एच.पी.सी.एल., बहुत से लोगों बेरोज़गारों बना देता है। इन ख़ाली महीनों में, सनाउल्लाह अपनी 6 कट्ठा ज़मीन पर ध्यान केंद्रित करता है और वहां धान उगाता है। गाँव के कई अन्य लोगों की तरह, वह भी गुज़र-बसर वाला किसान है। “किसानों को कुछ रोकरा को भुनाने के लिए बाज़ार में ले जाने के लिए कुछ भी अतिरिक्त नही है। अगर पानी नीचे जाता है तो हम फिर से रोपाई का काम करने की कोशिश करेंगे। अगर फिर से बारिश हुई तो हम टूट जाएंगे। हमें बाज़ार से चावल ख़रीदना होगा।”

हर बार बाढ़ के बाद अनाज की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव होता है। कारण बहुत ही सरल है – अनाज के स्टॉक की कमी। जिस चावल को 25 रुपये किलो में बेचा जाता है, वह 35 रुपये प्रति किलोग्राम बिकने लगता है, साइनाला ने बताया।

विंदेश्वरी यादव के पास भिक्षा के आरपी में दो बकरियां और एक मुर्गी है, उन्होने शादी के बाद इनका नाम अपने पति से उधार लिया था। विंदेश्वरी कहती हैं, ''अगर बाढ़ के दौरान सब्ज़ियों की कमी होगी, तो हमें उन [जानवरों] की बलि देनी होगी। एक विधवा, तैरुन खातून, रेहान के बदले में ली गई 3 कट्ठा ज़मीन की खेती के भरोसे चार बच्चों की परवरिश कर रही है। वह कहती हैं, "हमें अभी तक 2017 की बाढ़ केका बाढ़ वसूली भुगतान नहीं मिला है। दूसरे गाँव में रहने वाले उच्च जाति के लोग इसे पहले ही प्राप्त कर चुके हैं; ग्राम प्रधान के साथ जिनके अच्छे संपर्क हैं उन कुछ लोगों को भी धनराशि दी गई है।” वह सवाल करती हैं, “ ग़रीबों को क्यों छोड़ दिया गया?”

विलास के बेटे मुलायम, बुद्ध स्तूप के प्रवेश द्वार के पास एक छोटा सा जनरल स्टोर चला रहे हैं। वह एक सरकारी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रहा है। मुलायम कहते हैं, ''मैं यहाँ दुकान में बैठकर पढ़ता हूँ [अपने  पीछे नोटबुक की ओर इशारा करते हुए कहा] जब मैं ख़ाली होता हूँ। बाढ़ ने स्थिति बहुत ख़राब कर दी है, लेकिन किसी तरह, हमें स्थिति को संभालना होगा। मुझे यहां एक बदलाव लाना है, जिसके लिए मैं पढ़ रहा हूं। ”जब मुलायम अपने नोट किए पाठों को संशोधित करने के लिए अपनी नोटबुक उठाते हैं, तो मुलायम के पिता विलास नई दिल्ली रवाना होने की तैयारी कर रहे हैं, जहां वह एक मैनुअल मज़दूर के रूप में काम करेंगे। कुछ महीनों के लिए नौ सदस्यों के परिवार का लालन-पालन करने के लिए कमाई साथ ही छठ का त्योहार मनाने के लिए उन्होनें नवंबर तक लौटने की योजना बनाई।

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बिरछा [शीर्ष] ने अपनी ज़मीन को पुरातात्विक स्थल के नाम पर खो दिया है, जबकि भूमिहीन हलवाई दुर्गा [नीचे] वार्षिक बाढ़ का इंतज़ार कर रहा है।

पुरातात्विक परिसर के पास बुनियादी ढाँचा बुरी हालत में है। सरकार इसे एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने में विफल रही है। बिरछा यादव कहते हैं, "अगर सरकार ने पर्यटन पर काम किया होता, तो हम यहां होटल और रेस्तरां बना सकते थे।" उसी से अक्छी आमदनी हो जाती। बिरछा ने पुरातात्विक परिसर में अपनी भूमि के एक टुकड़े को खो दिया है। सरकार ने कभी कोई मुआवज़ा नहीं दिया, वे कहते हैं।

गंदक नदी में न केवल आवासीय क्षेत्र डूब गया है, बल्कि वन्यजीवन भी काफ़ी हद तक नष्ट हो गया है। उत्तर पश्चिम में नंदनगढ़ से 70 किमी की दूरी पर स्थित है वाल्मीकिनगर नेशनल पार्क या वाल्मीकि नगर टाइगर रिजर्व (वीटीआर)। यह नेपाल की सीमा के साथ सटा है, इसमें 40 लुप्तप्राय बंगाल बाघ हैं, 5,000 से अधिक अन्य स्तनधारी जीव हैं, 1,520 पक्षियों और 32 सरीसृपों का घर है। वीटीआर का वन रेंजर केंद्र नंबर 7 पानी के नीचे आ गया है, अवैध शिकार को रोकने वाले रेंजर बाढ़ में बाहर निकलने में असमर्थ महसूस करते हैं। मदनपुर वन प्रभाग के प्रभारी अवधेश प्रसाद सिंह ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार सरकार को पत्र लिखा है कि इस क्षेत्र में कुछ छह बाघों और अन्य जानवरों के अवैध कब्जाने या शिकार करने का ख़तरा बढ़ गया है। वह कहते हैं, “बाढ़ ने हमारे नियमित गश्त को प्रभावित किया है। हम किसी तरह नावों की मदद से काम चला रहे हैं। चूंकि बाघ अच्छे तैराक होते हैं, वे सूखे क्षेत्र की तरफ़ जा सकते हैं। वास्तविक ख़तरा बाढ़ नहीं बल्कि शिकारियों का है जो उनका शिकार करते हैं। अन्य जानवरों के लिए, यह निश्चित रूप से एक गंभीर स्थिति है।”

पटना साइंस कॉलेज में हाइड्रोलॉजी पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर अनिल कुमार का मानना है कि इस क्षेत्र में बाढ़ मानव निर्मित है। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि बाढ़ के पीछे वनों की कटाई, जनसंख्या का बढ़ना और असंतुलित विकास इसके प्रमुख कारण हैं। कुमार कहते हैं, कि आबादी बढ़ने के साथ, तालाब और कुएं गायब हो गए क्योंकि लोगों ने कृषि और आवासीय उद्देश्य के लिए इस भूमि का उपयोग करना शुरू कर दिया। कुमार पारंपरिक जल संचयन प्रणाली का विवरण देते हैं: “पहले लोग ज़्यादातर सतह के पानी पर निर्भर थे। भूजल उपयोग लगभग नगण्य था। इसके विपरीत, अब हमारे पास हर घर में एक हैंडपंप है। सतही जल का उपयोग बहुत कम हो गया है। दूसरा, मुख्य धारा में ग़ैर-उपचार किए हुए पानी का स्त्राव भारी मात्रा में तलछट उत्पन्न करता है, जो नदी-मार्ग को प्रभावित करता है। बस्तियों और उद्योगों के कारण भूमि में जल को बढ़ाने के लिए प्राकृतिक रिचार्जिंग प्रणाली बाधित हो गई है।” कुमार का मानना ​​है कि “इन [उत्तर भारतीय] मैदानों में नदियों पर बनाए गए बांध चलने वाले नहीं है।"

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स्थानीय लोगों का कहना है कि वाल्मीकिनगर बैराज ने प्राकृतिक व्यवस्था को बिगाड़ दिया है, साल दर साल इस क्षेत्र में बाढ़ का कहर जारी है। वाल्मीकिनगर टाइगर रिज़र्व को शिकारियों से ख़तरा है।

इस क्षेत्र को कुछ दशक पहले बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र का टैग दिया गया था, यह कभी भी ख़राब स्थिति नहीं थी। हरनातनर और भैंसा लोटन गांवों के निवासी इस बात से सहमत हैं कि 1964 में गंदक बैराज के निर्माण ने प्राकृतिक व्यवस्था को बिगाड़ दिया था, उन्होंने आगे कहा कि "अब इस क्षेत्र में बाढ़ काफ़ी आम बात हो गई है।"

दुर्गा शाह, एक पारंपरिक हलवाई, राष्ट्रीय राजमार्ग 28-बी के पास एक मिठाई की दुकान चलाता है, जो बुधी गंदक नदी से कुछ किलोमीटर दूर है। उसने हमें बताया कि इस महीने बारिश के कारण 6,000 रुपये का नुक़सान हुआ है, साथ ही, वह 2017 की बाढ़ का शिकार भी रहा है। दुर्गा अपनी शांत आवाज़ में कहता हैं, '' पानी का स्तर 6 फीट ऊँचा था। मेरी दुकान पाने में डूब गई थी। मेरे घर में भी पानी भरा था। मैंने अपनी मेहनत और निवेश को अपनी आँखों के सामने डूबते हुए देखा और में कुछ भी नहीं कर सका। यह हमारे लिए एक वार्षिक कसरत बन गयी है।” शाह की दुकान अब बहुत छोटी हो गई है, कम मात्रा में मिठाई बनती है और कोई काम में मदद करने वाला हाथ भी नहीं है। वह इस साल बाढ़ से क्षेत्र तबाह न हो इसके लिए वह भगवान से प्रार्थना कर रहा है।

राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडबल्यूडीए), भारत सरकार का एक निकाय है, जो जलाशयों और नहरों के एक जटिल चैनल द्वारा भारतीय नेटवर्क को आपस में जोड़ने की दिशा में काम करता है, कथित तौर पर, बाढ़ को कम करने के लिए। हालाँकि, न्यूज़क्लिक ने सिक्किम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एके मिश्रा के विद्वतापूर्ण शोध से यह जाना कि केंद्र सरकार ने इस परियोजना के लिए एक भे टिकाऊ रूपरेखा विकसित नहीं की है। पेपर का तर्क यह है कि "नदियों को आपस में जोड़ने से न केवल प्राकृतिक रूप से महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन की भारी बर्बादी को रोका जा सकेगा, बल्कि बरसात के मौसम में सतही जल को रोककर बाढ़ और बाढ़ के ख़तरे को कम किया जा सकेगा, और साथ ही सुखे वाले क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता को मुनासिब करेगा; क्योंकि यह बाढ़ और सूखे दोनों इलाकों को एक साथ जोड़ देगा। "शर्त यह है कि" परियोजना वैज्ञानिक रूप से सही होनी चाहिए। इससे प्रो. मिश्रा का अर्थ है कि लिथोलॉजिकल बाधाएं, भूवैज्ञानिक मुद्दे और जल विज्ञान वास्तविकता को तार्किक रूप से संबोधित किया जाना चाहिए। मिश्रा और अन्य लोग तर्क देते हैं कि हिमालयी नदियों का बहाव मानसूनी होने के साथ-साथ हिम से भी आता है, जबकि भूजल-आधारित बारहमासी नदियाँ पूरी तरह से वर्षा द्वारा नियंत्रित होती हैं। इनका आपसी जुड़ाव (इंटरलिंकिंग) किसी भी व्यावहारिक योजना के बिना इनके प्राकृतिक क्रम को चुनौती देगा ताकि इंटरलिंकिंग में आने वाले कठोर बदलावों का मुक़ाबला किया जा सके। ग़ैर-आर्सेनिक चैनलों में जीवन को ख़तरे वाले आर्सेनिक या अन्य प्रदूषकों के मिश्रण जैसे ज्योजेनिक जैसे मुद्दे उप-महाद्वीप के बहुत बड़े हिस्से को ख़तरा पैदा कर देंगे। पेपर की आगे की दलील में विंध्य बेसिन, कुडापाह-कुर्नूल बेसिन, छत्तीसगढ़ के बेसिन और पश्चिमी राजस्थान के बेसिन में पत्थरों के बीच छेद और भैधता की कमी के साथ-साथ सीमेंटेशन की संपत्ति मौजुद होगी, वहां जहां नदी के समीप से भूजल का रिचार्ज कम होगा, इस प्रकार जल आपूर्ति के उद्देश्य को हासिल नहीं किया जा सकेगा। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और मध्य प्रदेश राज्यों का बड़ा हिस्सा डेक्कन ट्रैप से संबंधित है, जहां छिद्र लगभग शून्य है, जो यहां भी लक्ष्य को हासिल नहीं करेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इंटर-लिंकिंग परियोजना ने देश की इन विशिष्ट जलविद्युत वास्तविकताओं को संबोधित नहीं किया है। इसके अलावा, परियोजना स्पष्ट नहीं करती है कि बाढ़ को कैसे नियंत्रित किया जाना है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के उप महानिदेशक चंद्र भूषण ने ज़ोर देकर कहा कि नेपाल के जलग्रहण क्षेत्रों में अत्यधिक मूसलाधार बारिश के खिलाफ बाढ़ के प्रबंधन के रूप में काफ़ी कमी है, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक बाढ़ आती है।

भूषण ने साफ़ किया कि "तटबंधों ने बाढ़ को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।" वे कहते हैं, "उनके अनुमान के अनुसार राज्य में बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र में 3,000 किमी से अधिक के तटबंधों के निर्माण के कारण बाढ़ का ख़तरा दोगुना हो गया है। तटबंधों ने एक संकरी नदी के तल पर गाद और रेत को फँसाया दिया जिससे बाढ़ के मैदान की ऊँचाई बढ़ गई। जैसा कि तटबंध अक्सर विफल होते हैं, उनमे पानी की बढ़ी मात्रा अचानक बाढ़ की ओर ले जाती है।” भूषण के अनुसार, बिहार एक बाढ़ग्रस्त राज्य है और जलवायु परिवर्तन के कारण इस क्षेत्र में अधिक तीव्र वर्षा होगी ही होगी। इसलिए, हमें एक ऐसे समाधान की आवश्यकता है, जो राज्य की जल-भूवैज्ञानिक वास्तविकता को पहचान सके। इसका एक समाधान नहीं है। हमें पारिस्थितिकी को सुधारने और जल निकासी प्रणालियों को बढ़ाने की आवश्यकता होगी ताकि बाढ़ को नियंत्रित किया जाए और बाढ़ का पानी जल्दी निकल जाए। आपदा प्रबंधन को जीवन बचाने के लिए और मज़बूत करना होगा।

वास्तव में, 2008 कोसी बाढ़ का कारण तटबंध का टूटना था। लेकिन इस उल्लंघन का न ही तो अनुमान था और न ही उसे कोई प्राथमिकता दी गई थी। कोसी पर किए गए एक शौध से पता चला "तटबंधों की निगरानी और रखरखाव की अनुपस्थिति और लापरवाही के कारण, पदानुक्रम वाला संचार तंत्र और कोसी से निपटने के लिए संस्थागत डिजाइन की खास और जटिल प्रकृति" से यह सब हुआ था। इसके अलावा, श्री श्रेष्ठ और अन्य लोग इस बात पर सहमत हैं कि कोसी संधि गलत थी और उन्होने निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और संचार प्रक्रियाओं को बेहतर बनाने के लिए संस्थागत व्यवस्था को नया स्वरूप देने का प्रस्ताव रखा। कोसी के कारण हुई एक दशक पहले की आपदा के बाद भी, बिहार का दु: ख असहनीय है, और राजनीतिक व्यवस्था बुरी हालत में है। कई सहायक नदियों पर नेपाल के साथ संधियाँ या तो ग़ायब हैं या ख़राब तरीक़े से निष्पादित की गई हैं। इस साल की बाढ़ इसकी एक नई गवाही है।

चंदर प्रकाश और एन. नागराजन द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारत के उत्तरी राज्य हिमालचल प्रदेश में लाहौल-स्पीति ज़िले के चंद्रा बेसिन में ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ़) का लगातार ख़तरा मौज़ूद है। प्रकाश और अन्य का यह निष्कर्ष हैं कि "झीलों और ग्लेशियर के पीछे हटने का निरंतर बढ़ना" बड़े ख़तरे की तरफ़ इशारा है। बेसनेट और अन्य जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के साथ ग्लेशियल पृथक्करण इस ख़तरे को बढ़ा रहे हैं।

अजय दीक्षित, अपने शोध में, 2008 की कोसी बाढ़ और जीएलओएफ़ के बीच के प्रत्यक्ष संबंध को दर्शाते है। वे बताते हैं: “20 वीं सदी के अंतिम भाग में ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से अक्सर पानी की मुख्य बर्फ मोराइन-झालरदार झीलें बन जाती हैं। कभी-कभी, एक मोराइन बांध टूट जाता है और एक झील बहुत कम समय में ख़ाली हो जाती है। नतीजा नदी के बहाव क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बाढ़ आती है। यह पानी मोराइन बांध से तलछट के साथ-साथ नदी के किनारे की धरती से बहता है। अचानक बाढ़ और उसके जरीए आए मलबे से तटवर्ती खेती, बस्तियाँ, बुनियादी ढांचे और कई व्यक्ति जिन्हें इसकी उम्मीद नही होती वे इसमें बह जाते हैं।"

दीक्षित लिखते हैं कि "जीएलओएफ़ भी तलछट लोड (भारी बहाव) का एक प्रमुख स्रोत है"। दीक्षित लिखते हैं, कोसी जो चतरा में तराई के मैदानों में जाती है, वह अंतर्देशीय डेल्टाओं पर मोटे तलछट भार के जमाव के कारण तलछट भार के साथ बढ़ना शुरू होती है (यानी बड़े मलबे के साथ)। दीक्षित कहते हैं, ''इसके परिणामस्वरूप, कोसी में अत्यधिक उच्च घनत्व रहता है और, नदी बहुत ही हिंसक रूप ले लेती है। इसने तटबंध को तोड़ने में बहुत योगदान किया है जिसने नेपाल के तराई और भारत के उत्तर-पूर्व बिहार के छह ज़िलों: सोनौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया, पूर्णिया और खगड़िया में तीव्र बाढ़ से प्रभावित किया है।

एक अन्य अध्ययन में हिमालय में कोसी नदी बेसिन में जीएलओएफ़ के जोखिम को पाया गया है। चूंकि, जलवायु परिवर्तन जारी है, इसलिए जीएलओएफ़ का विस्तार भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालयी क्षेत्रों में पानी के प्रसार के लिए एक आपदा को आमंत्रित कर सकता है।

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आदित्य उत्सुकता से बस की खिड़की से बाहर देखता है कि बारिश ने खेतों को पानी से कैसे भरा हुआ है।

जैसे ही रिपोर्टर बस में चढ़ता है, वह 7 वर्षीय सह-यात्री आदित्य को अपने परिवार के साथ पाता है, जो रामनगर से बेतिया अपनी बड़ी बहन के घर जा रहा है। वे बिहार के सुदूर उत्तर-पश्चिम में अपने गांव में जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो वापस लौटने का मन बना कर जा रहे हैं।

आदित्य से पूछा गया कि वह किस मौसम से प्यार करता है, उसने कहा कि बारिश का मौसम निश्चित रूप से उनमें से एक नहीं है।

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