बजट 2019-20: सरकारी योजनाओं को फिर नज़रअंदाज़ किया गया

केंद्रीय बजट 2019-20 में फिर से मोदी सरकार ने प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं को नज़रअंदाज़ किया है। यही स्थिति पिछली मोदी सरकार में भी थी। इस तरह की योजनाओं की क्षमता बढ़ाने की भारी मांग के बावजूद सरकार की ऐसी उदासीनता से ग़रीब वर्गों की उम्मीदों को झटका लगा है।
पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, मनरेगा 2005 के अनुसार) के तहत काम की मांग बढ़ी है। उदाहरण के लिए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2018-19 के दौरान ग्रामीण भारत के लगभग 9.11 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन किया था। हालांकि सरकार लगभग 7.77 करोड़ के लिए अस्थायी काम दे सकी जिसका मतलब है कि लगभग 1.34 करोड़ (यानी 15%) लोगों को इस योजना के तहत रोज़गार नहीं मिल सका। इन सबके बावजूद अधिकारियों(योजना को लागू करने वाले) का तर्क है कि वे फ़ंड की कमी के कारण मांग को पूरा नहीं कर सके। और फिर भी वर्तमान बजट यह नहीं दर्शाता है कि सरकार ने इस पर कोई ध्यान दिया है। चिंता की बात ये है कि मनरेगा के लिए 2018-19 (संशोधित अनुमान) के दौरान 61,084 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे जबकि 2019-20(बजट अनुमान) में यह राशि कम होकर 60,000 करोड़ रुपये हो गई है।
कुल सरकारी ख़र्च में हिस्सेदारी के रूप में मनरेगा में आवंटन 2014-15 में 1.98% से बढ़कर 2016-17 में 2.44% हो गया था लेकिन 2018-19 में कम हो कर 2.49%हो गया। चौंकाने वाली बात यह है कि इस वित्त वर्ष यानी 2018-19 में घटकर 2.15% रह गया है। आंकडे़ को नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है। इसी प्रकार चार्ट अन्य योजनाओं जैसे एकीकृत बाल विकास योजना (आसीडीएस), मिड-डे-मील, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के प्रति सरकार की उदासीनता को भी दर्शाता है।
मिड-डे-मील (एमडीएम) योजना
वर्ष 2001 में शुरू की गई मिड-डे-मील योजना का उद्देश्य देश भर के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करना है। लेकिन मोदी सरकार में इस योजना प्राथमिकता नहीं मिली है। कुल ख़र्च में एमडीएम की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2014-15 में 0.63% से घटकर वित्त वर्ष 2019-20 में 0.39% (आवंटित 11,000 करोड़ रुपये) हो गई है। दूसरी तरफ़ करोड़ों वंचित बच्चे कोई लाभ नहीं उठा सके। उदाहरण के लिए केवल बिहार में कुल 1,80,95,158 छात्रों (कक्षा1-8) का उन स्कूलों में दाख़िला है ये योजना लागू है। इनमें से लगभग 41% या 73 लाख छात्रों को बिहार में इस योजना के तहत लाभ नहीं मिल पाया।
समेकित बाल विकास सेवा योजना
समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) योजना के तहत आंगनवाड़ी सेवाओं, नेशनल न्यूट्रिशन मिशन, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, किशोरियों के लिए योजना,नेशनल क्रेच योजना, बाल संरक्षण सेवाएं और बच्चों के विकास और संरक्षण के लिए योजनाएं राज्य सरकारों द्वारा लागू की जाती है। जबकि सरकार ने वित्त वर्ष2018-19 (20,951 करोड़ रुपये) में हुए ख़र्च की तुलना में 2,283 करोड़ रुपये अधिक आवंटित किया लेकिन कुल ख़र्च की तुलना में आईसीडीएस योजना की हिस्सेदारी में गिरावट आई है। यह एक ऐसा पैटर्न है जो मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से पनपा है। इसे ऊपर की चार्ट में दर्शाया गया है।
नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम
कई राज्य सरकारों द्वारा नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम (एनएसएपी) योजना के कार्यान्वयन के लिए अधिक राशि की मांग के बावजूद इस मुद्दे पर केंद्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया। इस योजना में वर्तमान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना (आईजीएनओएपीएस), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना(आईजीएनडब्ल्यूपीएस), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांगता पेंशन योजना (आईजीएनडीपीएस), राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना (एनएफ़बीएस) और अन्नपूर्णा शामिल हैं। इस वर्ष सरकार ने इस योजना के लिए केवल 9,200 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं जो पिछले वर्ष की तुलना में सिर्फ़ 300 करोड़ रुपये अधिक है। लेकिन कुल व्यय के मुक़ाबले इस स्कीम का हिस्सा 2014-15 में 0.43% से घटकर 2019-20 में 0.33% हो गया है।
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा, "एससी, एसटी और अन्य सामाजिक समूहों के लिए प्रमुख योजनाएं और राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम(एनएसएपी) के तहत पेंशन के लिए मनरेगा जैसी प्रमुख योजना में घटाया गया आवंटन चिंता की बात है।" उन्होंने कहा कि ये बजट आवंटन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के संबोधन को प्रतिबिंबित नहीं करता है जिन्होंने कहा था कि बजट का केंद्र बिन्दु सरकार के मध्य से दीर्घकालिक विज़न तक है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विकास व कल्याण के लिए प्रमुख योजनाएं
इस बजट में सरकारी योजनाओं के तहत लाभ प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की स्थिति में परिवर्तन की कोई संभावना नहीं है। योजनाओं की प्रभावहीनता या ख़राब क्रियान्वयन अक्सर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की चिंता का विषय रहा है। हालांकि इन वर्गों के लोगों के प्रति सरकार की लापरवाही अभी भी बरक़रार है। ऐसे में इनकी स्थिति और भी बदतर हो सकती है जैसा कि इस बजट के ख़र्चों में कल्याणकारी योजनाओं की हिस्सेदारी के विश्लेषण से पता चलता है।
अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए इस प्रमुख कार्यक्रम में शिक्षा छात्रवृत्ति, विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों के विकास, वनबंधु कल्याण योजना,आदिवासी अनुसंधान संस्थानों को सहायता, आदिवासी उप-योजनाओं के लिए विशेष केंद्रीय सहायता और संविधान के अनुच्छेद 275(1) के तहत अनुदान शामिल है। कुल व्यय के मुक़ाबले इस श्रेणी का हिस्सा मोदी सरकार में 0.23% से 0.25% के बीच ही रहा है।
इसी तरह अनुसूचित जाति वर्ग के विकास के लिए प्रमुख कार्यक्रम में शिक्षा से संबंधित छात्रवृत्ति, एससी उप-योजना, नागरिक अधिकारों को सशक्त करने, आजीविका को बेहतर करने और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए योजनाएं शामिल हैं। अनुसूचित जाति के प्रति सरकार की उदासीनता आगे दिए गए आंकड़ों से सामने आती है। 2018-19 में इस प्रमुख योजना के तहत 7,609 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए (जो 2018-19 के संशोधित अनुमान के अनुसार कुल व्यय का 0.31% है), जबकि इस वर्ष आवंटित राशि केवल 5,444.5 करोड़ रुपये तक हो गई है जो 2019-20 में आवंटित कुल व्यय का केवल 0.2% है।
आंकड़ों का संकलन पीयूष शर्मा द्वारा
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