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बम्पर फसल के बावजूद 20 करोड़ भारतीय भूखे हैं

जब कि लापरवाह मोदी सरकार 2030 से पहले भूख को खत्म न कर पाने की इच्छा जता कर रही है।

global health index

नई दिल्ली में इस खबर का जशन अभी खत्म भी नही हुआ था कि 2017-18 के कृषि वर्ष में खाद्यान्न (284.83 मिलियन टन) और फलों और सब्जियों का (307 मिलियन टन) का उत्पादन रिकार्ड के रुप में पैदा हुआ है, लेकिन इसी के साथ एक बुरी ख़बर भी आयी जिसे सरकार ने अनदेखा कर दिया । खबर के मुताबिक ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में भारत का रैंक 103 पर है, इस रैंकिंग के मुताबिक 132 देशों में भारत को 119वां स्थान मिला है।2015-17 के दौरान हमारी सरकार द्वारा एकत्रित आंकड़ों के आधार पर जीएचआई की गणना के मुताबिक, भारत में 14.8 प्रतिशत आबादी कुपोषण का शिकार थी। यह लगभग 19 करोड़ 80 लाख (198 मिलियन) लोगों हैं, जो अपने आप में एक चौंकाने वाली संख्या है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) की गणना चार संकेतकों को ध्यान में रखकर की जाती है - 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जो लंबाई और वज़न की कमी से ग्रस्त होते हैं, 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर का आकलन और कुपोषण जाँचना इसके कुछ आधार होते हैं। इससे आबादी में सूक्ष्म पोषक तत्वों सहित सभी आवश्यक पोषक तत्वों की कमी की जांच के ज़रीए देश में भूख के स्तर की एक उचित तस्वीर उभरती है।

लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है: कि खाद्य उत्पादन में लगातार वृद्धि के बावजूद, भारत में भूखमरी अनिश्चित स्तर पर बनी हुयी है। यह इशारा करता है कि लोगों के बीच खाद्यान्न वितरित किए जाने के तरीके में एक गंभीर परेशानी है। ऐसे भी लोग हैं जिन्हे जरूरत से ज्यादा भोजन मिल रहा हैं लेकिन ऐसे लोग भी  हैं जिनकी संख्या लाखों में हैं और जिन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है।

भारत के संबन्ध में एक ओर अन्य मुद्दा है उसकी क्षेत्रीय और समुदाय आधारित असमानता है। मिसाल के तौर पर, दूरदराज के क्षेत्रों में विशेष रूप से भारी बारिश वाले क्षेत्रों में अधिक कुपोषण वाले लोगों को पाया जाता है मुकाबले उन क्षेत्रों के जहां अधिक उत्पादन, बेहतर सिंचाई, बेहतर पहुंच वाले इलाके मौजूद हैं। झारखंड या ओडिशा के अंदरूनी इलाकों में रहने वाले लोगों के मुकाबले पंजाब और हरियाणा के लोगों को अधिक खाना मिलता है।

उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति (जैसे कृषि मजदूर) और उनका सामाजिक स्तर (जिसमें दलित और आदिवासी शामिल है) की वजह से कमजोर लोगों का एक बड़ा वर्ग समाज में मौजूद हैं। यहां तक कि लिंग-आधारित असमानताएं के चलते अपने समकक्षों की तुलना में लड़किया और महिलाऐं अधिक भूख से पीड़ित रहती हैं। भारत में  घातक भुखमरी के संकट की इन विशेषताओं को अतीत में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन सर्वेक्षण और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण रिपोर्ट में अच्छी तरह से दर्ज किया गया है।

मोदी सरकार की लापरवाही भरी प्रतिक्रिया 
16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस के समारोह में बोलते हुए कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने उद्यमियों और कृषि वैज्ञानिकों की एक सभा को आश्वस्त करते हुए बहादुरी से कहा कि भारत "2030 तक शून्य भूख स्तर हासिल करने का एक बड़ा लक्ष्य रख्ता है। हमारी सरकार लगातार चरणबद्ध तरीके से इस दिशा में काम कर रही है। " इस काम को आगे बढ़ाने के उदाहरण के रूप में, उन्होंने कहा कि सरकार ने "200 में से 150  स्टार्ट-अप और प्रसंस्करण इकाइयों को स्थापित करने के लिए सहायक उद्यमियों को सहायता देने का निर्णय लिया है।"
क्या कृषि मंत्री के पास यही सब कुछ पेश करने के लिए है? यानि अगले 12 साल के लिए भूख रहेगी, और लाखों बच्चे पैदा होंगे जो भोजन की कमी से बाधित अपने शारीरिक और मानसिक विकास का नतीज़ा भुगतेंगे? यानि अगले 12 वर्षों में बच्चे अपने पांचवां जन्मदिन मनाने से से पहले मौत का शिकार हो जाएंगे?कुछ लोग सोच सकते हैं कि इस स्थिति को बदलने के लिए मौजूदा सरकार वास्तव में क्या कर सकती है। कुछ जवाब काफी स्पष्ट हैं और इनकी जानकारी मंत्रियों और प्रधान मंत्री को होनी चाहिए।

इस सुधार की शुरुआत के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को सार्वभौमिक बनाया जाना चाहिए, अर्थात, इस प्रणाली को विस्तार कर इसमें सभी लोगों को शामिल किया जाना चाहिए, न कि आबादी का केवल दो-तिहाई हिस्सा, जो 2013 की राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में दर्ज़ है। योजनाओं के 'लाभ' को लक्षित करना - विकृत नव-उदारवादी सिद्धांत का एक उत्पाद है- इसे त्यागना होगा। यदि देश के लोग भूखे हैं, और चारो तरफ भूखमरी हैं, तो इस स्थिति को बनाए रखने का सिद्धांत काफी त्रुटिपूर्ण है।खाद्य कार्यक्रमों को 'प्रौद्योगिकी', यानी इलेक्ट्रॉनिक नकद हस्तांतरण, आधार प्रमाणीकरण, डिजिटल प्रबंधन इत्यादि से जोड़ने को तुरंत बंद करना होगा क्योंकि कई वर्षों का अनुभव बताता है कि यह वंचित लोगों को  राशन व्यवस्था से बाहर करने का साधन बन गया है। इन बाधाओं के कारण दर्जनों भुखमरी से मर गए हैं।

लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन नीतियों की वजह से  बेतहाशा बेरोजगारी,  असमानता, कृषि संकट, मजदूरी में स्थिरता, औद्योगिक मंदी की वर्तमान स्थिति पैदा हो रही है उसे बदलने की जरूरत है। ऐसा करने से ही लोगों की पोषण संबंधी स्थिति में एक स्थायी सुधार लाया जा सकता है।क्या मोदी सरकार इस बारे में सोच रही है? और क्या वह मानती है कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद में भुखमरी और भूखे देशवासियों के लिए चिंता शामिल है या नहीं है?
 

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