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बुरे दौर से गुज़र रहे स्वास्थ्य क्षेत्र को बजट में किया गया नज़रअंदाज़

ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के लिए बजट में आवंटन कम कर दिया गया और सरकारी ख़र्च में कटौती कर दी गई है।
heath care

भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति बेहद चिंताजनक है। इसके बावजूद सरकार की उदासीनता क़ायम है। बजट में भी इसकी झलक साफ दिखाई देती है। स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे कम ख़र्च करने वाले देशों में भारत भी शामिल है। यहां तक कि ब्रिक्स देशों में निचले पायदान पर है। संयुक्त रूप से केंद्र और राज्य सरकारों का कुल ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.4% है।

भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही के मामले सामने आते रहतें हैं। भारत की विशाल आबादी क़रीब 1.3 अरब के स्वास्थ्य का ख़्याल रखने में सार्वजनिक सेवा अपर्याप्त है। इसके चलते निजी स्वास्थ्य क्षेत्र द्वारा इलाज के नाम पर मरीज़ों को लूटने की कई घटनाएं प्रकाश में आ चुकी हैं।

इस सबके बावजूद 2018-19 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले केंद्र सरकार के खर्च को कम कर दिया गया है।

2018-19 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कुल आवंटन 54,600 करोड़ रुपए है। यह जीडीपी के 0.2 9% के बराबर हैजो पिछले वित्तीय वर्ष में आवंटित जीडीपी के 0.32% के मुक़ाबले घट ही गया है।

इसलिए विडंबना और निराशा यह है कि मीडिया ने इस बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए आवंटन को काफी बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है। मोदी सरकार द्वारा स्वीकृत नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 ने भी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को जीडीपी के 2.5% तक बढ़ाने की सिफारिश की थी। लेकिन दुर्भाग्य से 2018 के बजट में इसकी कोई संभावना भी नज़र नहीं आती है।

शायद सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा विशेष रूप से ग्रामीण स्वास्थ्य को लेकर उदासीन नज़र आ रही है।

सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएमके लिए आवंटन 25,458.61 करोड़ रुपए से घटा कर 24,279.61 करोड़ कर दिया है। एनआरएचएम के तहत प्रजनन तथा बाल स्वास्थ्य सेवा (मामूली तौर पर2,291 करोड़ रूपएके लिए ग़ैरमामूली कटौती की गई है। यहां तक कि देश में मातृत्व और बाल स्वास्थ्य के स्वास्थ्य संबंधी संकेतक चिंताजनक है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के मुताबिक़ शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित बच्चों के जन्म पर 41 है। 20 में से एक बच्चे अपने पांचवें जन्मदिन से पहले मर जाते हैंजबकि पांच साल से कम उम्र के 38% बच्चे क़मज़ोर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़ 1,00,000 भारतीय महिलाओं में से 174 महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं।

बजट के प्रमुख घोषणाओं में से एक "भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की नींव के रूप में" 1.5 लाख स्वास्थ्य तथा कल्याण केंद्रों की स्थापना थी। इसकी कल्पना राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 द्वारा की गई थी। यह घोषणा की गई कि ये केंद्र "हेल्थ केयर सिस्टम को लोगों के काफ़ी क़रीब लाएंगे"। हालांकि इन 1.5 लाख केंद्रों के लिए आवंटन मात्र 1200 करोड़ रुपए है जो कि प्रति उपकेंद्र के लिए 80,000 रुपए होता है। यह काफ़ी कम है। इससे ज़रूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता है।

फिलहाल उपकेंद्रों की स्थिति काफ़ी ख़राब है। इन केंद्रों में बुनियादी ढांचे और स्टाफ की संख्या बेहद कमी है। यहां उद्धृत आंकड़ों के अनुसार लगभग 20% उपकेंद्रों में नियमित पानी की आपूर्ति नहीं होती हैवहीं 23% केंद्रों में बिजली की सुविधा नहीं है। 6,000 से अधिक उप-केन्द्रों में ऑक्जिलियरी नर्स मिडवाइफ़ (एएनएम)/स्वास्थ्य कर्मचारी (महिलानहीं है जबकि क़रीब एक लाख केंद्रों में पुरूष स्वास्थ्य कर्मचारी नहीं है।

ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2016 के अनुसार स्वास्थ्य उप-केंद्रों की 20% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की 22% और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की 30% की कमी है।

राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन में 875 करोड़ रुपए आवंटित किया गया है ये रकम पहले 752 करोड़ थी। ज़ाहिर है शहरी स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी गई है। प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (जिसमें एम्स जैसे संस्थानों की स्थापनासरकारी मेडिकल कॉलेजों के अपग्रेडेशन आदिके आवंटन में मामूली तौर पर 650 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई हैवहीं ज़िला अस्पतालों के अपग्रेडेशन के लिए आवंटन में वास्तविक रूप से 14.5% की कमी आई है।

जाहिर है इस घोषणा ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है कि नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम जिसका लक्ष्य 10 करोड़ ग़रीब परिवारों को लाभ पहुंचाना है। इस स्कीम के तहत सेकेंड्री और टर्शियरी हॉस्पीटलाइजेशन के लिए प्रत्येक परिवार को प्रत्येक वर्ष लाख रुपए तक कवर की सुविधा दी गई।

हालांकि इसके लिए कोई आवंटन नहीं किया गया है और ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) की रिपैकेजिंग की गयी है। इसके लिए दो हजार करोड़ रूपए आवंटित किया गया है। यह राशि स्पष्ट रूप से 10 करोड़ परिवारों के लिए प्रति परिवार लाख रुपए तक की स्वास्थ्य कवरेज उपलब्ध कराने के लिए अपर्याप्त है। इसके अलावा क्षमता से अधिक ख़र्च और ग़रीबों की अनदेखी को लेकर पहले भी इस योजना की आलोचना की गई है।

पिछले अनुभव से पता चलता है कि किस तरह बीमा योजनाएं निजी अस्पतालों का मुनाफे बढ़ाने के लिए केवल सेवा देती हैंऔर यहां तक कि जिन मरीज़ों का बीमा है उनको अस्पताल ग़ैर ज़रूरी प्रक्रियाओं के लिए नुसखा लिख देते हैं।

यह कोई आश्चर्य नहीं है कि 2004 और 2014 के बीच स्वास्थ्य पर क्षमता से अधिक ख़र्च के चलते 50.6 मिलियन लोगों को गरीबी रेखा के नीचे खड़ा कर दिया गया।

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