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स्वतंत्रता आंदोलन के एजेंडे का हिस्सा था, विरासत कर

जिस मुद्दे को गंभीर बहस का विषय होना चाहिए था, उसे विद्वेषपूर्ण तरीके से हास्यास्पद बना दिया गया।
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विरासत कर के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी ने जो-जो बातें कही हैं, इतनी भारी अगंभीरता को दिखाती हैं, जो बहुत ही हैरान करने वाली हैं और जिसकी एक प्रधानमंत्री से उम्मीद शायद ही कोई करता होगा।

कांग्रेस पार्टी के सैम पित्रोदा ने विरासत कर पर विचार की संभावना का जिक्र किया था। इस पर मोदी के जवाब में कोई विवेक-आधारित तर्क नहीं था, जबकि कुछ तर्क तो थे ही जो वह दे सकते थे। इसके बजाए, उन्होंने पित्रोदा की बात की सोची-समझी तथा तुच्छतापूर्ण दुर्व्याख्या का सहारा लिया, ताकि संबंधित प्रस्ताव को ही हास्यास्पद बनाकर पेश किया जा सके। इस तरह, जिसे गंभीर बहस का विषय होना चाहिए था, उसे विद्वेषपूर्ण तरीके से हास्यास्पद बना दिया गया। उनकी दो टिप्पणियां इस प्रकार थीं: अगर विरासत कर लागू हो जाएगा, तो श्रोताओं के बीच बैठी महिलाओं के मंगलसूत्र छिन जाएंगे; और कांग्रेस तो मौत के बाद भी आपको लूटना बंद नहीं करेगी। इनमें से पहली बात तो सीधे-सीधे झूठी ही थी क्योंकि एक सीमा से ज्यादा संपत्ति के मामले में ही विरासत कर लगता है। दूसरी बात तो श्रोताओं के मन में हिकारत पैदा करने के लिए ही कही गयी थी, वर्ना उसमें कोई तर्क तो है ही नहीं। आखिर, किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद, उसकी संततियों को विरासत में मिलने वाली संपत्ति पर कर लगाए जाने में तो कुछ भी गलत नहीं है।

आइए, सबसे पहले तो हम मौजूदा मुकाम पर एक बहुत भारी राजकोषीय प्रयास की जरूरत पर ही विचार से शुरू करते हैं। आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि नव-उदारवाद के दौर में, आय तथा संपदा की असमानताओं में बहुत भारी बढ़ोतरी हुई है। भारत में असमानता में इतनी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है कि इससे शुद्ध वंचितता तक बढ़ गयी है। इस तरह की वंचितता, एनडीए के राज के वर्षों में खासतौर पर तेजी से बढ़ी है। मिसाल के तौर पर अब यह पक्के तौर पर साबित हो चुका है कि 2014-15 से ग्रामीण क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी में गतिरोध की स्थिति बनी रही है। वास्तव में हम यह भी कह सकते हैं कि अगर, वास्तविक मूल्य आंकने के लिए उपयुक्त मूल्य सूचकांक का प्रयोग किया जाए तो, ग्रामीण वास्तविक मजदूरी में वास्तविक गिरावट ही दिखाई देगी, जो मजदूरों की सौदेबाजी की सामर्थ्य में उल्लेखनीय गिरावट को ही दिखाता है। इस तरह की गिरावट, बेरोजगारी के स्तर में बढ़ोतरी के साथ ही आ सकती है और यह श्रम शक्ति के बीच अर्द्ध या आंशिक रोजगार के बढऩे के रूप में सामने आता है। वास्तविक मजदूरी में गिरावट और अल्पतर रोजगार में बढ़ोतरी के योग से वर्तमान दौर में शुद्ध वंचितता उस हद तक पहुंच जाती है, जो पिछली आधी सदी के दौर के लिए तो पूरी तरह से अभूतपूर्व ही है।

संपदा और विरासत कर क्यों ज़रूरी है

अब अगर नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के स्वत:स्फूर्त तरीके से काम करने का यह नतीजा आया है, तो यह जरूरी हो जाता है कि उसके इस स्वत:स्फूर्त तरीके से काम करने में राजकोषीय हस्तक्षेप के जरिए सुधार किया जाए। इसके लिए, संपन्न तबकों पर कर लगाने की जरूरत होगी, ताकि और दरिद्र बनाए जा रहे लोगों के पक्ष में साधनों का हस्तांतरण किया जा सके या उनके लिए सेवाएं मुहैया करायी जा सकें। इसलिए, वंचितता के बढ़ रहे होने के दौर में, इस तरह के राजकोषीय हस्तक्षेप से भागना, मेहनतकश जनता के साथ विश्वासघात करना ही होगा। इसलिए, संपन्न तबकों पर अतिरिक्त कर लगाना, सरकार का कर्तव्य हो जाता है और इस तरह के करों का प्रत्यक्ष कर होना जरूरी है, क्योंकि अप्रत्यक्ष करों का तो ज्यादातर बोझ इन गरीबों पर ही पड़ रहा होगा।

इस तरह के प्रत्यक्ष कर आय जैसे प्रवाहों पर लगाए जा सकते हैं या फिर खर्चे पर या संपदा या विरसे जैसे स्टॉक्स पर लगाए जा सकते हैं। भारत में स्टॉक्स पर कोई प्रत्यक्ष कर हैं ही नहीं। हमारे सारे प्रत्यक्ष कर, प्रवाहों पर ही हैं। अब अगर अतिरिक्त कर राजस्व जुटाना है और स्टॉक्स पर कर लगाने से भी बचना है, तो प्रवाहों पर कराधान को और भी बढ़ाना होगा। लेकिन, ऐसा करना अनेक कारणों से उचित नहीं होगा। पहला कारण तो यही है कि अगर अतिरिक्त कर की कोई खास राशि प्रवाहों पर अतिरिक्त कर लगाने के जरिए जुटायी जाती है, तो ऐसा करने पर उसकी चपेट में कहीं ज्यादा लोग आएंगे, जबकि उतने ही साधन स्टॉक के विभिन्न रूपों पर कर लगाने के जरिए जुटाए जाने की सूरत में अपेक्षाकृत कम लोगों पर इसका बोझ पड़ेगा। दूसरे, संपदा पर कर लगाने से निवेश पर तथा इसलिए रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ता है क्योंकि इसका निवेश को प्रभावित करने वाले परिवर्तनीयों पर कोई असर नहीं पड़ता है, जैसे बाजार की वृद्धि की प्रत्याशा या करोपरांत मुनाफे की दर या ब्याज की दर। दूसरी ओर, मुनाफों पर कर लगाए जाने से, अपेक्षाकृत छोटे पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला निवेश घट सकता है। तीसरे, चूंकि हाल के वर्षों में संपदा असमानताएं नाटकीय तरीके से बढ़ गयी हैं, असमानताओं में इस बढ़ोतरियों से संपदा तथा विरासत पर समुचित कर लगाने के जरिए निपटे जाने की वैसे भी जरूरत है।

पूंजीवाद का तर्क और विरासत का विचार

वास्तव में, आगे बताए गए कारण से विरासत में मिली संपत्ति पर कर लगाने का नैतिक तर्क, संपदा पर कर लगाने से भी ज्यादा प्रबल है। पूंजीवाद की हिमायत करने वाले सभी लेखक, इसी तर्क के आधार पर उसकी हिमायत करते हैं कि पूंजीपतियों में कोई खास गुण होता है, जो समाज में दूसरे लोगों में नहीं होता है, यही गुण उन्हें बाकी सब से अलग करता है। और इस गुण का होना ही उनके एक खास प्रकार की आय बटोरने को उचित बनाता है, जिसे मुनाफे के नाम से जाना जाता है। यह विचार, मार्क्सवादी विचार से ठीक उल्टा है, जो मजदूरों के शोषण का ही इस मुनाफे का स्रोत मानता है।

बहरहाल, पूंजीपतियों में ही पाया जाने वाला यह खास गुण क्या है, इस पर पूंजीवाद की हिमायत करने वालों के बीच भी कोई आम सहमति नहीं है। जहां शुम्पीटर इस सिलसिले में ‘उत्प्रेरित करने योग्यता’ की बात करते हैं, दूसरे लोग जोखिम उठाने की योग्यता, आदि, आदि की बात करते हैं।

आइए, बहस के लिए ही हम पूंजीवाद के संबंध में इस अवधारणा को सच मान लेते हैं। अब अगर कोई विशेष गुण ही है जो किसी व्यक्ति को संपदा रखने का और इस संपदा से मुनाफों के रूप में होने वाली आय का अधिकारी बनाता है, तो इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि उसके बच्चों में भी वह विशेष गुण होगा। इन बच्चों को भी, समान अवसरों की स्थिति से शुरू कर, स्वतंत्र रूप से यह साबित करने की जरूरत होनी चाहिए कि उनमें वह विशेष गुण है और उसके बाद ही वे किसी तरह से संपदा रखने के अधिकारी होने का दावा कर सकते हैं।
मिसाल के तौर पर अगर किसी को अपने दादा की उस संपत्ति को अपने पास रखने का अधिकारी माना जा रहा है, जो उसके दादा ने किसी खास गुण के चलते हासिल की थी, जबकि पोते ने ऐसे किसी गुण का प्रदर्शन नहीं किया हो, तो यह तो पूंजीवाद के इस दर्शन के ही खिलाफ जाना हुआ कि पूंजी का स्वामित्व तो एक खास गुण का पुरस्कार होता है। संक्षेप में यह कि विरासत के जरिए संपदा हासिल करना तो पूंजीवाद के स्वघोषित दर्शन के ही खिलाफ जाता है।

वास्तव में यह तो इस प्रस्थापना का खंडन ही करता है कि संपदा का स्वामित्व और इसलिए मुनाफा नाम की आय का अर्जित किया जाना, संपदा के स्वामियों के किसी खास गुण का परिणाम होता है।

विकसित पूंजीवादी देशों में क्या है स्थिति?

इस व्यवस्था के वैधीकरण को पुख्ता करने के लिए ही, विरासत कर पूरी तरह से नापसंद होते हुए भी, अनेक विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में यह कर स्थापित किया गया है। मिसाल के तौर पर जापान में पूरे 55 फीसद का विरासत कर लागू है। भारत में अब कोई विरासत कर नहीं रह गया है। यह इसकी संगति में है कि हमारे यहां कोई बताने लायक संपदा काराधान भी नहीं है क्योंकि विरासत कराधान, अपने आप में महत्वपूर्ण होने के अलावा संपदा कराधान का एक जरूरी पूरक भी है। संपदा कराधान ही नहीं होगा तो, विरासत छोडऩे वाले की मृत्यु से पहले ही उसकी संततियों के बीच संपदा को बेरोक-टोक छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर, विरासत कर से बचा जा सकता है।

इसलिए, विरासत कराधान को, सिर्फ मृत्यु के बाद ही नहीं बल्कि मृत्यु से पहले भी, संततियों या मित्रों के लिए विरसे के रूप में छोड़ी जाने वाली संपदा को अपने दायरे में लाने में समर्थ होना चाहिए। यह एक प्रगतिशील कर होना चाहिए, जिसे संपदा की एक सीमा से ऊपर ही लागू किया जाए, जिससे इजारेदार पूंजीपति और अरबपति, आम महिलाओं के मंगलसूत्र की दुहाई देकर, जनमत को इसके खिलाफ नहीं कर सकें। और यह, जैसा कि हमने अभी-अभी कहा, यह अनिवार्य रूप से विरसा छोडऩे वाले की मृत्यु के बाद ही लागू हो यह कोई जरूरी नहीं है बल्कि विरसा छोडऩे वाले के अपने जीवन काल के दौरान, उसके व्यवहार में विरसा सौंपने के मामले में भी लागू होना चाहिए।
संपदा कराधान और विरासत कर, दोनों के ही खिलाफ आम तौर पर यही दलील दी जाती है कि इन करों को लागू कराना मुश्किल होता है और इसलिए, इनसे बहुत कम राजस्व ही मिलता है। लेकिन, इसी वजह से इस तरह के कराधान को छोड़ा जाना, जैसा कि भारत में किया गया है, सही नहीं हो जाता है। इसके बजाए, कर संग्रह की प्रक्रियाओं की सावधानीपूर्वक जांच-परख तथा उनमें ऐसे बदलाव करने की जरूरत है, जिससे इस तरह का कराधान कारगर हो सके। इस संदर्भ में इसका भी अध्ययन किया जा सकता है कि जापान जैसे अन्य देशों में इस कर को कैसे लागू किया जा रहा है।

स्वतंत्रता आंदोलन के एजेंडे का हिस्सा था विरासत कर

प्रसंगवश बता दें कि विरासत कर लागू किया जाना, हमारे उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के एजेंडा का हिस्सा था। 1931 के कराची कांग्रेस के प्रस्ताव में एक ऐसे भारत की कल्पना प्रस्तुत की गयी थी, जहां कानून की नजरों में सभी नागरिक बराबर होंगे, सार्वभौम वयस्क मताधिकार होगा, सभी नागरिकों के लिए कुछ मौलिक अधिकार होंगे और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा, जो किसी खास धर्म को बढ़ावा नहीं दे रहा होगा। इस प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से यह भी कहा गया था कि, ‘एक तयशुदा न्यूनतम से ऊपर की संपत्ति पर, उत्तरोत्तर रूप से बढ़ते पैमाने पर शुल्क लगाए जाएंगे’। हालांकि, कराची कांग्रेस का प्रस्ताव, कांग्रेस के संगठन के अंदर भी और उसके बाहर भी, देश के राजनीतिक जीवन में वामपंथ के उभार को प्रतिबिंबित करता था (कराची अधिवेशन 26 मार्च को हुआ था, भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी से सिर्फ तीन दिन बाद), इस प्रस्ताव को आम समर्थन हासिल था। यह प्रस्ताव, जो जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था, गांधी की सावधान जांच-पड़ताल से गुजरा था तथा उनके अनुमोदन से पेश किया गया था और जिस कराची कांग्रेस में इस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था, उसकी अध्यक्षता वल्लभभाई पटेल ने की थी। इस तरह, विरासत कर के खिलाफ प्रधानमंत्री की बचकानी बकझक, हमारे उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के एजेंडा के संबंध में ज्ञान के दयनीय अभाव को ही दिखाती है।

विरासत कर और इसके साथ ही संपदा कराधान, वर्तमान मुकाम पर आवश्यक हैं। और इस तरह का कराधान सिर्फ देश में तेजी से बढ़ती असमानता पर अंकुश लगाने के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि एक कल्याणकारी राज्य के निर्माण के लिए भी जरूरी है, जिसका स्थापित किया जाना, उस सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए एक आवश्यक कदम है, जिसका वादा कराची प्रस्ताव ने किया था।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

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