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लोकसभा चुनाव के बीच मोदी के उलझाने वाले संदेश

पहले मोदी ने अपनी उपलब्धियों के आधार पर "400 पार" तक पहुंचने का नैरेटिव तय किया था। लेकिन उन्होंने अपने इस नैरेटिव को 18वीं लोकसभा चुनाव के बीचों-बीच छोड़ दिया क्योंकि उन्हें यह फीडबैक मिला होगा कि लहर सत्ता विरोधी है।
Modi

मार्च 2024 में, भारत में केंद्र के स्तर पर सत्तारूढ़ दल के पक्ष में लहर दिख रही थी, जिसका मुख्य कारण नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता थी।

मीडिया ने उनके नारे को "अब की बार, चार सौ पार" (जैसे कि सिक्का उछालने पर, चार सौ पार हो जाएंगे) को ज़ोर-शोर से पेश किया और साथ ही "मोदी की गारंटी" और "विश्वगुरु" के बारे में खूब प्रचार किया।

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि दुनिया में भारत के प्रति अभूतपूर्व सम्मान है। इस संदर्भ में जी-20 अध्यक्ष पद (जो रोटेशन से मिलता है) का उल्लेख किया गया। यह तर्क दिया गया कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था है और बड़ी पूंजी भारत आना चाहती है।

सत्तारूढ़ दल ने दावा किया कि इसे महामारी और यूक्रेन युद्ध के बावजूद हासिल किया गया,  जिसका सामना अन्य अर्थव्यवस्थाएं भी नहीं कर पाईं। इसलिए, भारत को मोदी के नेतृत्व में आंतरिक और बाह्य रूप से अच्छा प्रदर्शन करने वाले के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

कुछ समय के लिए ऐसा लगने लगा था कि सत्तारूढ़ दल अब पहले के जैसे इस्तेमाल किया जाने वाले विभाजनकारी एजेंडे को 2024 में वोट मांगने का आधार नहीं बनाएगा। लेकिन, पहले दौर के मतदान के बाद स्थिति बदल गई है।

इसके पीछे 2019 के चुनावों की तुलना में वोट प्रतिशत में गिरावट थी। यदि संसद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को 400 सीटें दिलाने की लहर होती, तो मतदान का प्रतिशत बढ़ना चाहिए था। बाद के दौर के मतदान में भी गिरावट का सिलसिला जारी रहा।

जनता का मूड

क्या जनता, सत्ताधारी दल द्वारा चित्रित बेहतर तस्वीर से प्रभावित नहीं है और यही वह कारण लगता है कि मतदाता कम मतदान कर रहे हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाली प्रतिबद्ध जनता सत्ताधारी दल की आलोचना से अधिक विपक्ष की आलोचना से प्रभावित हो?

जैसा कि उम्मीद की जा सकती थी, सत्तारूढ़ दल ने तर्क दिया कि इंडिया गठबंधन के समर्थक मतदान नहीं कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि सत्तारूढ़ दल जीत रहा है। अंततः, चिलचिलाती गर्मी वोट प्रतिशत में गिरावट का एक कारण हो सकती है।

यदि बाद के दो कारण कम मतदान का कारण थे, तो सत्तारूढ़ दल को चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी और वह अपने मुख्य नैरेटिव पर टिका रह सकता था। नैरेटिव में अचानक बदलाव से पता चलता है कि पहले दो कारण संभावित कारण हैं।

इससे भी बुरी बात यह है कि हर कुछ दिनों में नैरेटिव इस उम्मीद में बदल जाता है कि यह कुछ काम करेगा। विपक्ष के खिलाफ झूठ और तिकड़मबाज़ी के आधार पर भयानक हमले किये जा रहे हैं।

यह निरर्थक है क्योंकि यह गैर-प्रतिबद्ध जनता की चिंताओं का समाधान नहीं करता है। इस प्रक्रिया में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सत्तारूढ़ दल विपक्ष को एजेंडा निर्धारित करने की इजाजत दे रहा है, जबकि पहले के समय में वह खुद एजेंडा निर्धारित करता था।

विपक्ष के जवाबी हमले 

सत्ता पक्ष इससे ज्यादा फायदा नहीं उठा पाया क्योंकि विपक्ष उनसे गुमराह होने के बजाय लोगों की परेशानी के मुद्दे को सफलतापूर्वक उठाता रहता है।

सत्तारूढ़ दल की बदलती घोषणाओं ने बड़ी संख्या में लोगों के सामने आने वाले आर्थिक संकट के वास्तविक मुद्दों को संबोधित नहीं किया है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि वास्तविक मुद्दे- अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन, बेरोजगारी, महंगाई, बढ़ती असमानता आदि लंबे समय से मौजूद हैं। अब जनता उन पर प्रतिक्रिया क्यों दे रही है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि विपक्षी दल हाल ही में चुनाव की घोषणा से ठीक पहले तक इन मुद्दों पर लोगों को एकजुट नहीं कर पा रहे थे। मार्च 2020 से, जब महामारी की घोषणा हुई, विपक्ष ज्यादातर नदारद रहा।  

उनके नेताओं को या तो जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के ज़रिए चुप करा दिया गया, या तो उनमें से कई को सलाखों के पीछे डाल दिया गया या उन पर खतरे की तलवार लटकाकर मामलों में फंसा दिया गया। पार्टियों के टुकड़े कर दिए गए और विपक्षी सरकारों को गिराने के लिए विधान सभाओं के सदस्यों को खरीद लिया गया।

संदेश यह गया कि विपक्ष को बुरी तरह कुचल दिया जाएगा। यदि 2024 के चुनावों में "400 पार" वास्तविकता बन जाती है, तो विपक्ष को अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ेगा।

एक कोने में सटा दी गई बिल्ली की तरह, विपक्षी दल अब जनता को लामबंद करके जवाबी कार्रवाई करने लगे, और जवाब दिया क्योंकि उसके दर्द को आवाज मिल गई है। यह याद रखने की जरूरत है कि गरीब अपने आप संगठित नहीं होते, उन्हें संगठित करना पड़ता है। विपक्षी दलों को यह पहले ही करना चाहिए था। 

असली मुद्दे मायने रखते हैं

सत्तारूढ़ दल के खिलाफ विपक्ष की लामबंदी ने उसके समर्थन को मजबूत किया है और सत्तारूढ़ दल का समर्थन आधार कमजोर हुआ है। इसलिए, सत्ताधारी पार्टी के समर्थक कम मतदान कर रहे हैं जबकि अधिक गैर-प्रतिबद्ध मतदाता वोट देने बाहर आ रहे हैं।

2016 में नोटबंदी के बाद से लोगों की मुश्किलें तेजी से बढ़ी हैं। 2017 में ढांचागत रूप से दोषपूर्ण वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) आया, जिसने छोटे और सूक्ष्म क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाया है।

महामारी के दौरान तब स्थिति और भी खराब हो गई जब बड़ी संख्या में लोगों को गंभीर नुकसान उठाना पड़ा और वे अभी तक महंगाई और बेरोजगारी के कारण उस झटके से उबर नहीं पाए हैं।

अपर्याप्त कृषि आय के कारण किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। वास्तव में, वंचित तबकों को बढ़ती कठिनाई और गरीबी का सामना करना पड़ रहा है। डेटा इसे कैप्चर नहीं करता है क्योंकि: ए) डेटा-संबंधी मुद्दे जैसे कि जनगणना नहीं की जा रही है, और बी) समग्र डेटा हाशिए पर रहने वाले लोगों के संकट को पकड़ने में विफल रहता है।

इसलिए, डेटा कुछ अच्छा कर रहे लोगों और विशाल बहुमत के कष्ट के बीच स्पष्ट अंतर को नज़रअंदाज कर देता है। यह प्रचार होता है कि अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है, जो हाशिये की जमातों की कठिनाइयों का उपहास उड़ाता है।

बदलता नैरेटिव 

यह सब सत्ता विरोधी लहर में तब्दील हो रहा है और इसने सत्तारूढ़ दल को अपने नैरेटिव को बदलने पर मजबूर कर दिया है। कुछ ऐसा नहीं मिल रहा जो काम करता हो, इसलिए हर कुछ दिनों में कहानी या नैरेटिव बदल जाता है। जैसे, सांप्रदायिक कार्ड खेलना, यह कहना कि विपक्ष अनुसूचित समुदायों से आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दे देगा, यह कहना कि विपक्ष किसानों के मवेशी और महिलाओं के मंगलसूत्र छीनकर पैसे का पुनर्वितरण करेगा, और यह आरोप लगाना कि विपक्ष को बिग कैपिटल द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है।

यह आखिरी हताशा को दर्शाता है क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार के पसंदीदा लोगों पर विपक्ष को वित्त पोषित करने का आरोप लगाया गया। इसका मतलब यह है कि इन बड़े व्यवसायियों के पास बहुत सारा काला धन आदि है।

दूसरा हथकंडा यह अपनाया गया कि कांग्रेस राम मंदिर पर ताला लगा देगी। ये विचित्र आरोप न तो तथ्यों पर आधारित हैं और न ही इंडिया गठबंधन के साझेदारों के घोषणापत्र की सामग्री पर आधारित हैं।

जनता के मूड में बदलाव शेयर बाजार की अस्थिरता और गिरावट में परिलक्षित होता है। व्यापारिक समुदाय बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापस आने को लेकर और सत्तारूढ़ सरकार की बढ़ती अनिश्चितता के रूप में बदलती कहानी को समझा जा रहा है। बड़े पूंजीपति अधिक व्यवसाय-समर्थक नीतियों की उम्मीद कर रहे थे लेकिन अब वे इस बारे में निश्चित नहीं है।

यदि मोदी अपनी शुरुआती बात पर अड़े रहते और विभाजनकारी मुद्दों पर अपना रुख नहीं बदलते या कपटपूर्ण नहीं होते तो वे एक अत्यंत आत्मविश्वासी राजनेता के रूप में सामने आते। इससे उनका कद आंतरिक और बाह्य दोनों ही स्तर पर ऊंचा हो गया होता। आज भारत और मोदी की छवि को धक्का लगा है।

चूंकि भारत के बाज़ार को आकर्षक माना जाता है, इसलिए कई देश इस पर चुप रह सकते हैं लेकिन भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ है। 1950 और 1960 के दशक में, भारत गरीब था लेकिन अपने वैश्विक नैतिक और सैद्धांतिक रुख के मामले में इसका काफी सम्मान था।

मोदी विश्वगुरु के रूप में अंतरराष्ट्रीय पहचान भी चाहते हैं। लेकिन यह उनकी समझ से परे है क्योंकि अधिकांश अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में भारत का स्थान निम्न है - चाहे वह मानव स्वतंत्रता, लोकतंत्र, प्रेस स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, शांति, भूख आदि क्यों न हो।

निष्कर्ष 

पहले दौर के मतदान से पहले मोदी के आत्मविश्वासी नैरेटिव ने लगातार बदलती कहानी का मार्ग प्रशस्त किया है।

उन्होंने महसूस किया कि लोगों की कठिनाइयों और विपक्ष की लामबंदी को देखते हुए, उनकी पहले का नैरेटिव काम नहीं कर रहा है। इसलिए, वे ध्रुवीकरण और कपटपूर्ण नारों के परखे हुए नैरेटिव पर वापस लौट आए हैं।

इससे उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि खराब होती है और वह इसके प्रति संवेदनशील हैं लेकिन अगर वे हार जाते हैं तो इससे क्या फायदा? ध्रुवीकरण, जो सामाजिक विभाजन को बढ़ाता है, जो समुदायों में विश्वास पैदा करने के मुक़ाबले आसान काम है।

पहले वाला वह है जो एक लोकलुभावन नेता करता है जबकि दूसरा वाला वह है जो एक राजनेता करता है। लेकिन पिछले 10 सालों में मोदी ने सत्ता में आना हो या सत्ता में बने रहना हो, इन बारीकियों की परवाह नहीं की है।

मोदी ने पिछले पांच वर्षों में अपनी उपलब्धियों के आधार पर "400 पार" तक पहुंचने के लिए एक नई कहानी तय की थी। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी प्रभावित हुआ था। उन्होंने इन दोनों का त्याग कर दिया है क्योंकि उनका फीडबैक यही होगा कि लहर सत्ता विरोधी है। लेकिन लगातार बदलती स्थिति से पता चलता है कि उन्हें अभी तक सही नौरेटिव नहीं मिला है।

अरुण कुमार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।

साभार: द लीफ़लेट 
 

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