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बंगाल चुनाव नतीजे भाजपा की सांप्रदायिकता की राजनीति को ख़ारिज करते हैं

भाजपा हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना चाहती थी, लेकिन उसकी इस कोशिश ने उन सभी लोगों को एकजुट कर दिया जो नफ़रत की विचारधारा का विरोध करते हैं, खासकर मुस्लिम समुदाय लोगों को।
बंगाल चुनाव नतीजे भाजपा की सांप्रदायिकता की राजनीति को ख़ारिज करते हैं

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा को हुए चुनावी नुकसान ने एक फिर से साबित कर दिया है कि गैर-बीमारू राज्यों में भगवा पार्टी कोई भी दरार डालने में कामयाब नहीं हो पाएगी। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस राज्य में भाजपा ने जिस तूफ़ानी युद्ध से चुनाव लड़ा उस पर अधिकांश राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना था कि भाजपा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार पर हथोड़ा चला देगी और सत्ता कब्ज़ा लेगी। चुनाव पूर्व किए गए कई सर्वेक्षणों ने भी इस सोच का समर्थन किया था। इन भविष्यवक्ताओं में से अधिकतर ‘बाहरी’ थे जिन्हें मीडिया संगठनों ने पश्चिम बंगाल में भेजा था। भाजपा ने जिस तरह से अपने चुनाव अभियान का आयोजन किया वे यथासंभव उससे बड़े पैमाने पर मंत्रमुग्ध थे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य की लगभग हर कोने में  विशाल रैलियों को संबोधित किया और दर्जनों मंत्रियों और संसद सदस्यों ने भी संबोधित किया था। बनर्जी की अजेयता की आभा को पटकी देने के लिए, हफ्तों तक दोष मढ़ने का काम किया जा रहा था। एक मुख्य धारा के मीडिया ने तृणमूल कांग्रेस से हुए हर दलबदल की सार्वजनिक सूचना बढ़ा-चढ़ा कर दी, फिर भले ही वह पंचायत स्तर का नेता क्यों न रहा हो। उन्होंने विपक्षी दलों के पक्ष में उभरे सभी मुद्दों को जान-बूझकर नजरअंदाज किया, जिसमें तृणमूल में शामिल होने वाले नेता शामिल थे। बीजेपी की शुरुवाती योजना के मुताबिक प्रधानमंत्री को 20 रैलियों और शाह को 50 रैलियों को संबोधित करना था, और ऐसा लगभग एक महीने के चुनावी अभियान के दौरान करना था। हालाँकि, अंतिम गिनती सभवतः बहुत अधिक थी, क्योंकि बीजेपी खुद को आश्वस्त कर चुकी थी कि वह बंगाल में सत्ता के संतुलन को हिलाने की कुछ ही दूरी पर है।

चुनाव के अंत में जब नतीज़े सामने आए तो पता चला कि भाजपा कुल 77 सीटें ही जीत पाई, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने 213 सीटें जीतीं हैं। ममता की पार्टी का वोट-शेयर मतदान हुए सभी वोटों का 48 प्रतिशत रहा। दूसरी ओर, भाजपा को डेढ़ साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में मिले वोट के मूकाबले महज 38 प्रतिशत वोट ही मिले। इन चुनावों में मुसलमानों की ओर से तृणमूल को करीब-करीब पूरा समर्थन भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा हो सकता है। भविष्यवाणियों के बावजूद, वोटों का विभाजन नहीं हुआ जैसा कि काफी लोगों ने उम्मीद की थी। ऐसी आशंकाएं थीं कि मुस्लिम वोट तृणमूल और कांग्रेस-वाम-आईएसएफ गठबंधन के बीच विभाजित हो जाएगा। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि मुस्लिमानों ने राज्य में भाजपा को हराने के लिए पार्टी का समर्थन किया है।

पश्चिम बंगाल की आबादी में मुसलमान लगभग 30 प्रतिशत हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में 24.6 मिलियन मुस्लिम थे। इनमें से लगभग 20 मिलियन बंगाली मुसलमान हैं जो राज्य की कुल मुस्लिम आबादी का 80 प्रतिशत हिस्सा हैं। बाकी उर्दू भाषी मुस्लिम हैं, जो मुख्य रूप से कोलकाता और अन्य शहरी केंद्रों में केंद्रित हैं। राज्य की लगभग 130 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक निर्णय की स्थिति में है। इन चुनाव के परिणामों से पता चलता है कि समुदाय - चाहे वह बंगाली भाषी हो या उर्दू भाषी - अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए किसी उसने एक ही पक्ष का ठोस समर्थन किया है।

इस चुनाव की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि मुस्लिम मतदाताओं ने मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों को खारिज कर दिया है, जैसे कि हैदराबाद स्थित ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के संसद सदस्य असदुद्दीन ओवैसी को सिरे से ख़ारिज़ करना एक बड़ा तथ्य है। उन्होंने तृणमूल और अन्य पार्टियों जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और वामपंथी संगठनों के बीच भी अपने वोटों को विभाजित नहीं होने दिया।

जब से बिहार के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम के पांच उम्मीदवार जीते हैं, एआईएमआईएम की उम्मीदें काफी बढ़ गई थीं। हालांकि, एक बड़े ध्रुवीकृत चुनाव में जो अनिवार्य रूप से मोदी बनाम ममता लड़ाई बन गया था, उसके उम्मीदवार मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने में पूरी तरह से विफल रहे। उन्हें सात विधानसभा क्षेत्रों में सामूहिक रूप से सिर्फ एक हजार वोट मिले हैं। एआईएमआईएम ने इटार, जलंगी, सागरदीघी, भरतपुर, मालीपुर, रतुआ और आसनसोल उत्तर विधानसभा क्षेत्रों से उम्मीदवार उतारे थे, जहां मुसलमान भारी बहुमत में रहते हैं। हालांकि, पार्टी मुस्लिम मतदाताओं को समझाने में नाकाम रही।

पूर्व राज्यसभा सदस्य मोइनुल हसन ने इस लेखक को बताया कि भाजपा की हार सांप्रदायिकता पर धर्मनिरपेक्षता की जीत है। वह कहते हैं, "बंगाल के लोगों ने हर प्रकार की सांप्रदायिकता को खारिज कर दिया है, चाहे फिर वह मुस्लिम या हिंदू सांप्रदायिकता हो।" हालांकि, बंगाल के मुसलमान धार्मिक हैं, सांप्रदायिक नहीं हैं और इस चुनाव ने इस अंतर को स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने कहा, "यही वजह है कि फुरफुरा शरीफ पीर (धार्मिक नेता) के नेता अपनी नई पार्टी को समर्थन देने के लिए आबादी को समझाने में नाकाम रहे।" रिपोर्टों में कहा गया है कि फुरफुरा शरीफ के कुछ पीरों ने उन्हे राजनीतिक पार्टी बनाने का विरोध किया था। हालांकि, उनका कहना है, यदि वे सभी अपने राजनीतिक सपनों में एकजुट होते, तो भी चुनावी नतीजे समान ही होते। 

पश्चिम बंगाल में भाजपा के बड़े ज़ोर-शोर वाले अभियान से जो ध्रुवीकरण के हालत बने थे,  यहां तक कि अब्बास सिद्दीकी या आईएसएफ भी मुस्लिम मतदाताओं को उस पार्टी के लिए वोट करने के लिए नहीं रोक सकते थे जिस अपर उन्हें विश्वास था कि वह भाजपा को कामयाब नहीं होने देगी। इस कारण से, फुरफुरा शरीफ, राज्य में मुस्लिम समुदाय के एक व्यापक वर्ग पर अपने प्रभाव के बावजूद, मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस या वाम की ओर आकर्षित करने में कामयाब नहीं हुआ और उन्हें विभाजित नहीं कर सका।

अधिकांश पर्यवेक्षकों ने भविष्यवाणी की थी कि फुरफुरा वोट तृणमूल के अल्पसंख्यक आधार को भारी झटका देगा। इसके बजाय, आईएसएफ गठबंधन से हासिल की गई तीस सीटों में से केवल एक ही जीत सकी। यह भांगर विधानसभा क्षेत्र है जहां अब्बास सिद्दीकी के भाई, एमडी नवासाद लगभग पच्चीस हजार वोटों के अंतर से जीत गए हैं। इसलिए, चुनाव परिणाम फुरफुरा शरीफ की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बड़ा झटका है।

मोहम्मद रियाज़, जो कोलकाता के अलियाह विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, इस मुद्दे पर उनका एक महत्वपूर्ण प्रतिवादी रुख है। उनके अनुसार, आईएसएफ चुनावी मुकाबले के लिए तैयार ही नहीं था। “इसे बमुश्किल कुछ हफ्ते पहले शुरू किया गया था। हालांकि अब्बास सिद्दीकी ने कुछ रैलियां कीं, लेकिन वे चुनाव के लिए तैयार नहीं थे, इतना कि उन्हे दूसरे संगठन के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ना पड़ा। बंगाल में किसी ने नहीं सोचा था कि वे जीतेंगे। उनके भाई ने बंघार से जीत हासिल की क्योंकि यह उनका प्रभाव क्षेत्र है। रियाज़ के मुताबिक ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि कुछ साल पहले भूमि अधिग्रहण मुद्दे पर भारी विरोध के कारण लोगों में तृणमूल के खिलाफ बहुत गुस्सा था। 

चुनाव जीतने के लिए, किसी को भी ज़मीन पर समय बिताने और वर्षों तक काम करने की जरूरत होती है। राज्य में भाजपा के संगठनात्मक ढांचे की कमी भी एक और कारक रही कि  चुनाव में भगवा पार्टी ने इतना खराब प्रदर्शन किया है। “दक्षिण बंगाल में मुसलमानों ने पिछले दो चुनावों में भी तृणमूल को वोट दिया था। रियाज का कहना है कि इसके अलावा, इस बार तृणमूल के आसपास सबका जमावड़ा हुआ और इससे उन्हें जीतने में भी मदद मिली हैं।

उन्होंने कहा, तृणमूल के लिए मुसलमानों का करीब-करीब पूरा समर्थन, मुख्य रूप से भाजपा द्वारा चुनाव अभियान के दौरान अपनाई गई सांप्रदायिक बयानबाजी के कारण है। भगवा पार्टी ने पश्चिम बंगाल में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी और एनपीआर) को लागू करने की धमकी दी थी, जो बंगालियों को नागवार लगा। इसके अलावा, मुस्लिम जानते हैं कि असम में रहने वाले बंगाली मुसलमान एनआरसी के कारण कैसे पीड़ित हैं।

कई लोगो द्वारा नागरिकता साबित करने के बावजूद, उन्हे हिरासत में लेकर शरणार्थी शिविरों में फेंक दिया गया हैं। एनआरसी और एनपीआर के डर से समुदाय को भाजपा को हराने के लिए पार्टी का समर्थन करना पड़ा और तृणमूल की जीत सुनिश्चित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 

हसन ने इस चुनाव परिणाम को "रिवर्स पोलराइजेशन" यानि ‘उल्टा ध्रुवीकरण’ का उदाहरण बताया है। जबकि बीजेपी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती थी, लेकिन जो हुआ वह उल्टा और वे सभी मतदाता मुस्लिम और अन्य मतदाता इकट्ठे हो गए जो भाजपा की नफरत की विचारधारा का विरोध करते थे। वे सभी एकजुट होकर तृणमूल कांग्रेस के पीछे हो लिए ताकि भाजपा की जीत के मौके को धूल चटाई जा सके। 

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Bengal Poll Outcome is a Rejection of BJP’s Communalism

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