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भारत का दूसरा चेहरा: ना जान की कीमत, ना विचारों की आज़ादी

यह एक ऐसा समय है जब हम आजादी के अर्थ पर सवाल करना हैं, जब सत्तारूढ़ शासन के हाथों पर निर्दोषों का खून है, जहां नफरत और भीड़ के हमले नियमित हो रहा है।

मीडिया, जिस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, दक्षिणपंथी सरकार के हाथों पूर्णतः कुचले जाने की कगार पर है। केरल में आयी बाढ़ के चलते मचे आतंक के बारे में काफी देरी से संज्ञान देनेवाला मीडिया पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद तुरंत ही बिना किसी आलोचना के उन की वाहवाही करने में जूट गया। जब की असली शोक मनाने की वजह है लोकतंत्र की दुर्गति, जो हालही में एक बार फिर नजर आयी जब छात्र नेता उमर खलिद पर स्वतंत्रता दिन से दो दिन पहले जानलेवा हमला किया गया। तब सवाल उठता है कि ये कैसी स्वतंत्रता है जिस में विचारों की आज़ादी की कीमत जान से भी चुकानी पड सकती है?

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