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भारत में रोज़गार की दशा क्या है?

ऑक्सफ़ैम इंडिया की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में महिलाओं के रोज़गार की बात करें तो उनके लिए रोज़गार का परिदृश्य, और उसके लिए स्थितियाँ और भी ज़्यादा धुंधली हैं।
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भारत में रोज़गार की दशा (द स्टेट ऑफ़ एम्प्लॉयमेंट इन इंडिया), पर ऑक्सफ़ैम इंडिया द्वारा देश में, विशेष रूप से लिंग आधारित रोज़गार की स्थिति का विश्लेषण करने वाली एक रिपोर्ट 28 मार्च को प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, दिल्ली में जारी की गई थी। जबकि देश में रोज़गार और बेरोज़गारी की स्थिति सामान्य तौर पर गंभीर है, महिलाओं का रोज़गार और भी बदतर है - दोनों सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से और सरकार की नीतियों के कारण भी, जिसे यह रिपोर्ट नोट करती है। रिपोर्ट में आठ अध्याय हैं जो कि देश में रोज़गार के विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं।

रिपोर्ट के कुछ मुख्य अंश इस प्रकार हैं:

समान काम करने के लिए महिलाओं को औसत रूप से उसी काम के लिए योग्य पुरुष श्रमिकों की तुलना में 34 प्रतिशत कम भुगतान किया जाता है। एनएसएसओ (2011-2012) के अनुमानों के आधार पर मामूली, नियमित वेतन पाने वाली महिलाओं को, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष श्रमिकों की तुलना में औसतन 105 रुपये और 123 रुपये कम भुगतान किया जाता है; इस दौरान शहरी और ग्रामीण श्रमिकों के लिए 72 रुपये और 47 रुपये का भुगतान करने के आंकड़ों का अनुमान लगाया गया है।

2015 में, 92 प्रतिशत महिलाएँ और 82 प्रतिशत पुरुष 10,000 से कम की मासिक मज़दूरी कमा रहे थे, जो कि सातवें केंद्रीय वेतन आयोग (2013) की सिफ़ारिश के अनुसार प्रति माह 18,000 रुपये से काफ़ी कम थी।

शहरी महिलाओं का काम सेक्टर केंद्रित है-10 उद्योग महिला रोज़गार का आधा हिस्सा बनाते हैं; शिक्षा क्षेत्र में 7 में एक से अधिक शहरी महिला श्रमिकों का हिस्सा बनाता है।

ग्रामीण श्रम बाज़ारों को लिंग, जाति और वर्ग की पहचान द्वारा दृढ़ता से संरचित और विनियमित किया जाता है। ग्रामीण भारत में जाति के आधार पर पारंपरिक व्यवसाय आज भी जारी हैं; जाति के आधार पर लोगों की उपज और बाज़ार की भागीदारी के लिए क़ीमतों के संदर्भ में भेदभाव मौजूद है।

मोदी सरकार नई नौकरियाँ पैदा करने में विफ़ल रही है

जैसा कि ऑक्सफ़ैम इंडिया की दिया दत्ता लिखती हैं, “2014 में अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हर साल अतिरिक्त 1 करोड़ नौकरियों के निर्माण के महत्वाकांक्षी लक्ष्य का वादा किया था। वास्तव में, यह लाखों युवा जो पहली बार वोट करने वाले थे उनको आकर्षित करने वाला था, और शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उनसे पहली बार वोट लेने की इच्छा थी, क्योंकि उन्होंने एक उभरते भारत की आकांक्षाओं की तस्वीर पेश की थी।क्या वादा किए गए रोज़गार पैदा हुए? नहीं!

इस रिपोर्ट के अनुसार वास्तविकता यह है कि नई नौकरियों का पैदा होना तो दूर की बात है, मोदी सरकार ने कपड़ा, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों जैसे श्रम आधारित क्षेत्रों की उपेक्षा करके रोज़गार छीन लिए हैं। जैसा कि दत्ता ने कहा है, विमुद्रीकरण (नोटबंदी)  और जीएसटी ने "असंगठित फ़र्मों की बड़ी हिस्सेदारी को नुकसान पहुँचाने वाले क्षेत्रों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।" जैसा कि सुबोध वर्मा न्यूज़क्लिक में लिखते हैं, "विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के लगभग दो साल बाद और जीएसटी के डेढ़ साल बाद, क्रेडिट का प्रवाह मुश्किल से पूर्व नोटबंदी के स्तर पर वापस आया है। सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिए कुल ऋण प्रवाह सितंबर 2018 में 2016 के 3,638 अरब रुपये की तुलना में सितंबर में 3,630 अरब रह गया था। मध्यम उद्यमों के लिए सितंबर 2018 में क्रेडिट फ़्लो 1,053 अरब था, जो सितंबर 2016 में 1,107 अरब रुपये से कम है। "

यह रिपोर्ट सही रूप से नोट करती है कि एक बढ़ती अर्थव्यवस्था और बढ़ती श्रम शक्ति के बावजूद, रोज़गार सृजन की प्रक्रिया बेहद सुस्त रही है। आय और धन के वितरण के परिणाम श्रम बाज़ार की गतिविधियों के साथ दृढ़ता से जुड़े हुए हैं। संगठित क्षेत्र में, विशेषकर निजी क्षेत्र में अनौपचारिक श्रमिकों के रोज़गार में तीव्र वृद्धि हुई है। इस सदी की शुरुआत में काम पर रखे जा रहे सभी श्रमिकों की संख्या अनुबंध के आधार पर रखे जा रहे श्रमिकों के अनुपात में 20 प्रतिशत से कम थी। लेकिन एक दशक के भीतर यह बढ़कर एक तिहाई से अधिक हो गई। अनुबंध आधारित मज़दूर न केवल कार्यकाल की असुरक्षा से पीड़ित हैं, बल्कि उनके लिए कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ का भी प्रावधान नहीं है। सार्वजनिक उद्यम विभाग द्वारा लाई गई वार्षिक सार्वजनिक उद्यम सर्वेक्षण (पीईएस) श्रृंखला के अनुसार, मोदी सरकार के दौरान आकस्मिक और अनुबंध श्रमिकों की संख्या बढ़कर 3.8 लाख हो गई है। इससे कर्मचारियों का अनुपात 2014 में 36 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 53 प्रतिशत हो गया है।

इसलिए जब वे 2014 में उनके द्वारा किए गए सबसे लोकप्रिय वादे को साकार करने में विफ़ल रहे हैं, तो सरकार देश के नागरिकों को गुमराह करने के लिए अपने स्तर पर पूरी कोशिश कर रही है। जैसा कि वर्मा ने कहा, “मोदी सरकार वादा किए गए रोज़गार बनाने में विफ़ल रही है। दरअसल, सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट बताती है कि 2018 में ही एक करोड़ से ज़्यादा नौकरियाँ चली गई थीं।

मोदी सरकार ने इस कठोर वास्तविकता पर नज़र डालने से भी परहेज़ किया है, और नौकरियों पर डेटा को दफ़नाने की अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की है क्योंकि लीक हुए नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट का मामला अभी भी आधिकारिक तौर पर प्रकाशित नहीं हुआ है।

इसने EPFO नामांकन या पर्यटन या परिवहन क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर हर किसी को भ्रमित करने की कोशिश की है। लेकिन वास्तविकता उन सभी को मालूम है जो नौकरी की तलाश में बाज़ार में भटक रहे हैं।

नवीनतम सीएमआईई आंकड़ों से पता चलता है कि फ़रवरी 2019 में भारत में बेरोज़गारी दर 8.2 प्रतिशत थी। लीक हुई एनएसएसओ की रिपोर्ट से पता चला था कि 2017-18 में बेरोज़गारी 45 साल के उच्च स्तर पर पहुँच गयी है। जैसा कि दत्ता लिखती हैं, "भारत श्रम और रोज़गार के मुद्दों पर कहाँ खड़ा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत लंबे समय तक उच्च आर्थिक विकास का साक्षी होने के बावजूद, इस वृद्धि का नौकरियों में वृद्धि पर कोई असर नहीं पड़ा है।" जीडीपी उनकी उपलब्धि के रूप में है, लेकिन देश में बेरोज़गारी में वृद्धि को वे स्वीकार करने से इनकार कर रहे हैं। जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया है, जब जीडीपी कुल श्रम क्षतिपूर्ति (मज़दूरी)से अधिक तेज़ी से बढ़ रही है, यह आय असमानता बढ़ाने का संकेत है। अगर यह सामान्य रूप से रोज़गार की कहानी है, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, तो देश में महिलाओं के रोज़गार की कहानी बहुत ही निराशाजनक है।

रिपोर्ट रोज़गार के मामले में वर्ग आधारित भेदभाव को रेखांकित करती है। यह विभिन्न लिंगों, जातियों और क्षेत्रों (ग्रामीण और शहरी) के रोज़गार के बीच मौजूदा अंतराल पर विचार करती है। रिपोर्ट में कहा गया है, भारत में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी दुनिया में सबसे कम है। भारत में आधी आबादी महिलाओं की है, लेकिन एक चौथाई से भी कम श्रम शक्ति में शामिल है।

ऑक्सफ़ैम इंडिया के सीईओ, अमिताभ बेहार के अनुसार, "रोज़गार सृजन और लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने की खोखली बयानबाज़ी करने के बावजूद, वास्तविकता ज़मीन पर कुछ और ही है।"

रिपोर्ट जारी करते हुए उन्होंने कहा, “रिपोर्ट में आर्थिक विकास की कहानी में महिलाओं को छोड़ दिया गया है। यह दर्शाता है कि ग्रामीण नौकरियों में गिरावट, शहरी क्षेत्रों में बदलाव, असमान वेतन, अवैतनिक देखभाल, कार्य का बोझ और प्रतिगामी सामाजिक मानदंडों के निरंतर प्रसार के कारण महिलाओं की भागीदारी कम है। और यह ख़राब नीतिगत विकल्पों और सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी ढांचे में निवेश की कमी का परिणाम भी है।

यहाँ सवाल यह है कि क्या कोई मोदी सरकार, जो कि निजी खिलाड़ियों (पूँजीपतियों) का पालतू है, उससे उम्मीद कर सकता है कि वह रोज़गार सृजन की बयानबाज़ी से परे रहेगी? उपलब्ध डेटा, जैसा कि पहले बताया गया है, यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि जो अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, वे इस पर ध्यान नहीं देंगे।ऑक्सफ़ैम इंडिया ने रोज़गार में असमानता की खाई को पाटने के लिए निम्नलिखित की सिफ़ारिशें की हैं:

अधिक रोज़गार सृजित करने के लिए श्रम गहन क्षेत्रों की ओर विकास पर ध्यान केंद्रित करना।

नौकरियों में वृद्धि समावेशी होनी चाहिए और नई नौकरियों को सामाजिक सुरक्षा लाभ और व्यवस्थित करने के अधिकार सहित बेहतर काम के वातावरण के साथ उन्हें सभ्य और सुरक्षित भी होना चाहिए।

उत्पादकता में सुधार के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा में अत्यधिक उच्च निवेश किया जाए। ये दो ऐसे क्षेत्र भी हैं जो भविष्य में बड़े रोज़गार सृजनकर्ता हो सकते हैं।

पड़ोसी और वैश्विक प्रतिस्पर्धियों को ध्यान में रखते हुए बेहतर और प्रासंगिक कौशल अवसरों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

सरकारों को भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और असमानता और बेरोज़गारी के अन्य कारणों को नियंत्रित करने की आवश्यकता है जैसे कि क्रोनी पूंजीवाद।निस्संदेह, कॉर्पोरेट कर में छूट की दौड़ को कम करने के लिए प्रगतिशील कराधान पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इन उपायों से उत्पन्न अतिरिक्त राजस्व को सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं में निवेश किया जा सकता है।

 

 

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