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बिहार चुनाव: क्रिकेट मैच और चाय पर चर्चा...और पांच बड़ी परेशानियां

ग्राउंड रिपोर्ट: पहली बड़ी परेशानी कि नीतीश सरकार की नल जल योजना पूरी तरह से असफल रही है। दूसरी बड़ी परेशानी कर्ज लेने की है।...तीसरी, चौथी...। वाल्मीकि नगर में मतदान के दौरान हमने जानी लोगों की राय।
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"देखिए भैया पढ़ाई लिखाई, स्कूल कॉलेज ऐसा बनना चाहिए कि बच्चा सब घुसे तो कुछ बन कर निकले। उसे नौकरी मिलने की गारंटी हो। हम पूरी जिंदगी हाड़ तोड़ मेहनत करके अपने बच्चे सबको पढ़ाते हैं। लेकिन देखते हैं कि कई लोगों को अच्छी पढ़ाई लिखाई के बाद भी नौकरी नहीं मिली तो उदासी होती है। सोचते हैं कि आगे जाकर इसे हमारे वेल्डिंग का दुकान ही संभालना है तो अभी से क्यों ना संभाले। इसलिए बच्चे सबको दुकान पर भी बैठाते हैं और पढ़ने तो भेजते हैं।” 

यह राजकुमार कुशवाहा की राय है। तकरीबन 35 साल के राजकुमार कुशवाहा वाल्मीकि नगर विधानसभा के एक वोटर है। चाय की दुकान पर एक दूसरे के साथ चुनावी चर्चा में लगे हुए राजकुमार अपनी बातों को कुछ इसी अंदाज में रख रहे थे। स्कूल कॉलेज पर अपनी बात बताते हुए उन्होंने कहा कि हम ऐसा इसलिए सोचते हैं कि हमने ज्यादा पढ़ाई नहीं की है। हम मेहनत मजदूरी कर सकते हैं। मेहनत मजदूरी करके कमा सकते हैं। लेकिन हमें यह नहीं पता कि कौन सी पढ़ाई पढ़ कर आगे बढ़ा जाता है। नौकरी कैसे मिलती है। यह सारी जिम्मेदारियां सरकार की होनी चाहिए। हम पेट काटकर पढ़ाएं और लड़का भटक जाए यह बात ठीक नहीं।

राजकुमार कुशवाहा को जब मैंने अपना परिचय देते हुए बताया कि मैं एक पत्रकार हूं। आप लोगों से बातचीत करना चाहता हूं। राजकुमार सहित दो-चार लोग जो और बैठे थे। सबके सोचने, अपनी बात रखने और कहने का तरीका एकदम से बदल गया। वो कहने लगे कि लड़ाई कांटे की है। देखिए कौन हारता और कौन जीतता है।

मैंने कहा पत्रकार समझते ही बातचीत हार जीत पर कैसे आ जाती है। वहां के लोगों ने कहा आप लोग यही पूछने तो आते हैं। मैं पत्रकारिता के हालात पर मुस्कुराया और आगे पूछा कि आप सब यहां की पांच परेशानियां बताइए। उन्होंने बताया- पहली बड़ी परेशानी कि नीतीश सरकार की नल जल योजना पूरी तरह से असफल रही है। किसी के घर में पानी नहीं आता है। सब अपने घरों में जमीन से निकाला जा रहा खारा पानी ही पीते है। नल जल योजना के नाम से टंकी तो बनी हुई है। लेकिन इसका रखरखाव कोई नहीं करता। पूरी तरह से गंदगी से भरी पड़ी है। कोई भी एक सरकारी कर्मचारी इस नल जल टंकी के आस पास नहीं रहता। यहां पर कम से कम 2 लोगों को रोजगार मिल सकता है। और नल जल योजना अच्छे से काम भी कर सकती है। लेकिन सरकार इस पर सोचे तब ना।

दूसरी बड़ी परेशानी कर्ज लेने की है। सरकार कई तरह की ऐसी योजनाएं बनाती है जो सस्ते दर पर बैंकों से कर्ज लेने से जुड़े होते हैं। सूक्ष्म और कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने के लिए होते हैं। इन योजनाओं के तहत अगर एक सामान्य व्यक्ति बैंक में कर्ज लेने जाता है तो बहुत मुश्किल से किसी को कर्ज मिल पाता है। सौ में से 95 बार कर्ज तो नहीं मिलता है।

मैंने कहा अगर यह हालत है तो कई सारे लोगों को एक साथ मिलकर अपने मुखिया के साथ बैंक जाकर अपनी बात कहनी चाहिए, ज़रूरत हो तो धरना-प्रदर्शन भी करना चाहिए। इस पर लोगों ने कहा कि इस बारे में सोचा नहीं है। आगे सोचेंगे। आपकी राय अच्छी है। लेकिन फिर भी लड़ने के लिए कोई तैयार ही नहीं होता है। और बैंक वाले हैं कि ऐसे ऐसे डॉक्यूमेंट मांगते हैं जो हमारे पास है ही नहीं।

तीसरी बड़ी परेशानी खेती किसानी की है। डीजल के दाम बढ़ते जा रहे हैं और गन्ना की कीमत घटती जा रही है। अगर कांटे पर भेजिए तो 290 रुपये क्विंटल बिकता है। मिल के गेट पर भेजिए तो 320 रुपये क्विंटल बिकता है। मिल के गेट तक ले जाने की कूवत हममें से कइयों के नहीं होती है। क्योंकि खर्चा बहुत अधिक पड़ता है। अधिकतर लोग कांटे पर ही बेच देते हैं। बाकी उत्तर प्रदेश में गन्ने का रेट यहां से हमेशा ज्यादा रहता है।

चौथी बड़ी परेशानी स्कूल की है। मिड डे मिल में जमकर लूट होती है। मास्टर साहब से लेकर क्लर्क तक अपना घर भरते हैं। एक स्कूल में 400 विद्यार्थी हैं। 400 विद्यार्थी के लिए केवल चार मास्टर हैं। तो आप ही सोचिए किस तरह से पढ़ाई होगी।

पांचवीं परेशानी यह है कि कुछ भी समझ में नहीं आता कि किया क्या जाए? हमारी परेशानियों का निजात कैसे मिलेगा? हम तो अब यही सोचते हैं जो होता है उसे होने दिया जाए और जो हम कर रहे हैं वह करते रहें। बाकी ऊपर वाले की मर्जी।

वहीं पर पशुपालन विभाग के एक सरकारी कर्मचारी अखबार पढ़ रहे थे। कर्मचारी बहुत मुखर होकर बात कर रहे थे। लेकिन पत्रकार समझते ही पहले ही बोल दिए मैं कुछ नहीं बोलूंगा। मेरी सरकारी नौकरी है। मैंने कहा ठीक है। आपसे चुनाव पर नहीं अखबार पर बात होगी। मैंने पूछा यहां कौन सा अखबार आता है। उन्होंने कहा दो अखबार आता है। दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर। उन्होंने अपना हाथ दैनिक जागरण के संपादकीय पन्ने पर रखा हुआ था। मैंने पूछा आप संपादकीय पढ़ते हैं? उन्होंने कहा नहीं संपादकीय यहां नहीं आता है। उन्हें लगा कि मैं किसी संपादकीय नाम के अखबार की बात कर रहा हूं। वह सरकार के पशुपालन विभाग के कर्मचारी थे। उनके हाथ में अखबार था। उनका कहना था कि वह रोज अखबार पढ़ते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि संपादकीय किसे कहते हैं? अगर कोई मजदूर होता तो मेरे लिए हैरानी की बात नहीं होती। उन्होंने कहा कि उनकी ज्यादातर दिलचस्पी लोकल खबरों में होती है। देश दुनिया मैं उनकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं। वह बताने में हिचकिचा रहे थे। मैं उनके डर को देखकर हैरान था कि एक लोकतंत्र में लोग एक अदने से पत्रकार से जब इतना डर सकते हैं तब तो अभी भी कई तरह के आलाकमान से उन्हें सवाल पूछने की आदत डालने में बहुत लंबा समय लगेगा?

उसके बाद बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा। एक गांव से दूसरे गांव की सीमा खत्म हुई। उबास दोपहर शाम की स्वागत की तरफ बढ़ने लगी। तभी अचानक मोटरसाइकिल पर बैठे दो नौजवानों से मुलाकात हुई। दिलचस्प यह रहा है कि एक का नाम जगदीश कुमार था और दूसरे का नाम मोहम्मद साद अली था। उन दोनों ने कहा कि वे पड़ोसी हैं और लंगोटिया यार भी। लेकिन वोट अलग अलग पार्टी को देंगे। जगदीश कुमार नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा-जेडीयू के प्रत्याशी को वोट देंगे और मोहम्मद साद भाजपा और नरेंद्र मोदी की वजह से कांग्रेस-राजद के प्रत्याशी को वोट देंगे। दोनों में हजार रुपये की शर्त भी लगी है। हारने वाला जीतने वालों को हजार रुपया देगा। मैंने जगदीश कुमार से पूछा कि बताइए भाजपा तो मुस्लिमों के खिलाफ बात करती है फिर भी आप वोट भाजपा को देंगे। जगदीश कुमार ने कहा कि राजनीति बहुत खराब चीज है। यह सब तो करना ही पड़ता है। बिना इसके कोई कैसे जीतेगा। तो मैंने पूछा कि दंगे की वजह से लोग मर जाते हैं क्या यह सब करना ठीक है। जगदीश कुमार ने कहा कि मैं इतना नहीं जानता हूं लेकिन वोट भाजपा को दूंगा। तय है। जगदीश कुमार की आवाज में मुखरता थी। अपनी राय को लेकर छुपी हुई दबंगई थी। लेकिन वहीं पर मोहम्मद साद ने कहा कि बदलाव होना चाहिए। यह मत समझिएगा कि हम मुस्लिम होने की वजह से कांग्रेस को सपोर्ट कर रहे हैं। नीतीश ने बढ़िया काम नहीं किया। अगर हम उत्तर प्रदेश में रहते तो योगी को सपोर्ट करते। योगी अच्छा काम कर रहे हैं। कोरोना के समय नीतीश ने लेबर को स्वीकार नहीं किया लेकिन योगी ने अच्छा काम किया। मोहम्मद साद की आवाज में दबाव था। एक तरह का आग्रह था कि अपने साथ चले रहे हिंदू दोस्त के सामने यह साबित किया जाए कि हम सोच समझकर वोट देते हैं। ऐसा नहीं कि चाहें कुछ भी हो मोदी को ही वोट दिया जाए।

तभी अचानक बहुत दूर से माइक पर आवाज सुनाई दी कि चुनाव और क्रिकेट मैच में समानता है। मैंने अपनी गाड़ी उधर घुमा ली जिधर से आवाज आ रही थी। वहां पहुंचा कुछ लोगों को इकट्ठा किया। उनकी और अपने बीच की बातचीत को फेसबुक लाइव के जरिए आप तक पहुंचाया। इस बातचीत में दो तीन बिंदु गौर करने वाले मिले। पहला यह कि वाल्मीकि नगर विधानसभा में 4 ब्लॉक हैं। 4 ब्लॉक में न ढंग का स्कूल है और न ही डिग्री कॉलेज है। यहां के परिवार वालों ने शिक्षा की अहमियत को तब पहचाना जब वह बिहार छोड़कर दूसरी जगह कमाने गए। वहां से आए और अपने घर के बच्चों को बाहर पढ़ने के लिए भेजा। अब हालत यह है यहां के बच्चे पढ़ने और कमाने खाने के लिए घर से दूर रहकर ही अपनी जिंदगी संवारते और घर की जिम्मेदारियों को निभाते हैं। इतना ही जर्जर हाल अस्पतालों का भी है। सरकारी अस्पताल की दयनीय स्थिति उसे सरकारी अस्पताल कम मुर्गी पालन की इमारत जरूर बताती है। सबसे चौंकाने वाला जवाब मीडिया की दशा को लेकर था। लोगों ने खुलकर कहा है कि अगर मीडिया न हो, पत्रकार बंधु न हों तो सरकार आम जनता को लूट कर खा जाएगी। मीडिया की अहमियत बहुत बड़ी है। सरकार के विभाग और अधिकारी जितनी मुस्तैदी के साथ चुनाव के समय काम करते हैं उतनी मुस्तैदी के साथ 5 साल काम करें तो यह देश बहुत आगे बढ़ेगा।

शाम ढल चुकी थी। अंधेरा गहराने लगा था। तीन किलोमीटर की सुनसान सड़क पर मैंने भारत सरकार और बिहार सरकार लिखे हुए नेम प्लेट टांग कर घूमती हुई 5 गाड़ियों को देखा। और मैंने भी सोचा कि इन दूर-दराज के गांव में अगर लोगों की परेशानियां सुनने के लिए यह गाड़ियां हमेशा चलती दिखें तो लोगों को भी लगेगा कि सरकार नाम की चीज केवल डराने के लिए नहीं होती है बल्कि मदद करने के लिए हमेशा उनके आसपास तैनात रहती है।

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