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बिहार चुनाव: दरभंगा के इन गांवों में जन्म लेने के पहले मर जाते हैं बच्चे

भयावह गरीबी से पीड़ित इस क्षेत्र की महिलाएं कई सालों से अनचाहे गर्भपात की समस्या का सामना कर रही हैं।
बिहार चुनाव

दरभंगा: बिहार के मुख्यमंत्री द्वारा स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किए जाने के दावों की सोशल मीडिया पर खूब चर्चा है। हालांकि दरभंगा जिले की गौरा बौरम विधानसभा सीट के गावों में मैदान पर स्थिति कुछ अलग ही है। यह स्थिति स्वास्थ्य के खोखले दावों को उजागर करती है। यहां पर्याप्त पोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के चलते ज़्यादातर महिलाएं इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि वे स्वस्थ्य बच्चों को जन्म देने की भी स्थिति में नहीं हैं। दरभंगा जिले में 3 नवंबर से 7 नवंबर की बीच मतदान होना है।

भयावह गरीबी, अशिक्षा के साथ जागरूकता की कमी और अपनी बसाहट की दुनिया से बाहर संपर्क ना रख सकने वाले मुसहर समुदाय की दलित महिलाओं का कुछ सालों से लगातार गर्भ गिर रहा है। उनका गर्भ शुरुआती तीन महीनों, बीच के तीन महीनों और कई बार आखिरी के तीन महीनों में भी गिर जाता है। कम आय वाली महिलाओं और दूध पिलाने वाली महिलाओं की जरूरी पोषक खुराक तक पहुंच नहीं है। अच्छे फूड सप्लीमेंट तो यहां बस दूर का सपना हैं।

ग्रामीण वंचित समुदायों के साथ काम करने वाले "मिथिला ग्राम विकास परिषद (MGVP)" नाम के NGO से संबंधित नंदकिशोर पांडे आरोप लगाते हुए कहते हैं, "कोसी नदी घाटी के यह गांव, राज्य द्वारा नजरंदाज किए जाने का बिलकुल सटीक उदाहरण हैं।"

लेकिन दरभंगा के सिविल सर्जन डॉक्टर संजीव कुमार सिन्हा किसी भी तरह के संकट से वाकिफ नहीं हैं। उन्होंने न्यूज़क्लिक से कहा, "मुझे इस तरह की कोई ऐसी जानकारी नहीं है। अगर ऐसा हो रहा है तो संबंधित अधिकारियों द्वारा यह चीज मेरे ध्यान में लानी थी।"

सामाजिक निष्कासन के चलते बनी यह बसाहटें, जहां मुसहर समुदाय झुग्गी-झोपड़ियां बनाकर रहता है, वे कोसी नदी के किनारे स्थित हैं। कोसी को अपनी बाढ़ के चलते "बिहार का दुख" भी कहा जाता है। यह क्षेत्र साल में करीब 6 महीने पानी से भरा होता है, इसके चलते जल संक्रमण यहां एक गंभीर मुद्दा है।

इस क्षेत्र में आय का मुख्य साधन पशुपालन आधारित अर्थव्यवस्था रही है। लेकिन 2010 की बाढ़ के बाद से बड़ी संख्या में किसान भूमिहीन हो चुके हैं। इससे बड़ी संख्या में लोगों का प्रवास हुआ है, जो अब पंजाब और हरियाणा के खेतों में काम करते हैं।

अपने परिवारों से दूर रहते हुए कड़ी मेहनत के बावजूद यह लोग अपने परिवार की बहुत ज्यादा आर्थिक मदद नहीं कर पाते। क्योंकि इनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय ज़मींदारों का कर्ज चुकाने में चला जाता है, जिनसे यह अपनी यात्रा के लिए कर्ज लेते हैं।

गर्भवती महिलाएं घरों पर पर्याप्त मात्रा में आराम नहीं कर पातीं, क्योंकि उन्हें अपने परिवार की छोटी सी आय को सहारा देना होता है। जबकि उन्हें शुरुआती तीन महीनों में ऐसा करने की सलाह दी जाती है। घरेलू कामों के साथ-साथ कड़ी मेहनत वाले श्रम और जरूरी पोषण के साथ-साथ स्वस्थ्य खाना उपलब्ध ना होने के चलते इन गांवों में बड़ी संख्या में मृत प्रसव की घटनाएं होती हैं।

गरीबी और प्रशासनिक अंधेरगर्दी की कहानी

सिरसिया गांव की रहने वाली 32 साल की लीलादेवी को 6 बार मृत प्रसव हुआ है। यह मृत प्रसव उन्हें अपने गर्भवती होने के 4 से 8 महीने के भीतर हुए हैं। अपनी शादी के 12 साल बाद भी वे एक जिंदा बच्चे को जन्म नहीं दे पाई हैं।


 वे कहती हैं, "मैंने एक डॉक्टर से परामर्श लिया और 9,500 रुपये इलाज पर खर्च किए। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अब मेरे पास आगे इलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं।"

उनके पति छब्बू सदा हरियाणा में कृषि मजदूर के तौर पर काम करते हैं, लेकिन वे जो पैसा घर भेजते हैं, वह ज़मींदारों के पास फंसे कर्ज़ की मासिक किस्त के तौर पर चला जाता है।

लीला देवी कहती हैं, "जब वे हरियाणा जा रहे थे, तो उन्होंने यात्रा में लगने वाले पैसे के लिए कर्ज़ लिया था। अब वे अपना कर्ज चुका रहे हैं। इसलिए अतिरिक्त पैसे को भेजना उनके लिए संभव नहीं है। हमारे पास आय का दूसरा साधन भी नहीं है।"

जब हमने उनसे पूछा कि क्या उनके पास PM-JAY (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना) कार्ड है, तो लीला देवी ने बताया कि उन्हें हाल ही में यह कार्ड मिला है। लेकिन वो इसका उपयोग नहीं कर सकतीं। क्योंकि उनके पास दरभंगा जाने के लिए पैसे नहीं हैं। PAJAY में नेशनल हेल्थ अथॉरिटी हर परिवार को 5 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा देती है।

वह कहती हैं, "जब मुझे मृत प्रसव हुए, तब मेरे पास कार्ड नहीं था। मुझे हाल ही में कार्ड मिला है। लेकिन मेरे पास इलाज़ के खर्च के अलावा यात्रा करने के लिए पैसे भी नहीं हैं।"

अपनी खुराक के बारे में बात करते हुए लीला देवी कहती हैं, "हम वही खाते हैं, जो गरीब लोग खाते हैं- चावल और खेसरी दाल। हमें यह मुफ़्त में मिलता है (PDS के तहत)। हम हरी सब्जियों, दूध और दूसरे पोषक खाद्यान्नों की ऊंची कीमत के चलते उनका खर्च नहीं उठा सकते हैं। कई बार हम नमक और मिर्च की चटनी के साथ रोटी खा लेते हैं। यही हमारा खाना है।"

निचले हाथों का लकवा लगाने वाले न्यूरोटॉक्सिन की मौजूदगी संबंधी रिपोर्टों के बाद, भारत सरकार खेसरी दाल के वितरण पर 1961 से प्रतिबंध लगा चुकी है। लेकिन यह अब भी बड़ी मात्रा में गरीबों द्वारा उपयोग की जाती है। क्योंकि इसकी कीमत काफी कम होती है। लीला आरोप लगाती है कि उसे और उसके जैसे दूसरे लोगों को आशा कार्यकर्ताओं (ASHA) से किसी भी तरह की स्वास्थ्य मदद नहीं मिलती।

केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालयों द्वारा इन आशा कार्यकर्ताओं की नियुक्ति राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के एक हिस्से के तौर पर हुई है। इन्हें प्राथमिक उपचार के लिए जरूरी प्रशिक्षण और ड्रग किट उपलब्ध कराया जाता है। आशा कार्यकर्ता, उनके गांवों में सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं में सामुदायिक भागीदारी का आधार होते हैं।

लीला देवी कहती हैं, "जब मुझे उनकी सबसे ज़्यादा जरूरत थी, तब कोई भी आशा कार्यकर्ता मुझसे मिलने नहीं आई।"

राम कुमार सदा की पत्नी मुंतरनी देवी सुनने की क्षमता खो चुकी हैं। चार बच्चों की मां जब अनचाहे गर्भापात पर बात करती हैं, तो उनके आंसू आ जाते हैं। अपनी शादी के कई साल बाद, पहले बच्चे के जन्म से पहले, उन्हें 6 बार गर्भपात और मृत प्रसव हो चुका था।

वे कहती हैं, "स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और वित्तीय तनाव के चहते पहले भ्रूणपात के बाद, मुझे गर्भपात के बाद दी जाने वाली सुविधाएं नहीं दी गईं। इन सुविधाओं में गर्भपात से पैदा हुई जटिलताओं का इलाज किया जाता है। इसीलिए मुझे अगले 5 गर्भपात हुए।"

उसी गांव की रहने वाली रुकणी देवी ने वह वज़हें बताईं, जिन्हें वह उनके क्षेत्र में मृत प्रसव और गर्भपात की वज़ह मानती हैं।

वे कहती हैं, "हम बहुत गरीबी में रहते हैं और हमारे पास पोषक खाने तक पहुंच नहीं है। जब हमारे लिए जिंदा रहना ही एक चुनौती है, तो अच्छे खाने के बारे में सोचना भी विलासिता है। जब डॉक्टर बिस्तर पर आराम करने की सलाह देते हैं, तब हम अपने परिवारों को मदद करने के लिए खेतों में काम कर रहे होते हैं। हमारे पास स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल करने के लिए पैसा नहीं है। इसलिए गर्भ जिंदा नहीं रह पाता। हम खेसरी दाल पर जिंदा रहते हैं, जो सरकार से मुफ़्त मे मिलती हैं। सब्जियों की बढ़ती कीमत के चलते हम उनके खर्च का वहन नहीं कर सकते हैं।"

रुकणी देवी कहती हैं, "यहां रहने वाले लोग दैनिक मज़दूर हैं। हम तभी खाना खा पाते हैं, जब हमें कोई काम मिलता है। जब कोई काम नहीं होता, तो लोग भूखे रहने को मजबूर हो जाते हैं। जिस चावल की खेती पर हमने 10 से 12 हजार रुपये खर्च किए थे, वह भारी बारिश के चलते खराब हो गई। हममें से कुछ लोग बटिया में खेती करते हैं, लेकिन वह फ़सल भी खराब हो गई।"

रुकणी देवी ने बताया कि सरकारी अस्पतालों में भी इलाज़ लेना आसान नहीं है, क्योंकि दवाईयां तो बाहर से ही खरीदनी होती हैं।

वह आखिर में कहती हैं, "आसपास विशेषज्ञ डॉक्टरों वाला कोई बड़ा अस्पताल नहीं है। मामला बिगड़ने पर DMCH (दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल) ही आखिरी विकल्प होता है। लेकिन गहरे वित्तीय संकट और सड़कों व वाहनों जैसे संसाधनों की कमी के चलते वहां जाना हर किसी के बस की बात नहीं हो पाती है। हालांकि वहां इलाज़ मुफ़्त है, पर दवाईयों के अलावा हमें वहां डॉयग्नोस्टिक परीक्षण भी बाहर से करवाने होते हैं।"

दो बच्चों की मां मंजू देवी को पहले गर्भ के दौरान गर्भपात का शिकार होना पड़ा था। बाद में उन्होंने बच्चों को जन्म दिया, लेकिन बाद में बाढ़ के दौरान उनके दो बच्चों को ठंड औऱ बुखार (निमोनिया) की वज़ह से जान गंवानी पड़ी। उनके एक और बच्चे की तेज बुखार और कफ की वज़ह से बाद में मौत हो गई।

हमने उनसे पूछा कि जब उनके बच्चे बीमार थे, तब उन्होंने इलाज क्यों नहीं करवाया। तो उन्होंने कहा, "मेरे पास पैसे नहीं थे।" उनके पति पंजाब में खेतों में मज़दूर हैं, लेकिन जब उनके बच्चों की मौत हुई, तब उनके पास कोई काम नहीं था।

आरती की दो साल पहले शादी हुई थी। पिछले साल वह अपने पहले बच्चे का इंतज़ार कर रही थीं। लेकिन 6 महीने बाद ही उनका गर्भपात हो गया। वह कहती हैं, "जब मैं गर्भवती हुई थी, तो मैंने कीरतपुर के PHC में डॉक्टर से सलाह ली थी। उनकी निगरानी में होने के बावजूद, मुझे गर्भपात हो गया। उन्होंने अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश की, लेकिन वह असफल रहे, क्योंकि गर्भ के बचने के लिए मैं काफ़ी कमजोर थीं।"

वो कहती हैं, "उस वक़्त मेरे पति बिना रोज़गार के घर पर ही थे। हमारे पास इतना पैसा भी नहीं था कि हम किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञ से परामर्श के बारे में सोच भी सकते थे।"

उनका PHC में इलाज़ हुआ, लेकिन उन्हें दवाईयों का खर्च वहन करना पड़ा। वो कहती हैं, "हमें जरूरी दवाओं को बाहर से खरीदना पड़ा, क्योंकि अस्पताल में वे दवाईयां खत्म हो गई थीं। " अब उनके पति काम करने के लिए पंजाब जा चुके हैं।

डॉक्टरों की कमी और बेकार इंफ्रास्ट्रक्चर

MGVP तारवाड़ा गांव में एक डिस्पेंसरी चलाता है, जहां गरीब लोगों को मुफ़्त में स्वास्थ्य सुविधाएं और दवाएं मिलती हैं। MGVP के पांडे बताते हैं कि 2010 की बाढ़ में इन गांव वालों की जिंदगी बदल गई। हिमालय की पहाड़ी श्रंखलाओं से आए बड़ी मात्रा के मलबे-कीचड़ और बांध-बैराज जैसे हस्तक्षेपों ने मिलकर बहुत नुकसान किया, जिससे बाढ़ ने इलाके में बहुत तबाही मचाई।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, "2010 की बाढ़ का खाद्यान्न, पोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ गंभीर संबंध है। आप जिन मामलों की बात कर रहे हैं, वह एक गांव तक सीमित नहीं हैं। इस इलाके में रहने वाले दलित समुदाय के 60 फ़ीसदी परिवारों में गर्भपात के दो से तीन मामले मिल जाएँगे। इसकी वज़ह महिलाओं में कुपोषण, भयावह गरीबी, अस्वच्छ रहवास स्थितियां, जागरुकता की कमी और खराब स्वास्थ्यतंत्र है।"

पांडे बताते हैं कि इन मामलों की सूचना ना तो सरकारी रिकॉर्ड्स में दी जाती है, ना ही इन्हें मीडिया कवर करता है। जब हमने उनसे वंचित तबकों में कुपोषण दूर करने और स्वास्थ्य सुविआएं उपलब्ध करवाने वाले सरकारी प्रयासों के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि आंगनबाड़ी केंद्र और आशा कार्यकर्ताओं को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।"

वे कहते हैं, "ज़्यादातर गांवों में इनके प्रयास आधे मन से होते हैं या उन्हें सिर्फ रिकॉर्ड पूरा करने के लिए ही किया जाता है। यहां तक कि ANM (ऑक्सीलरी नर्सिंग कम मिडवाइफ), जो इन गांवों में वैक्सीनेशन और दूसरी स्वास्थ्य सुविधाएं देने जाती हैं, वे भी महिलाओं के कुपोषण, असामान्य रक्तचाप या दूसरी समस्याओं का ढंग से परीक्षण नहीं करतीं।"

कीरतपुर PHC के प्रभारी स्वास्थ्य अधिकारी डॉ ठाकुर प्रभाकर कुमार समस्या को मानते हैं और कहते हैं कि महिलाओं और बच्चों के लिए कुपोषण बड़ा हत्यारा है। ऊपर से इन गांवों में गर्भवती महिलाओं जो IFA (आयरन फोलिक एसिड) वाली गोलियां दी जाती हैं, उनका गलत जानकारी और जागरूकता की कमी की वज़ह से महिलाएं सेवन नहीं करतीं।

वे कहते हैं, "हम गलत जानकारियों को दूर करने और उनका सेवन करवाने की पूरी कोशिश करते हैं। अब महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा डॉक्टर द्वारा लिखी गई गोलियों का सेवन करता है, जिससे गर्भपात की संख्या में कमी आई है। लेकिन अब भी इन गांवों की 40 फ़ीसदी महिलाओं इन दवाईयों को नहीं लेतीं। जब वे कई समस्याओं के साथ अस्पताल आती हैं, तो हमें उनमें हीमोग्लोबिन मिलता है। जांच से पता चलता है कि उन्होंने उन्हें दी गईं गोलियां नहीं खाईं।"

भ्रूणमृत्यु और गर्भपात के पीछे की संभावित वज़ह बताते हुए वह कहते हैं, "ज़्यादातर महिलाओं में हीमोग्लोबिन कम पाया जाता है। वह कई तरह के संक्रमण के शिकार की संभावित होती हैं, क्योंकि वे पर्याप्त स्वच्छता नहीं रख पातीं। फिर सालाना बाढ़, जल संक्रमण भी समस्या में इज़ाफा करता है। यहां ज़मीन के पानी में बड़ी मात्रा में ऑयरन है, जो नुकसानदेह है।"

जब हमने उनसे जागरूकता कैंपेन के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया, "हम गर्भवती महिलाओं से नियमित परामर्श करते हैं। हम उन्हें 6 महीने तक रोज एक IFA टैबलेट लेने की अहमियत समझाते हैं। उन्हें स्वच्छता और चप्पल पहनने जैसे निरोधक उपायों के बारे में भी बताया जाता है। हम आशा कार्यकर्ताओं के साथ लगातार बैठकें करते हैं, ताकि उनके फीडबैक लिए जा सकें और स्थिति से निपटने के लिए समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी किए जा सकें। अगर हमें आशा कार्यकर्ताओं के क्षेत्र में IDA (लोहे की कमी से होने वाला एनीमिया) में वृद्धि मिलती है, तो हम उन्हें जवाबदेह भी बनाते हैं। समय के साथ स्थिति में सुधार होगा।"

जहां तक डॉक्टर्स और पैरामेडिक्स की कमी की बात है, तो वे कहते हैं कि 1996 में PHC अस्तित्व में आई थी, इसके लिए 6 डॉक्टर्स का प्रावधान है, लेकिन फिलहाल सिर्फ एक की ही तैनाती है।

वह कहते हैं, "दुर्भाग्य से मौजूदा दौर में सिर्फ एक ही MBBS डॉक्टर की तैनाती है, जो मैं खुद हूं। दो आयुष डॉक्टर्स हैं। पहले मेरे अलावा यहां तीन और डॉक्टर थे। लेकिन उनमें से दो रिटायर हो गए और एक कांट्रेक्ट पर था, जो बाद में नियमित होने के चलते दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया गया। इस साल जिन 6 डॉक्टर्स की नियुक्ति हुई, उनमें 3 डॉक्टर्स को पोस्टिंग के बाद उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए रिलीव कर दिया गया। बचे हुए तीन डॉक्टर्स ने कभी ज्वाइनिंग ही नहीं ली, शायद इलाके के खराब इंफ्रास्ट्रक्चर की वज़ह से ऐसा है।"

PHC में 6 बिस्तर हैं, जो साल भर भरे रहते हैं। जब इस लेख के लेखक ने PHC के इंडोर डिपार्टमेंट की यात्रा की, तो पाया कि हर बेड पर दो मरीज़ हैं।

डॉक्टर कहते हैं, "हर दिन OPD और अस्पताल में बड़ी संख्या में लोग आते हैं। इसलिए आप हर एक बेड पर दो मरीज़ों को देख रहे हैं। जिन लोगों को अस्पताल की जरूरत होती है, बेड की कमी के चलते हम उन्हें कभी मना नहीं करते। अपनी कम क्षमता में किसी तरह हमें उन्हें जगह देनी होती है।"

डॉक्टर बताते हैं कि आदर्श तौर पर एक लाख की आबादी के लिए एक PHC होनी चाहिए, लेकिन इस अस्पताल में पड़ोसी जिलों से भी लोग आते हैं, क्योंकि यह PHC, उनके जिले की सरकारी स्वास्थ्य सुविधा की तुलना में ज़्यादा पास में स्थित है।

PHC के प्रबंधक संजय कुमार पासवान कहते हैं कि इस PHC में 5 हेल्थ सब सेंटर (HSCs) हैं। इन सबमें कुल मिलाकर 38 ANMs की नियुक्तियां आवंटित हैं। लेकिन फिलहाल सिर्फ 12 ANM ही यहां काम कर रही हैं।

वह आगे कहते हैं इस क्षेत्र में दो अतिरिक्त PHCs- एक जमालपुर और दूसरी रासियारी गांव में हैं। हर एक में एक MBBS डॉक्टर होना चाहिए। पासवान कहते हैं, "लेकिन उन दोनों PHCs को आयुष डॉक्टर चला रहे हैं। दो MBBS डॉक्टर्स ने हाल ही में वहां नियुक्ति ली थी, लेकिन उच्च अध्ययन के लिए उन्हें नियुक्ति के दिन ही रिलीव कर दिया गया।"

दरभंगा के सिविल सर्जन सिन्हा ने भी स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की बात को माना। वे कहते हैं, "यह ऐसी चीज है, जिसमें सरकार को ध्यान देना चाहिए। हमारी संख्या काफी कम है। लेकिन हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि नियुक्तियां हमारे हाथ में नहीं हैं। सरकार को इस चीज पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए।"

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Bihar Elections: Children Die Before Birth in These Darbhanga Villages

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