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बिहार: ‘आत्मनिर्भरता’ के आह्वान से काफी समय पहले ही मुसहर महिलाओं ने खेती-बाड़ी को अपना लिया था 

देवी उन तमाम महिला किसानों में से एक हैं जिन्होंने सैकड़ों अन्य महिलाओं को खेती-किसानी को पूर्णकालिक पेशे के तौर पर अपनाने के लिए प्रेरित करने का काम किया है और उनके परिवारों की संपन्नता में अपना योगदान दिया है।
बिहार

परसा (पटना): चार बच्चों की माँ, 25 वर्षीय विद्या देवी को यदि कोई गृहिणी कहता है तो वे इसका पुरजोर विरोध करती हैं। वे खुद को महिला किसान के तौर पर संबोधित किया जाना पसंद करती हैं।

देवी का ताल्लुक मुसहर समुदाय से है, जिन्हें चूहों को मारकर उस पर जिन्दा रहने के लिए जाना जाता है और जो कि भारत में मौजूद सैकड़ों दलित उप-जातियों में सबसे निचले पायदान पर हैं। वे उन मुसहर महिला किसानों में से एक हैं जिन्होंने सैकड़ों अन्य महिलाओं को खेती-किसानी को एक पूर्णकालिक व्यवसाय के तौर पर अपनाने के लिए प्रेरित करने का काम किया है और उनके परिवारों की संपन्नता में योगदान दिया है।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए वे कहती हैं “मैंने अपने परिवार में अपने पिता और बड़ों को भोजन के लिए जद्दोजहद करते देखा है, जिसमें वे चूहों को मारने से लेकर दिहाड़ी मजदूरी करते थे। इसके बदले में उन्हें बेहद मामूली भुगतान के साथ-साथ सामाजिक भेदभाव का शिकार होना पड़ता था। मैं नहीं चाहती कि मेरे बच्चों को भी यही दिन देखने को मिले।”

वे आगे कहती हैं “हमने जीवनभर संघर्ष किया है। मैंने खेती की शुरुआत सिर्फ इसलिए की थी क्योंकि दिहाड़ी मजदूरी से मेरे पति की जो कमाई होती थी वह पर्याप्त नहीं थी और उसकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दारु पर बर्बाद हो जाता था।” विद्या देवी ने बताया कि खेतीबाड़ी का विचार उनके मन में पांच साल पहले एक सामाजिक कार्यकर्त्ता की सलाह के बाद अपनाए गए किचन गार्डनिंग करने के बाद उपजा था। “खेतीबाड़ी के कामकाज में संभावनाओं को देखते हुए मैंने एक छोटे से जमीन के टुकड़े को पट्टे पर ले लिया और उसपर खेती करने लगी थी” वे कहती हैं।

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एक गैर-लाभकारी संस्था की मदद से गाँव की दस महिलाओं ने गाँव के एक छोटे से जमीन के टुकड़े को कुल 30,000 रूपये में पट्टे पर लिया था। इसके बाद उन्होंने इस जमीन पर खेती शुरू कर दी थी। वे बताती हैं “सबसे पहले उस जमीन पर हमने धान की फसल बोई थी और पैदावार हमारी उम्मीदों से कहीं बढ़कर काफी अच्छी हुई थी। अगले साल हमने और भी जमीन पट्टे पर लेने का काम किया और वो भी बिना किसी गैर-लाभकारी संस्था की मदद के।”

शिक्षा का महत्व 

एक अन्य महिला किसान संजू देवी, जो कि अपने शुरूआती तीस की उम्र में हैं, और चार बच्चों की माँ हैं, के बच्चे पटना के बाहर किसी निजी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं। वे कहती हैं “हमारे समुदाय के लोगों के साथ किस प्रकार का व्यवहार होता आया है, ये हम ताउम्र देखते आये हैं। हमने काफी कुछ झेला है और मैं अपने बच्चों को वही सब भुगतते नहीं देख सकती।”

“मेरे एक बच्चे की मौत कुछ साल पहले हो गई थी, लेकिन मैं अपने बाकी के तीनों बच्चों को एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा रही हूँ। बाकी खर्चों को छोड़कर मैंने उनकी शिक्षा पर 12,000 रूपये खर्च किये हैं। लॉकडाउन के दौरान भी मैंने उन्हें वापस घर पर नहीं बुलाया क्योंकि मैं नहीं चाहती कि वे यहाँ की जिन्दगी से दो-चार हों। मैं चाहती हूँ कि वे सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें और अपना सारा ध्यान अपने कैरियर और जिंदगी पर बनाये रखें” कहते हुए वे स्वीकार करती हैं कि खेती “हम सबके लिए वरदान साबित हुई है। हमने धान की बुआई के साथ इसकी शुरुआत की थी और बाद में जाकर हमने महसूस किया कि हमारे इलाके की मिट्टी प्याज की खेती के लिए काफी अच्छी है- इसके बाद जाकर हमने प्याज उगाना शुरू कर दिया था।”

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संजू के अनुसार लॉकडाउन से पहले तक उसने 2 लाख रूपये मूल्य तक की प्याज उगाई थी। लेकिन लॉकडाउन के लागू हो जाने के बाद से वह मात्र 18,000 रूपये तक का ही प्याज ही बेच सकी हैं।

संजू ने बताया “एक बीघा खेत में प्याज उगाने के लिए तकरीबन 70,000 रूपये मूल्य की लागत लगती है। खेतीबाड़ी के जरिये अतीत में हमने काफी मुनाफा कमाया था लेकिन लॉकडाउन के दौरान हमें नुकसान उठाना पड़ा है। इस समय हम अपनी बचत से गुजारा चला रहे हैं और अगले सीजन की बुआई के लिए इसमें से संतुलन बनाने की कोशिश में हैं। यदि हमारी बचत नहीं होती तो मेरे बच्चे आज भूखे मर रहे होते और वे स्कूल से निकाल बाहर कर दिए गए होते।”

पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित और सामाजिक कार्यकर्त्ता सुधा वर्गीज के अनुसार पटना में 400 से अधिक मुसहर महिलाओं ने खेतीबाड़ी के काम को शुरू किया था और उनका यह कामकाज काफी अच्छा चल रहा है।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए वर्गीज ने बताया कि “दलितों में मुसहरों की हैसियत सबसे निचले पायदान पर है। उनके पास खुद की जमीनें नहीं हैं और वे भारत में सबसे पिछड़े समुदायों से सम्बद्ध हैं। हालाँकि आज अगर महिलाएं जमीन की मालिक हैं और दूसरों को प्रेरित कर रही हैं तो यह एक बेहद अहम बात है। ये वे छोटी छोटी चीजें हैं जिनसे समाज में बदलाव लाना संभव है। इन पिछले पाँच वर्षों के दौरान पटना में तकरीबन 400 महिलाओं ने खेती-किसानी को अपनाया है या कह सकते हैं कि वे खेतिहर उद्यमी साबित हुई हैं। यदि हितधारकों की ओर से उन्हें कुछ मदद मिल जाती है तो वे कमाल का काम कर सकती हैं और अपने समाज के उत्थान में उल्लेखनीय तौर पर मदद कर सकती हैं।”

ऑक्सफेम (2013) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 80% खेतीबाड़ी का काम महिलाओं द्वारा संपन्न किया जाता है। हालाँकि जमीन का मालिकाना उनके पास मात्र 13% ही है। हाल ही में मेरीलैंड यूनिवर्सिटी और नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च (एनसीएईआर, 2018) के द्वारा जारी आंकड़ों में इस बात की घोषणा की गई है कि भारत में खेतिहर मजदूरों में से महिलाओं की भागीदारी 42% से भी अधिक की है, लेकिन उनके नाम दो प्रतिशत से भी कम खेती योग्य जमीनें हैं। 

महादलित कमीशन की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार बिहार में तकरीबन 22 लाख की मुसहर आबादी है।

ये भूमिहीन दलित जिन्हें अपमानजनक तौर पर चूहे खाने वालों के तौर पर जाना जाता है, भारत के सबसे अधिक पददलित समुदायों में से एक हैं। आज भी उच्च जातियों के हिन्दू इन्हें अछूत मानते हैं। बिहार में 96.3% मुसहर भूमिहीन हैं, और 92.5% लोग खेतिहर मजदूर के तौर पर काम करते हैं। 1980 के दशक के बाद से इस स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। इनके बीच साक्षरता की दर 9.8% है, जोकि देश में दलितों के बीच में निम्नतम है। मुश्किल से एक प्रतिशत मुसहर महिलाएं ही साक्षर हैं।

अपने 50 के अंतिम दशक में चल रहीं फुलवा देवी कहती हैं कि खेतीबाड़ी के काम से महिलाओं को “गरिमा और सम्मान” हासिल हुआ है। हमने जिंदगीभर भेदभाव के दंश को झेला है। यहाँ तक कि जो मजदूरी हमें मिला करती थी वह भी ऊँची जाति के लोगों के बराबर नहीं होती थी। कई बार तो हमें पैसे के बदले में आधा किलो चावल या गेंहूँ दे दिया जाता था, जिसे हमें स्वीकार करना पड़ता था। इस स्तर के भेदभाव को हमारे समुदाय को सदियों से भुगतना पड़ा है और हम इसे और जारी रखने के पक्ष में हर्गिज नहीं हैं। हमारे बच्चे और हमारा समाज भी सम्मान का हकदार है, और अब हम इसे ले के रहेंगे।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Bihar: Musahar Women Take to Agriculture Long Before Call for ‘Atmanirbharta’

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