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टोक्यो में पूरा हुआ मैरी कॉम का विवादास्पद से हुनरमंद खिलाड़ी बनने तक का सफ़र

टोक्यो ओलंपिक में जीत दर्ज करने वाली भारतीय दल की पहली मुक्केबाज़ मैरी कॉम ने सबको दिखा दिया है कि क़दम दर क़दम आगे बढ़ते हुए लम्बे समय तक खेलना होता क्या है। वह एक जुझारू, आक्रामक, सीधे-सीधे भिड़ जाने वाली मुक्केबाज़ से अब चतुराई से बच निकलने वाली खिलाड़ी, हर पंच का जवाब तगड़े पंचिंग से देने वाली और एक-एक प्वाइंट के लिए जूझने वाली मुक्केबाज़  बन रही हैं। वह जिस लक्ष्य की तरफ़ बढ़ रही हैं, उसका आख़िरी पायदान है-बॉक्सिंग में अमरता।
टोक्यो में पूरा हुआ मैरी कॉम का विवादास्पद से हुनरमंद खिलाड़ी बनने तक का सफ़र
रविवार, 25 जुलाई को टोक्यो ओलंपिक में अपने शुरुआती मुक़ाबले में डोमिनिकन गणराज्य की मिगुएलिना हर्नांडेज़ के ख़िलाफ़ जीत दर्ज करतीं मैरी कॉम।

सतही तौर पर देखा जाये, तो मुक्केबाज़ी एक आम खेल नज़र आता है। मुक्के का प्रहार, लक्ष्य पर नज़र, आक्रामक जवाब, पैंतरे में फंसाव, आगे पीछे होते हुए ज़बरदस्त पंचिंग, चकदमा देना...इन्हें अलग-अलग क्रमों में इस तरह अपानाते जाना, जिसकी उम्मीद प्रतिद्वंद्वी को बिल्कुल ही न हो, प्रहार करना, प्रहार किये जाने से ख़ुद को बचाना और फिर इसे राउंड-दर-राउंड आख़िर तक दोहराते रहना। इन सबके बूते रिंग में बने रहना, जीत और पदकों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा जटिल होता है। कोई गारंटी नहीं होती। शुरुआत से ही बॉक्सिंग में नियति के साथ कोई अनुबंध नहीं होता।

इसके अलावा मुक्केबाज़ी किसी ऐसे अवैयक्तिक एल्गोरिथम से नियंत्रित नहीं होता, जो अंकों या प्रहार और हुक की विशिष्टता के अनुमान लगाने को आसान बना दे। आपके सामने रिंग में बराबर भार के दस्ताने पहने और आपकी ही तरह संकल्प वाला दूसरा व्यक्ति भी है, जिसके पास भी यही छोटी-छोटी तकनीक है, जिसके सहारे वह आपके दिमाग़ को इस क़दर हिलाने की कोशिश करता है कि आपके सिस्टम से आपके मसल की मेमोरी ही बाहर हो जाये। जबड़े पर पड़ते जिस प्रहार और हुक को हम देखते हैं, उसका असर पंच करने वाले मुक़्केबाज़ की भावनाओं, उसके इरादों पर भी पड़ता है और थोड़ा सा दर्द भी उसे होता है।

जब आप विकास कृष्ण से पूछेंगे, तो वह आपको मुक्का मारते समय होने वाले दर्द के बारे में और ज़्यादा बता पायेंगे। कृष्ण ने जिस दर्द को सहा है, उसका बॉक्सर पर पड़ने वाले भावनात्मक आघात से कोई लेना-देना नहीं होता। यह कंधे की चोट ही थी, जो तब और बढ़ गयी, जब उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पर पूरे शरीर की ताक़त के साथ प्रहार किया था। यह भी सरासर मूर्खता थी, उन्हें इस्तेमाल करने के लायक़ बचे अपने एक हाथ से ओलंपिक रिंग में दाखिल होने का कोई अधिकार नहीं था।

शनिवार को पुरुषों के वेल्टरवेट ओपनर में जापान के सिवोनरेट्स किसी मेन्सा ओकाज़ावा से बुरी तरह हार जाने के बाद यह बात सामने आयी। ओकाज़ावा ने गैप बनाने और पलों के भीतर अंदर जाने और टूट पड़ने से पहले इस भारतीय मुक्केबाज़ खिलाड़ी के चारों ओर नृत्य किया, उसने कृष्ण की बायीं आंख के नीचे एक घाव का निशान भी छोड़ दिया। इससे पहले कि आप कुछ और सोच पायें, दरअस्ल कृष्ण के दाहिने कंधे पर लगी यह चोट और इसी तरह उसके सिर के बायीं और लगे घाव इसलिए नहीं है कि वह अपने आपको बचाने के लिए ब्लॉक नहीं रख सकते थे, बल्कि ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि उनमें वह तेज़ी नहीं थीं, जो रिंग में चाहिए होती है और वह रिंग में बहुत पुराने तौर तरीक़े ही अपनाते हुए दिख रहे थे।

रविवार, मैरी कॉम के दर्ज होने का दिन

बॉक्सिंग में लम्बे समय तक कैसे बना रहा जा सकता है,यह हुनर सिर्फ़ महानतम लोगों को ही हासिल हुआ है और इसे समझने के लिए भारतीयों को कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं है। लम्बे समय तक बने रहने का मतलब अमरता नहीं (बस स्पष्ट होने के लिए) होता और उनकी यही ख़ासियत और समझ से बाहर के कारक किसी चैंपियन को पदक,ख़िताब और  इसी तरह की कई शानदार उपलब्धियां उनकी झोली में डाल देते हैं। दीर्घायु होना तो बहुत हद तक श्रमिक तबके से जुड़ा एक विचार है। यह वजूद में बने रहने वाली स्थिरता है। और मैरी के मामले में तो अपने खेल के शीर्ष पर 22 से ज़्यादा वर्षों तक बने रहने के दौरान भी उनकी यह ख़ासियत उनके साहस  और उसके लिए ज़िम्मेदार कई अन्य अमूर्त चीज़ों के मुक़ाबले एक कहीं बड़ा कारक दिखायी देता है।

टोक्यो में मैरी ने महिला फ्लाईवेट डिवीज़न के शुरुआती दौर में डोमिनिकन गणराज्य के एक मुश्किल और युवा प्रतिद्वंद्वी मिगुएलिना हर्नांडेज़ को बाहर करने वाली मैरी को देखते हुए एकदम साफ़ था कि उन्होंने ख़ुद में बदलाव लाया है।यह बदलाव देखने लायक़ था। दरअस्ल मैरी का यह रहस्य मानव जाति का रहस्य है और वह है-लगातार विकास क्रम से गुज़रना।

उस मैरी को याद कीजिए,जब उन्होंने अपने शुरुआती पांच विश्व खिताब जीते थे,उनके खुशी से उछल-कूद मचाने वाली अदा को याद कीजिए, जिसकी वजह से उन्हें ग़ैर-पेशेवर मुक्केबाज़ी जगत से मैग्निफिसेंट मैरी का उपनाम मिला था और 2012 के लंदन ओलंपिक को याद कीजिए,जिसमें वह कांस्य पदक तक दौड़ पड़ी थीं, ये तीन घटनायें उनकी अपरिपक्वता की एक अलग कहानी कहती हैं। इस अपरिवक्वता में आक्रामकता थी। यह तक़रीबन वैसा ही था कि मानो वह मणिपुर में नहीं, बल्कि मैक्सिको सिटी में हों, लैटिन अमेरिकी स्कूल ऑफ बॉक्सिंग में हों। आगे बढ़ो, फिर से आगे बढ़ो, पंच मारो, तूफ़ान की तरह टूट पड़ो, यहां तक कि झड़प पड़ो, लेकिन ख़ुद को मज़बूत बनाये रखो और स्कोर के लिए आगे बढ़ो।

रविवार को मैरी इन्हीं रणनीतियों को बुन रही थीं। हमने इन्ही रणनीतियों में से कुछ रणनीतियों की उनकी बुनावट को तक़रीबन तीन साल पहले  नई दिल्ली में आयोजित 2018 के वर्ल्ड्स कप में देखा था,  हालांकि तब उस बुनावट में उतनी चमक नहीं आयी थी। 2019 में निकहत ज़रीन के ख़िलाफ़ हुए मुक़ाबले के दौरान उनकी इस रणनीति में निखार तो आया था,लेकिन उसमें उनका ग़ुस्सा भी शामिल था। लेकिन,उन दिनों उनकी एक-एक, चाल इस क़दर अजीब और अस्वाभाविक लग रही थी, मानो उन्हें ये चालें अचानक याद आ गयी हो कि उन्हें ऐसा करना है, और मुक्केबाजी की अपनी टूट पड़ने की शैली के बीच वह अपने अनगढ़ चालों का परिचय दे रही थीं।

अब जबकि हम पीछे की तरफ़ मुड़कर देखते हैं,तो टोक्यो में मैरी 2.0 को देखने के बाद हम आसानी से समझ सकते हैं कि 2018 या 2019 में आख़िर हो क्या रहा था। दरअस्ल मैरी में लगातार बदलाव आ रहा था। काफ़ी कम उम्र और तेज़ रफ़्तार वाले विरोधियों से मुक़ाबले उन्हें विगत सालों के उलट  चकमा देने में थोड़ा तेज होना होगा, और फिर अंदर जाने और अंक बटोरने के लिए गैप की तलाश करनी होगी। बहुत कुछ उस जापानी खिलाड़ी की तरह, जिसने कृष्ण को हराया था, या फिर ब्रिटिश मुक्केबाज़, ल्यूक मैककॉर्मैक की तरह, जिन्होंने रविवार को पुरुषों के लाइटवेट डिवीज़न में मनीष कौशिक से बेहतर प्रदर्शन किया था।

और स्कोरिंग चाहे दमदार पंच के ज़रिये विरोधी को धूल चटाना से हो या फिर लेट-राउंट, लेट-बाउट के ज़रिये अपने आक्रामक इरादे (ग़ैर-पेशेवर मुक्केबाज़ी में एक बेहद प्रचलित चाल) से जजों के दिमाग़ में अपनी जगह बनाकर हो,मैरी इन सब चालों की उस्ताद हैं। सामने वाले को क़ाबू में रखने में उनकी महारत, मुक्केबाज़ी का पूरी तरह से विदेशी दर्शन, करामाती नृत्य  उनके लिए टोक्यो में उनके लिए ख़ास साबित हो सकता है।

बेशक, वह अभी 16 खिलाड़ियों के बीच चुनी गयी हैं और पदक के दौर से अब भी बहुत दूर हैं। पदक से अभी वह दो मुक़ाबले दूर है। लेकिन, जो कुछ लाजवाब है, वह यह कि मैरी एक जुझारू खिलाड़ी रूप में विकसित होती जा रही हैं और वह उम्मीद जगाती हैं और थोड़े ख़ुश होने का सबब भी देती हैं क्योंकि अतीत की अपनी तमाम जीत के बावजूद वह हमेशा देखे जाने के लिहाज़ से एक बदसूरत सेनानी ही बनी रही हैं।

मगर, यह सब भी बदल गया है और अब मुक्केबाज़ी का सौंदर्य मायने रखता है। यही वजह है कि हम अखिल कुमार को भी बीजिंग 2008 के विजेंदर सिंह जितना ही याद रखते हैं। पदक हासिल होना बड़ी बात है। इसका जश्न मनाया जाता है। लेकिन, इस सबके बीच और प्रशंसकों की सामूहिक चेतना में रिंग में उतरने और लड़ने की कला अनंत काल तक दिलो-दिमाग़ में बनी रहती है।

और 38 साल की नौजवान मैरी जिस मकाम पर खड़ी हैं, शास्वतता और अमरता का यह विचार भी शायद लम्बे समय तक बने रहने वाली इस उपलब्धि की जगह ले रहा होगा, जिसका वह अब तक पीछा कर रही थीं। यह उनका आखिरी ओलंपिक खेल माना जा रहा है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Brawler to Artful Dodger, the Evolution of Mary Kom is Complete in Tokyo

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