चमकी बुखार के कहर से निपटने में कहां चूक गई बिहार सरकार?
बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस), जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) और कुछ अन्य बीमारियों से अब तक 54 बच्चों की मौत हो गयी है। स्थानीय लोग इसे चमकी बुखार या दिमागी बुखार के रूप में जानते हैं। अब तक इसकी चपेट में आने वाले बच्चों की संख्या 203 तक पहुंच गयी है। लेकिन नीतीश सरकार इसका समाधान ढूंढने में पूरी तरह नाकाम नजर आ रही है।
गौरतलब है कि मुजफ्फरपुर और इसके आस-पास के इलाकों में भयंकर गर्मी और उमस की वजह से बच्चे बीमारियों का तेजी से शिकार हो रहे हैं।
मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ. शैलेश प्रसाद ने गुरुवार देर शाम बताया कि हाइपोग्लाइसीमिया और अन्य अज्ञात बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या बढकर अब 53 हो गयी है जबकि जनवरी से अब तक कुल 203 बच्चे इसकी चपेट में आए हैं। शैलेश ने बताया कि बीमार बच्चों में से अधिकांश हाइपोग्लाइसीमिया (खून में चीनी की कमी) से ग्रसित हैं।
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बिहार के स्वास्थ्य विभाग की तरफ से रविवार को जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, इस साल अधिकतम मौतें हाइपोग्लाइसिमिया की वजह से हुईं। लेकिन, जानकारों का कहना है कि सरकारी अधिकारी ये कहने से बचते रहे कि एईएस जिन दर्जनभर बीमारियों का गुच्छा है, उनमें हाइपोग्लाइसीमिया भी एक है। हाइपोग्लाइसीमिया में बच्चों के शरीर में शुगर की मात्रा बहुत कम हो जाती है।
जानकारों का यह भी कहना है कि पिछले कुछ सालों में मुजफ्फरपुर और आस-पास के जिलों में चमकी बुखार एक हजार से ज्यादा बच्चों की जान ले चुका है। करीब दो दशक से कहर बरपा रही इस बीमारी पर देश और विदेश की कई संस्थाओं ने शोध तो किया, लेकिन आज भी यह बीमारी रहस्यमयी बनी हुई है।
एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम शरीर के मुख्य नर्वस सिस्टम यानी तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है और वह भी खासतौर पर बच्चों में। इस बीमारी के लक्षणों की बात करें तो शुरुआत तेज बुखार से होती है। फिर शरीर में ऐंठन महसूस होती है, इसके बाद शरीर के तंत्रिका संबंधी कार्यों में रुकावट आने लगती है। बच्चा बेहोश हो जाता है, दौरे पड़ने लगते हैं। कुछ केस में तो पीड़ित कोमा में भी जा सकता है। अगर समय पर इलाज न मिले तो पीड़ित की मौत हो जाती है। आमतौर पर यह बीमारी जून से अक्टूबर के बीच देखने को मिलती है
कहां चूकी सरकार?
मुजफ्फरपुर में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम की शिनाख्त संभवतः 1995 में पहली बार हुई थी। इसके बाद से हर साल गर्मियों में इसकी चपेट में बच्चे आते थे लेकिन इस बीमारी के असल कारणों की पड़ताल अब तक नहीं हो सकी है।
चूंकि, इस बीमारी के असल कारण अज्ञात हैं, इसलिए परहेज व सतर्कता ही इससे बचने की सबसे प्रभावी तरकीब है। जानकार बताते हैं कि बिहार सरकार ने भी इसे ही कारगर माना था और यूनीसेफ के साथ मिल कर स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (एसओपी) तैयार किया था।
इसके तहत कई अहम कदम उठाए गए थे जैसे कि आशा वर्कर अपने गांवों का दौरा कर ऐसे मरीजों की शिनाख्त करेंगी। पीड़ित परिवारों को ओआरएस देंगी। गांवों में घूमकर वे सुनिश्चित करेंगी कि कोई बच्चा खाली पेट न सोए। इसके अलावा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कई बुनियादी सहूलियतें देने की भी बात थी।
जानकार बताते हैं कि पिछले तीन-चार सालों तक एसओपी का पालन किया गया जिससे बच्चों की मौत की घटनाओं में काफी गिरावट आई थी। आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं।
बिहार के स्वास्थ्य विभाग से मिले आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2015 में इस बीमारी से 11, वर्ष 2016 में चार, वर्ष 2017 में 11 और 2018 सात बच्चों की जान गई थी जबकि 2012 में इस बीमारी से 120 बच्चों की मौत हुई थी। लेकिन, इस साल इसमें ढिलाई आ गई, नतीजतन ज्यादा बच्चों की मौत हुई।
बिहार के स्वतंत्र पत्रकार और इस मामले पर नजर बनाए हुए उमेश कुमार कहते हैं,'पहली बात इस साल सरकार जागरूकता फैलाने के काम में पूरी तरह से फेल नजर आई है, जब एसओपी ही इसका बचाव था तो सरकार को प्रचार प्रसार पर ध्यान देना चाहिए था लेकिन जागरूकता का पहला विज्ञापन सरकार की तरफ से 10 जून को आया जबकि बच्चों की मौत 1 जून से होना शुरू हो गई थी।'
वो आगे कहते हैं,' दूसरी बात जो सबसे बड़ी समस्या बन रही है वो है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बच्चों के उपचार का उचित प्रबंध न होना। अब जब बच्चे इसकी चपेट में आ रहे हैं तो उन्हें सीधे मुजफ्फरपुर स्थित श्रीकृष्ण मेडिकल कालेज या दूसरे बड़े अस्पतालों में लाना पड़ रहा है। अक्सर देखा जाता है कि जब किसी गांव में कोई बच्चा चमकी बुखार की चपेट में आता है, तो शहर के अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते उसकी हालत बहुत खराब हो जाती है और उसे बचाना संभव नहीं रह जाता है। सरकार यहां भी चूक गई है।'
आपको बता दें कि चमकी बुखार को लेकर राज्य के सीएम नीतीश कुमार भी चिंता जता चुके हैं। उन्होंने स्वास्थ्य विभाग को इस पर नजर बनाए रखने को कहा है। दूसरी तरफ, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी अब इस मामले में तत्परता बढ़ा दी है।
केंद्र सरकार की भी एक टीम मुजफ्फरपुर स्थित श्रीकृष्ण मेडिकल कालेज का जायजा लेकर जा चुकी है। दिल्ली से आयी उक्त टीम का नेतृत्व राष्ट्रीय बाल कल्याण कार्यक्रम के सलाहकार और नियोनेटोलॉजिस्ट डॉ. अरुण सिन्हा कर रहे थे जिसमें पटना एम्स के डॉ. लोकेश तथा आरएमआरआई के विशेषज्ञ सहित अन्य चिकित्सक शामिल थे।
हालांकि विपक्षी दल इस पूरे मसले को लेकर सरकार पर हमलावर हैं। भाकपा-माले राज्य सचिव कुणाल ने इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत के लिए सरकार को जिम्मेवार ठहराया है।
उन्होंने कहा कि विगत कई सालों से इस मौसम में इस अज्ञात बीमारी से सैकड़ों बच्चे मारे जाते रहे हैं यदि सरकार ने पहले से इसके रोकथाम के उपाय किए होते तो मरने वाले बच्चों की संख्या काफी कम हो सकती थी। गरीबों के ही बच्चे इसके सर्वाधिक शिकार हो रहे हैं क्योंकि सही समय पर उनका इलाज नहीं हो पाता। गांव, प्रखंड अथवा अनुमंडल स्तर पर अस्पतालों की घोर कमी और जिला स्तर के भी अस्पतालों में आईसीयू व इमरजेंसी सेवा की खराब स्थिति के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। इस मामले में दिल्ली-पटना की सरकार आपराधिक लापरवाही बरत रही है।
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