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चंद हाथों में कैद डिजिटल प्लेटफॉर्म हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा है

अपील में कहा गया है कि आज डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का ख़तरा बड़े पैमाने पर लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने की उसकी क्षमता में निहित है और इस तरह चुनाव प्रक्रिया को प्राभावित करता है।
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आज हम जिस चीज का मुक़ाबला कर रहे हैं, वह है बड़ी पूंजी से पैदा हुई धन शक्ति। ऐसी धन-शक्ति जिससे डिजिटल प्लेटफॉर्म ऐसे इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे लोगों के सोचने का तरीका वैसा बने, जैसी बड़ी शक्तियां चाहती हैं। इसका सबसे अधिक फायदा पूँजीपतियों की प्रिय

नागरिक समाज के पांच संगठनों ने एक संयुक्त मंच से 5 अप्रैल 2019 को चुनाव आयोग और राजनीतिक पार्टियों से अपील करते हुए एक बयान जारी किया था। इस पर दो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों एन.गोपालस्वामी और एसवाई कुरैशी सहित दो सौ से अधिक प्रख्यात व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किया था। पांच नागरिक समाज संगठनों में कॉमन कॉज, कंस्टिच्यूशनल कंडक्ट ग्रुप, फ्री सॉफ्टवेयर मूवमेंट ऑफ इंडिया, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन शामिल हैं। इस अपील में सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों से लोकतंत्र को ख़तरे के बारे में कही गई हैं। इसमें कहा गया है कि इन प्लेटफार्मों को तत्काल नियंत्रित करने की आवश्यकता है साथ ही चुनावों में राजनीतिक दलों के चुनाव ख़र्च की उच्चतम सीमा निर्धारित करने के बारे में कहा गया है।

अभी तक जो उच्चतम सीमा मौजूद है वह केवल उम्मीदवारों के ख़र्च पर है। पार्टी के ख़र्च की कोई सीमा नहीं होने के कारण इस मार्ग का इस्तेमाल पार्टियों द्वारा किया जा रहा है। विशेष रूप से सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भारी मात्रा में इस्तेमाल किया जा रहा है। वर्ष 2014 के संसदीय चुनावों में 30,000 करोड़ या 5 बिलियन डॉलर (कॉस्ट ऑफ डेमोक्रेसी: पॉलिटिकल फाइनेंस इन इंडिया, ओयूपी, 2018) ख़र्च होने का अनुमान किया जाता है। इस चुनाव में ये आंकडा़ दोगुना होने की उम्मीद है जिससे यह दुनिया का सबसे महंगा चुनाव हो जाएगा।

चुनावी बांड्स के ज़रिए मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों को असीमित और गुप्त योगदान देने के लिए बड़े काम की भी अनुमति दे दी है जिससे भ्रष्टाचार आधिकारिक रूप से क़ानूनी हो गया है। उपरोक्त अपील जारी करते हुए 5 अप्रैल को प्रेस कॉन्फ्रेंस में एसवाई कुरैशी ने कहा कि पार्टियों को फंडिंग करने के लिए चुनावी बॉन्ड्स जैसी अपारदर्शी योजनाओं के ज़रिए राजनीतिक पार्टियों के ख़र्च करने की कोई भी उच्चतम सीमा नहीं है जो चुनाव में समान स्तर की अवधारणा का मजाक उड़ाती है।

ये अपील भारत के लोकतंत्र के लिए गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म से ख़तरे को व्यक्त करता है और इसलिए इन्हें काफी बारीकी से जांच करने की ज़रूरत है। वर्तमान में गूगल और फेसबुक लगभग 70% वैश्विक इंटरनेट ट्रैफ़िक को नियंत्रित करते हैं। फेसबुक के स्वामित्व वाला व्हाट्सएप भारत में अनुमानित 300 मिलियन उपयोगकर्ताओं के साथ कई लोगों के लिए यह संचार का सबसे महत्वपूर्ण साधन बन रहा है। यह भी स्पष्ट है कि ये डिजिटल प्लेटफॉर्म केवल संचार प्लेटफॉर्म नहीं हैं बल्कि प्रमुख मीडिया सहयोगी बन गए हैं जो अपने विज्ञापन राजस्व में प्रिंट और टीवी राजस्व को विश्व स्तर पर पीछे छोड़ रहे हैं। दुर्भाग्यवश डिजिटल प्लेटफॉर्म अख़बार और टीवी प्रसारण नियमों के साथ-साथ चुनावी नियमों के मौजूदा नियामक ढांचे के बाहर हैं।

अपील में कहा गया है कि आज डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का ख़तरा बड़े पैमाने पर लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने की उसकी क्षमता में निहित है है और इस तरह चुनाव प्रक्रिया को प्राभावित करता है। स्वतंत्र शोधकर्ताओं ने इन प्लेटफार्मों के प्रभाव का विश्लेषण किया है और निष्कर्ष निकाला है कि इन प्लेटफार्मों पर लोगों की प्रतिक्रिया के सामान्य हेरफेर के माध्यम से परिणामों में महत्वपूर्ण बदलाव हो सकता है जैसे कि वे अपने फेसबुक पेजों और गूगल सर्च पर देखते हैं। गूगल का ऑटो सजेशन और ऑटो कम्प्लीट भी यूजर्स को प्रभावित करने और गूगल द्वारा उन्हें जो दिखाया जाता है उसे निर्देशित करने वाला एक सूक्ष्म हथियार हैं। भारत के चुनावों में सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की विजय प्रणाली (फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम) के तहत अघोषित मतदाताओं में 20% का परिवर्तन या कुल मिलाकर 4-5% का परिवर्तन मामूली बदलाव दिख सकता है लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी के लिए एक शानदार जीत का कारण बन सकता है। इसलिए पैसे वाली पार्टी और उसके ख़र्चों पर कोई रोक न होने से डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके वह मतदाता को काफी प्रभावित कर सकती है।

इस अपील में खासकर व्हाट्सएप प्लेटफॉर्म पर फ़र्ज़ी ख़बरों का मुद्दा भी उठाया गया है। जैसा कि हम जानते हैं बड़ी संख्या में व्हाट्सएप ग्रुप द्वारा सांप्रदायिक हिंसा और लिंचिंग के मामले को भुनाया गया है जो बीजेपी के आईटी सेल द्वारा फैलाया जा रहा है। हालांकि इनमें से कुछ आधिकारिक रूप से बीजेपी द्वारा चलाए जा रहे हैं, बड़ी संख्या में बीजेपी के "अनौपचारिक" ग्रुप भी मौजूद हैं जो देश में फ़र्ज़ी ख़बरों का प्रमुख वाहक है। लोग वर्ष 2013 में मुज़फ्फरनगर दंगों से पहले प्रसारित फ़र्ज़ी तस्वीरों का इस्तेमाल करते हुए आग भड़काने वाले व्हाट्सएप मैसेजों की भूमिका और इसके परिणाम स्वरूप वर्ष 2014 के चुनाव से ठीक पहले पश्चिमी यूपी में हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को नहीं भूले हैं।

हालांकि चुनावों को प्रभावित करने के मामले में ट्रम्प के चुनावों में कैंब्रिज एनालिटिका कांड और ब्रेक्सिट जनमत संग्रह को लेकर फेसबुक जाना जाता है। अगर कोई बड़ा संगठन न हो तो मतदाताओं को प्रभावित करने में गूगल इतना बड़ा हो सकता है। चूंकि अधिकांश लोग सर्च इंजनों पर भरोसा करते हैं इसलिए सर्च रिज़ल्ट पेज पर उम्मीदवारों या पार्टियों की रैंकिंग मतदाता की वरीयताओं को स्थानांतरित कर सकती है। लोग अपने सर्च इंजन रिज़ल्ट पर क्या क्लिक करते हैं ऐसे में इसके दीर्घकालिक अध्ययन से पता चलता है कि शीर्ष तीन सर्च रिज़ल्ट 50% से अधिक क्लिक प्राप्त करते हैं और 75% क्लिक सर्च रिज़ल्ट के पहले पेज पर सीमित होते हैं। इस क्षेत्र के जाने-माने शोधकर्ता रिचर्ड एप्स्टीन ने अपने प्रयोगों के माध्यम से दिखाया है कि जब लोग दुविधा में होते हैं तो ऐसे में दी जाने वाली सूचना के अनुसार उनके विचार के बदलने की संभावना होती है। सूचना में सर्च रिज़ल्ट पेज पर क्या दिखाना है और क्या छिपाना है तथा इस पेज पर इसका स्थान क्या है शामिल होता है। एप्स्टीन का कहना है कि उनके शोध से पता चलता है कि ये स्थानांतरण दुविधा में पड़े समूहों में 20% तक हो सकता है और अन्य समूहों में अधिक हो सकता है। इसके अलावा एप्सटीन ने पाया कि सर्च इंजन सजेशन उदाहरण स्वरूप गूगल सर्च में ऑटो कंप्लीट या ऑटो सजेशन सुविधा सबसे शक्तिशाली व्यवहार संशोधनों में से एक है।

आज देश में 300 मिलियन से अधिक स्मार्ट फोन यूज़र्स हैं। गूगल और फेसबुक के आंकड़े ये निर्धारित करेंगे कि यूज़र्स को उनके फेसबुक फ़ीड और गूगल सर्च पर कौन सी सामग्री दिखाई देगी। इसी तरह यूट्यूब फ़ीड पर फिर गूगल पर या व्हाट्सएप मैसेजिंग पर और फिर फेसबुक पर किस प्रकार की सामग्री दिखेगी।

सिलिकॉन वैली के टाइकून ने खुद को आधुनिक मसीहा के रूप में पेश किया है। उनका दावा है कि वे और उनकी तकनीक एक आधुनिक और अधिक समावेशी समाज का निर्माण करेंगे। फिर उनकी तकनीक घृणा और फ़र्ज़ी ख़बरों के फैलाने में मदद क्यों करती हैं?

इसका जवाब साफ तौर पर धन है। गूगल, फ़ेसबुक और इसी तरह के प्लेटफ़ॉर्म पैसे का व्यापार करते हैं। यह पैसा ही है जो उनके व्यवसाय को चलाता है। डिजिटल युग में धन का इस्तेमाल ऐसे डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से अमीरों की आवाज को बढ़ाने के लिए किया जाता है। सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों के लिए पैसा नहीं है, वे लोगों को पैसे के लिए स्थानापन्न करते हैं: मार्च निकालते हैं, स्वयंसेवकों को जुटाते हैं, डोर टू डोर प्रचार करते हैं और बड़ा या छोटा संघर्ष करते हैं। इन आंदोलनों का मानना है कि इसी तरह का काम डिजिटल दुनिया में सफल होगा। यहां वे न केवल पैसे के ख़िलाफ़ होते हैं बल्कि आंकड़ों द्वारा पैसे की शक्ति को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ हैं।

ये आंकड़ा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर हमारे डेटा से जुड़ा है जो न केवल संदेशों की वृद्धि करता है बल्कि वो भी करता है जिन्हें लक्षित विज्ञापन कहा जाता है। वे जानते हैं कि किस वर्ग के लोग किस संदेश के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं और इसलिए वे अलग-अलग संदेश वाले लोगों के विभिन्न वर्गों को लक्षित कर सकते हैं। इस तरह से राय को स्थानांतरित किया जा सकता है जैसा कि एप्स्टीन बताते हैं। हालांकि अख़बार या टीवी चैनल उन लोगों को जानते हैं जो उनके समाचारों को पढ़ते हैं या कार्यक्रमों को देखते हैं। ये काफी व्यापक और बिखरे हुए लोग या समूह हैं। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म जानता है कि हम कहां रहते हैं, हम वास्तव में क्या पढ़ते हैं, हमारी रुचियां क्या हैं, हमारी उम्र, लिंग, जाति, धर्म और अन्य पहचान क्या हैं। ये ऐसे प्लेटफार्मों के यूजर्स को उन लोगों के छोटे समूहों में रखना महत्वपूर्ण है जो एक निश्चित प्रकार के संदेश को ग्रहण करने वाले होंगे। यह देखते हुए कि हमारा डेटा गूगल और फेसबुक जैसे डिजिटल प्लेटफार्मों के कंप्यूटर डेटा बेस में है तो किसी विशेष प्रकार के उत्पाद को बेचने के लिए आवश्यक जनसांख्यिकी को निकालने के लिए आंकड़ों का इस्तेमाल करना आसान है।

हम मानते हैं कि लोकतंत्र में अपने विशिष्ट विचारों के साथ हम स्वतंत्र नागरिक हैं। हम खुद को लोगों के कुछ हिस्सों के रूप में नहीं मानते हैं जो लक्षित विज्ञापनों से प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन अगर लोगों को विज्ञापन के आधार पर उत्पादों को खरीदने के लिए आश्वस्त किया जा सकता है और विज्ञापन उद्योग इस कारण से बड़ा व्यवसाय है तो हमें यह क्यों सोचना चाहिए कि राजनीति अलग है? यह वही है जो डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मों ने खोजा है- राजनीतिक विज्ञापन बड़ा व्यवसाय है और वे पार्टियों और उम्मीदवारों को उसी तरह बेच सकते हैं जैसे वे किसी अन्य सामान को बेचते हैं। इसके काम आश्चर्यजनक नहीं हैं। आख़िरकार गूगल और फेसबुक जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का आज दुनिया में एकाधिकार है क्योंकि यह विज्ञापन मॉडल प्रभावी है।

सामान्य तौर पर यह धन की शक्ति ही है जिसका सोशल मीडिया पर राजनीतिक प्रचार में भारी वृद्धि देखी गई है। यह सवाल नागरिक समाज समूहों ने उठाया है। यह सिर्फ डिजिटल प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया को विनियमित करने को लेकर नहीं है। यह चुनावों में धन की शक्ति को नियंत्रित करने को लेकर है। आज हम जिस चीज का मुक़ाबला कर रहे हैं वह है बड़ी पूंजी की धन-शक्ति जो लोगों की राय बदलने के लिए डिजिटल एकाधिकार की बड़ी शक्ति के साथ मिलकर इसके पसंदीदा पार्टी बीजेपी द्वारा इस्तेमाल किया गया। हमारा लोकतंत्र दांव पर है। यह वही है जिसकी हमें रक्षा करने की आवश्यकता है।
 

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