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चंद्रयान-2 के अंतिम पड़ाव की पूरी कहानी : कैसा था 'विक्रम', क्या करता 'प्रज्ञान’?

विज्ञान के सिद्धांत और गणित के गणनाओं के अद्भुत मेल की मदद से चंद्रयान-2 ने अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव तक शानदार सफ़र किया। जानिए कैसा रहा ये सफ़र
Chandrayaan 2
Image courtesy:ISRO

48 दिनों की चंद्रयान-2 की यह यात्रा चुनौतियों, कल्पनाओं और यथार्थ की गणनाओं से भरी हुई थी। विज्ञान के सिद्धांत और गणित के गणनाओं के अद्भुत मेल की मदद से चंद्रयान-2 ने अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव तक शानदार सफ़र किया। भारतीय वैज्ञानिकों का यह अभियान हर तरह की चुनौतियों पर खरा उतरा। लेकिन अपनी अंतिम पड़ाव पर जाकर चूक गया।

22 जुलाई 2019 को पृथ्वी से लॉन्च होने के बाद चंद्रयान-2 ने पृथ्वी की पांच अलग-अलग कक्षाओं से गुजरते हुए चंद्रमा के कक्षा यानी ऑर्बिट में प्रवेश किया। चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करने के बाद चंद्रमा की निम्न कक्ष यानी लोअर ऑर्बिट में प्रवेश किया। यानी चंद्रमा की सतह से तकरीबन 120 किलोमीटर ऊपर।

यहां यह सवाल पूछा जा सकता है आखिरकार चंद्रयान को पृथ्वी के पांच चक्कर क्यों लगाने पड़े? सीधे क्यों नहीं गया या विज्ञान की भाषा में यह सवाल उठता है कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण को पार कर चंद्रयान चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण में कैसे पहुंचा? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि किसी सेटलाइट का सबसे मुश्किल समय वही होता है जब वह किसी खोगलीय पिंड के गुरुत्व क्षेत्र को पार कर दूसरे खोगलीय पिंड के गुरुत्व क्षेत्र में पहुंचता है या ऐसी जगह पर जाता है जहां गुरुत्व बल होता ही नहीं है। यह मुश्किल इसलिए होता है क्योंकि दो गुरुत्व बलों को संतुलित कर सेटेलाइट को अपने वेलोसिटी तय करनी होती है। यहाँ पर विज्ञान के सिद्धांत के साथ गणित के बहुत मुश्किल गणनाओं को साथ में रखकर प्लानिंग करनी होती है।

 इन मामलों के जानकार डॉक्टर रघुनंदन कहते हैं कि 3.8 टन भार वाले चंद्रयान-2  सेटलाइट को चंद्रमा की कक्षा में सीधे पहुँचाने के लिए जिस क्षमता वाले राकेट लॉचर की जरूरत थी, भारत के पास अभी उस क्षमता वाला रॉकेट लॉन्चर नहीं था। इसलिए यह तकनीक निकाली गयी कि पृथ्वी के गुरुत्वीय बल का इस्तेमाल कर चंद्रयान- 2 को चंद्रमा के कक्ष में भेज दिया जाएगा। इसे साधारण शब्दों में ऐसे समझिये कि कोई धीमा चले तो उसे धक्का दे दिया जाए तो वह अचनाक से तेज हो जाता है। ठीक इसी तरह से चंद्रयान-2 के साथ था। इसे पृथ्वी के गुरुत्व बल की मदद से चंद्रमा की कक्षा में भेजा गया। इसलिए चंद्रयान-2 को चंद्रमा की कक्षा में पहुँचने के लिए 48 दिन लग गए।

जबकि अमेरिका के अपोलो को केवल पांच दिन लगे थे। इसलिए अभी भी भारत द्वारा किसी इंसान को चाँद पर भेजना बहुत कठिन लगता है। यहाँ पर केवल दो मशीन, विक्रम लैंडर और रोवर को चाँद पर भेजना था, इसलिए इतने अधिक दिनों का रिस्क ले लिया गया।120 किलोमीटर से कम होकर जब चंद्रयान-2 चंद्रमा की सतह से 35 किलोमीटर की दूरी पर पहुंचा तो चंद्रयान-2 से विक्रम लैंडर के साथ प्रज्ञान रोवर को अलग किया गया। विक्रम लैंडर का काम था कि वह प्रज्ञान रोवर को चंद्रमा की सतह पर उतारे और प्रज्ञान का काम था कि चंद्रमा की सतह की जांच परख करे। हालाँकि प्रज्ञान रोवर को चंद्रमा की सतह पर केवल एक चंद्र दिवस यानी 14 दिन रहना तय किया गया था और रोवर को केवल 500 मीटर की दूरी तय करनी थी। चंद्रमा की सतह पर उतरने के समय ही विक्रम लैंडर  का सबसे कठिन समय शुरू हुआ।

इस कठिन समय की पूरी परिस्थिति समझने के लिए एक बात दिमाग में रखिये कि एक बहुत तेजी गति से आ रही वस्तु को धीमा किया जाए तो कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। चांद की सतह से तकरीबन 30 किलोमीटर ऊपर विक्रम लैंडर का वेग तकरीबन 1000 मीटर प्रति सेकंड यानी एक घंटे में तकरीबन 3600 किलोमीटर प्रति घंटा था, जिसे चंद्रमा की सतह पर रखने से पहले 0 मीटर प्रति सेकंड में तब्दील किया जाना था। इसे ही सॉफ्ट लैंडिंग होना बताया जा रहा था ताकि लैंडर और रोवर को कोई क्षति ना पहुंचे। विक्रम लैंडर अपने वेग को धीमा करके चंद्रमा की सतह पर जा ही रहा था तभी  चंद्रमा की सतह से 2.1 किलोमीटर ऊपर विक्रम लैंडर से इसरो यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र का सम्पर्क टूट गया। अभी वैज्ञानिकों का कहना है कि वह आंकड़ों का विशेलषण कर रहे हैं।

यहाँ समझने वाली बात है कि इसका मतलब क्या है ? इसका मतलब यह है कि चंद्रमा की सतह पर विक्रम लैंडर के उतरने की पूरी प्रक्रिया स्वचालित थी। विक्रम लैंडर में ऐसे उपकरण लगे हुए थे जो लैंडर का फ्यूल कम होने के साथ और आसपास के वातावरण का आकलन करने के बाद लैंडर की वेलोसिटी तय कर रहे थे। यानी यह पूरी प्रक्रिया स्वचालित थी, इस पर इंसानी नियंत्रण नहीं था। इससे जुड़े सारे आंकड़ें इसरो को भी उपलब्ध हो रहे थे। इन्हीं आंकड़ों के विशेलषण के बारें में इसरो बता रहा है।

विज्ञान प्रसार के वरिष्ठ वैज्ञानिक टी.वी वेंकेटेश्वर ने राज्यसभा टीवी से बातचीत करते हुए कहा कि विक्रम लैंडर की चंद्रमा की सतह पर उतरने की सारी प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह से चल रही थी। विक्रम लैंडर ने सतह पर उतरने से पहले तस्वीरें भी ले ली थीं कि वह किस जगह पर उतरेगा यानी यह भी तय था कि वह ऐसी जगह पर नहीं उतरेगा जहां से रोवर निकलर अपनी 500 मीटर की दूरी न तय कर पाए। विक्रम लैंडर ने अपनी वेलोसिटी को दो चरणों तक बहुत अच्छे ढंग से काम भी किया था  था।

लेकिन तभी अचनाक इसरो से विक्रम लैंडर का सम्पर्क टूट गया। सब लोग पूछ रहे हैं कि क्या हुआ होगा तो फिजिक्स यानी भौतिकी के नियमों से देखें तो यहां पर केवल दो ही संभावनाएं हो सकती है। पहली यह कि विक्रम लैंडर पर चंद्रमा का गुरुत्वकर्षण काम कर रहा था और दूसरा विक्रम लैंडर की तरफ से आगे बढ़ने के लिए लैंडर में मौजूद फ्यूल से पैदा होने वाला दबाव यानी थ्रस्ट काम कर रहा था। तो हुआ यही होगा कि विक्रम लैंडर के थ्रस्ट ने काम करना बंद कर दिया होगा। जिसकी वजह से सम्पर्क टूट गया होगा। फिर भी जब तक आंकड़ों का विश्लेषण कर आधिकारिक बयान नहीं आ जाता, तब कुछ भी कहना मुश्किल है।

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डॉक्टर रघुनंदन भी ठीक ऐसी ही बात कहते हैं कि चांद पर केवल चांद का गुरुत्वाकर्षण ही काम करता है। वहां पर वायुमंडल नहीं है, इसलिए आगे बढ़ने के लिए विक्रम लैंडर में जो रॉकेट लगा होगा उससे मिला थ्रस्ट यानी न्यूटन का तीसरा नियम क्रिया की प्रतिक्रिया ही काम करता होगा। हो सकता है कि विक्रम लैंडर सतह पर पहुँचने से पहले ठीक से काम नहीं कर पाया होगा। इसलिए ऐसी स्थिति आयी है। फिर भी इसरो के आधिकारिक बयान का इंतज़ार करना चाहिए। इसके साथ केवल इसरों ही नहीं बल्कि दूसरे देश के अंतरिक्ष संगठन भी इसके बारे में जानकरी देंगे।

चंद्रयान-2, ग्यारह साल के भीतर भारत का चंद्रमा पर भेजा जाने वाला दूसरा अभियान है। इससे पहले भारत ने अक्टूबर 2008 में चंद्रयान, जिसे अब चंद्रयान-1 कहा जाने लगा है, को चंद्रमा की कक्षा में भेजा था। चंद्रयान-1 की वजह से चाँद पर पानी की मौजूजदगी के संकेत पाए गए थे। चंद्रयान -2 को भेजने के मकसद में यह शामिल था कि चाँद पर पानी की मौजूदगी को पुख्ता किया जाए।

इस पूरे अभियान की लागत तकरीबन 1000 करोड़ बताई जा रही है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की तरफ भेजा गया यह पहला अंतरिक्ष अभियान था। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सूरज की थोड़ी ही रोशनी पहुंचती है। चंद्रमा की धुरी के थोड़े से झुकाव के चलते इसके कुछ इलाके तो हमेशा ही छाया में रहते हैं। यहां पर बहुत विशाल गड्ढे हैं जिन्हें कोल्ड ट्रैप्स कहा जाता है। इनमें तापमान शून्य से 200 डिग्री तक नीचे जा सकता है। इसके चलते न सिर्फ पानी बल्कि कई दूसरे तत्व भी जमी हुई अवस्था में पहुंच सकते हैं। इस तापमान में कई गैसें भी जम जाती हैं। इसलिए विक्रम लैंडर और प्रज्ञान से जुड़े सोलर पैनल कुछ दिनों के बाद बैटरी को चार्ज करना बंद कर देते।

विक्रम लैंडर के साथ प्रज्ञान रोवर जुड़ा हुआ था। प्रज्ञान रोवर, प्रज्ञान यानी बुद्धिमत्ता और रोवर यानी एक ऐसा यन्त्र जो चंद्रमा की सतह पर चलने के लिए बनाया गया था। उसके साथ ऐसे उपकरण जुड़े हुए थे जिससे चाँद की सतह की जानकरी मिलती। जैसे कि स्पेक्ट्रोमीटर जो यह बताता कि वहां के पदार्थ कौन-कौन से तत्वों से मिलकर बने हुए हैं, रोवर के साथ लगा रडार जो पानी तलाशने के काम आता। कहने का मतलब यह है कि चंद्रयान-2 अभियान का यह हिस्सा अपना काम कर पाने में चूक गया। चूँकि चांद पूरी तरह से किसी भी तरह के हस्तेक्षप से बचा हुआ, इसलिए यहां पर रोवर पहुँचता तो सौर मंडल की उत्पति से जुड़ी कई तरह की जानकरी मिलती।

केवल विक्रम लैंडर और प्रज्ञान अपना काम नहीं कर पाए। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि चंद्रयान-2 अभियान असफल रहा। अभी भी चंद्रयान-2 के जरिये चंद्रमा के ऑर्बिट में चक्कर लगा रहे ऑर्बिटर से तकरीबन 2 सालों तक बहुत सारी जानकरियां मिलेंगी। जो केवल भारत के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के जरूरी होंगी। विज्ञान में कामयाबी-नाकामयाबी मायने नहीं रखती, बल्कि यह मायने रखता है कि हमें ज्ञान की दुनिया में चलते रहना है। जब तक इसरो जैसे संस्थान हैं, तब तक हर रोज कामयाबी है।

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