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चक्का जाम: संघ के लिए तो वैध, मगर सीएए प्रदर्शनकारियों के लिए देशद्रोह

सरकारें आरएसएस सहित चक्का जाम करने वाले तमाम संगठनों के साथ बातचीत करती हैं, लेकिन वैध राजनीतिक साधनों का इस्तेमाल करने वालों इस समय दंडित किया जा रहा है।
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इस आरोप पत्र में पूर्वोत्तर दिल्ली में चक्का जाम के आयोजन करने वाले कार्यकर्ताओं के एक समूह पर आरोप लगाया गया है, भले ही उन्होंने नहीं सोचा होगा कि इन चक्का जाम से हिंदू-मुस्लिम दंगा भड़क सकता है। लेकिन,वे यहीं तक नहीं रुके, चार्जशीट में कहा गया है कि वे नागरिकता संशोधन अधिनियम को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार को आतंकित करते हुए हिंसा को बढ़ावा देना चाहते थे, और इसीलिए ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत उनपर आरोप दर्ज किया जाना चाहिए था।

कोई शक नहीं कि भारतीय लोकतंत्र के उसी पुराने तौर-तरीक़े की तरह चक्का जाम नागरिकों की उन रणनीतियों में से एक है, जो राज्य को बातचीत के मंच पर लाने के लिए दबाव डालता है। इस रणनीति में निहित चेतावनी यह होती है कि या तो राज्य नागरिकों की समस्याओं को सुने या फिर वह उनकी बेक़द्री और नाफ़रमानी का सामना करे, इन रणनीतियों में से एक रणनीति यानी चक्का जाम को इसी मक़सद की झलक दिखाने के लिए अपनाया जाता है।

एक ख़ास तरह के मुद्दों पर चक्का जाम तो नियमित रूप से होते ही रहते हैं,मिसाल के तौर पर मूल्य वृद्धि पर चक्का जाम का आयोजन किया जाता है। कुछ मामलों में तो इनके मुक़ाबले राजनीतिक स्थापना ज़्यादा प्रासंगिक होती है।

इसके बावजूद, भारत के सभी राजनीतिक दल राज्य द्वारा संबोधित अपने समर्थकों की चिंताओं को दूर करने के लिए एक रणनीति के रूप में चक्का जाम का आयोजन करते रहे हैं। ख़ासकर भारतीय जनता पार्टी समेत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन भी इस तरह के आयोजनों में शामिल रहे हैं, जो इस समय सत्ता में है।

संघ अपने बचाव में यह दावा कर सकता है कि उसके द्वारा आयोजित चक्का जाम से हिंसा नहीं हुई, कम से कम उस पैमाने पर नहीं,जिस पैमाने पर फ़रवरी में दिल्ली में हिंसा देखी गयी। इसका सटीक जवाब तो यही हो सकता है कि संघ के चक्का जाम में हिंसा इसलिए नहीं हुई,क्योंकि सरकार ने उनके नेताओं के साथ बातचीत की थी और उन्हें संतुष्ट कर दिया था। या फिर संघ के चक्का जाम को हिंसक रूप से बाधित करने के लिए लोगों को नहीं जुटाया गया था।

राम सेतु पर चक्का जाम

उस सेतुसमुद्रम जहाज़रानी नहर परियोजना पर 2007 के विवाद को याद कीजिए,जिसके लिए समुद्र के तलों की सफ़ाई ज़रूरी हो गयी थी और उससे चूना पत्थर की वह पूरी श्रृंखला नष्ट होने की आशंका थी, जिसे मिथकीय तौर पर उस राम सेतु के रूप में जाना जाता है, जिसके बारे में माना जाता है कि राम ने "लंका" जाने और सीता को रावण से बचाने के लिए बनवाया था। उस परियोजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी।

सितंबर 2007 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने एक हलफ़नामा दायर किया था, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जांच-पड़ताल के बाद कहा गया था कि भगवान राम या राम सेतु के वजूद को साबित करने वाला कोई वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सबूत नहीं है।

उस हलफ़नामे ने विश्व हिंदू परिषद को 12 सितंबर को तीन घंटे के देशव्यापी चक्का जाम के लिए प्रेरित किया था। राष्ट्रीय दैनिक अख़बारों ने दिल्ली और मुंबई में ट्रैफिक जाम की रिपोर्टें प्रकाशित की थी। मध्य प्रदेश का ज़्यादातर हिस्सा ठहर गया था। भोपाल में तक़रीबन 15 सड़कों को अवरुद्ध कर दिया गया था।

एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था, "क़ानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए तैनात किये गये पुलिस कर्मी लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आये। हालांकि, विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने ऐलान किया था कि आवश्यक सेवायें उस चक्का जाम से बेअसर रहेंगी।" यह शायद इसलिए था, क्योंकि भाजपा उस समय राज्य में शासन कर रही थी।

सड़क को अवरुद्ध किये जाने से प्रसव पीड़ा से बेहाल एक गर्भवती महिला सरकारी अस्पताल तक नहीं पहुंच पायी थी। उसने सड़क किनारे ही अपने बच्चे को जन्म दे दिया था, इससे लोगों के बीच एक मज़ाकिया बहस शुरू हो गयी  कि बच्चे का नाम "राम" रखा जाये या "जाम" रखा जाये। झारखंड के गिरिडीह में विश्व हिंदू परिषद के लोगों और चक्का जाम के विरोध करने वालों के बीच झड़पें हुईं।

बिहार में रेल यातायात बाधित किया गया,जिसके लिए भाजपा के एक विधायक,नितिन नवीन और उनके 200 कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया। पुराने लेखों से पता चलता है कि उन तीन घंटों में उत्तर भारत के बड़े हिस्से या तो ठहर गये या रेंगने लगे थे।

उस चक्का जाम को लेकर यूपीए सरकार की प्रतिक्रिया देने में तनिक भी देर नहीं लगायी थी।सरकार ने ऐलान किया था कि वह शपथ पत्र वापस ले लेगी,तत्कालीन संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी ने हलफ़नामे से राम और राम सेतु के संदर्भ को हटाने के अपने आदेश की अनसुनी करने के लिए एएसआई के दो अफ़सरों को जवाबदेह ठहराते हुए निलंबित कर दिया था। वास्तव में सोनी ने इस्तीफ़े की पेशकश कर दी थी। आख़िरकार,शांति बहाल हो गयी।

उस समय संघ ने कहा था कि यह उसकी जीत है और अपने कार्यकर्ताओं की चक्का जाम में ज़ोरदार भागीदारी के लिए तारीफ़ की थी। उदाहरण के लिए, आरएसएस का आधिकारिक मुखपत्र,ऑर्गनाइज़र के 18 नवंबर 2007 के संस्करण में लिखा गया था, “अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल (आरएसएस की कार्यकारी परिषद) व्यापक तौर पर अपने देश के संगठनों,ख़ास तौर पर नौजवानों और देशव्यापी चक्का जाम कार्यक्रम...और इस कार्यक्रम को एक ऐतिहासिक रूप से कामयाब बनाने को लेकर अभूतपूर्व और बड़े पैमाने पर समर्थन देने के लिए विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों को बधाई देता है।”

संघ के लिए वह कामयाब चक्काजाम किसी वरदान से कम नहीं था। केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला, जो उस समय भाजपा के राज्य पार्टी प्रमुख थे, ने सितंबर में एक सार्वजनिक रैली में बोलते हुए कहा, "अगर हमने चक्का जाम का आयोजन नहीं किया होता, तो केंद्र भगवान राम के बारे में अपने बयान को वापस नहीं लिया होता।"

जिस मंच से यह बोला जा रहा था,उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने यूपीए नेता,सोनिया गांधी का मज़ाक उड़ाते हुए कहा था कि वह भारतीय धर्म को नहीं समझ सकतीं,क्योंकि वह इटली में पैदा हुई हैं।

सही मायने में यह देश में चक्का जाम को लेकर प्रतिक्रिया देने की उस मज़बूत लोकतांत्रिक संस्कृति का प्रतीक है, जो या तो बातचीत की पेशकश के ज़रिये या फिर उस कारण को ही हटाकर लोगों की भावना की क़द्र करती है,जो लोगों को सड़कों को अवरुद्ध करने के लिए उकसाती है। (सेतुसमुद्रम् परियोजना अब भी ठप है। इस साल जुलाई में डीएमके नेता,टीआर बालू ने मोदी से इस परियोजना को फिर से चालू करने का अनुरोध किया था।)

अमरनाथ यात्रा पर चक्का जाम

2008 में यूपीए सरकार ने सामाजिक तनाव को कम करने के लिए जिस तरीक़े को अपनाया था, उसे अमरनाथ भूमि हस्तांतरण विवाद के रूप में याद किया जाता है। 26 मई 2008 को अमरनाथ गुफ़ाओं की तरफ़ जाने वाले तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के निर्माण के लिए तक़रीबन 100 एकड़ भूमि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड (एसएएसबी) को हस्तांतरित की गयी थी। इसकी प्रतिक्रिया में घाटी उबल पड़ी थी। इस दबाव में 29 जून को भूमि का हस्तांतरण रद्द कर दिया गया था।

अब जम्मू के लोगों के उस विरोध की बारी थी, जिसे श्री अमरनाथ श्राइन यात्रा संघर्ष समिति (SAYSS) की छतरी तले आयोजित किया गया था। बंद, मार्च और रैलियों का नहीं ख़त्म होने वाला सिलसिला चल पड़ा। कई शहरों में कर्फ़्यू लगाया गया था, और श्रीनगर के लिए आवश्यक वस्तुओं से भरे हुए ट्रकों को सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करने के लिए 2 अगस्त को राजमार्गों पर सेना को तैनात कर दिया गया था।

13 अगस्त को विश्व हिंदू परिषद और भाजपा ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि की बहाली के लिए सुबह 9 बजे से 11 बजे के बीच दो घंटे का देशव्यापी चक्का जाम का आयोजन किया। एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया, " सुबह में सिर्फ़ दो घंटे के लिए यह नाकाबंदी दफ़्तर जाने वालों को प्रभावित करने के लिए की गयी थी।" उस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि "कई राज्यों में सड़क और रेल यातायात बाधित हुआ है।"

अहमदाबाद में पुलिस ने विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं को 45 मिनट तक के लिए पालड़ी चौक को बाधित करने दिया। अंदाज़ा लगाइये कि वहां कौन मौजूद रहा होगा ? एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया, “भाजपा विधायक,राकेश शाह और अहमदाबाद के पूर्व मेयर,अमित शाह यहां मौजूद थे। हालांकि, उन्होंने आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया था, वे घटनास्थल से कुछ दूरी पर खड़े थे…” 13 अगस्त के उस चक्का जाम के बारे में नरेन्द्र सहगल ने अपनी किताब, ‘द विक्टरी ऑफ़ फ़ेथ: यूनाइटेड हिंदू मेक स्ट्रॉन्ग इंडिया’ में लिखा है, “इस आह्वान का बहुत असर पड़ा था और प्रतिक्रिया ज़बरदस्त थी। इस शांतिपूर्ण चक्काजाम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था….”

सहगल ने उस जाम को लेकर जो अपना विचार रखा था,संभव है कि वह बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया हो। लेकिन,जम्मू सूबे में एसएवाईएसएस की तरफ़ से 25 अगस्त को आयोजित चक्काजाम बेहद असरदार था। दिगियाना और कठुआ में पुलिस के साथ हुई झड़पों में तक़रीबन 15 लोग घायल हो गये थे। हफ़्तों चले विरोध प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर आने-जाने वाले ट्रकों को निशाना बनाया था, जिससे कश्मीर घाटी की आर्थिक नाकेबंदी हो गयी थी। हालांकि सरकार इससे इन्कार करती रही, लेकिन अन्य मीडिया संस्थानों ने जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर यातायात में आयी ज़बरदस्त गिरावट दिखाने के लिए आंकड़े पेश किये थे।

असल में 11 अगस्त को कश्मीर घाटी में हज़ारों व्यापारियों ने कृषि उत्पाद से लदे ट्रकों के साथ पाकिस्तान जाने वाले राजमार्ग का रुख़ कर लिया था, उन्होंने कहा था कि आर्थिक नाकेबंदी के कारण ये उत्पाद सड़ जायेंगे। व्यापारियों के विरोध करने पर पुलिस ने गोलियां चलायीं, जिसमें चार व्यापारी मारे गये थे। अन्य 180 घायल हो गये और क़रीब 100 लोगों को हिरासत में ले लिया गया। 12 अगस्त को हुर्रियत नेता, मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ ने कहा था, "मुझे लगता है कि नाकाबंदी ने लोगों को एहसास करा दिया है कि कश्मीर इस समय पूरी तरह से भारत पर निर्भर है और हमें आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने की ज़रूरत है।"

फ़ारूक़ की उस टिप्पणी से पता चलता है कि कश्मीर की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के अलावे अमरनाथ भूमि के मुद्दे के लिए उस चक्का जाम का गंभीर सुरक्षा निहितार्थ भी था।  फिर भी लोगों के रोष को देखते हुए सरकार ने आंदोलन करने वाले नेताओं के साथ बातचीत की थी। 31 अगस्त को सरकार और एसएएसबी के बीच समझौते के बाद शांति बहाल हो गयी।इस समझौते के तहत यात्रा अवधि के दौरान एसएएसबी को विशेष इस्तेमाल के लिए 40 हेक्टेयर ज़मीन दे दी गयी।  एसएवाईवाईवाईएस  ने आख़िरकार दो महीने चले लंबे उस आंदोलन को वापस ले लिया था।

संघ का पाखंड

लेकिन,यूपीए सरकार ने जिस तरह से अमरनाथ यात्रा विवाद से निपटने के लिए जिस नज़रिये का इस्तेमाल किया था,उसके ठीक उलट मौजूदा दिल्ली की केंद्र सरकार द्वारा सीएए के विरोध कर रहे लोगो के साथ निपटने वाला नज़रिया है। शाहीन बाग़ की महिलाओं को दिल्ली से उत्तर प्रदेश के नोएडा को जोड़ने वाली सड़क के एक हिस्से पर कब्ज़ा करने के लिए प्रेरित करने वाले दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के विरोध मार्च पर एक बर्बर कार्रवाई का आदेश दे दिया गया था। वे कड़क ठंड का सामना करते हुए रात और दिन सप्ताहों तक सड़क पर रहे लोगों को पूरे होश-ओ-हवास के साथ वे कट्टरपंथी या हिंसक भाषा को नहीं अपनाने के लिए प्रेरित करते रहे,और हमेशा सभी को समान नागरिकता की गारंटी देने वाले भारतीय संविधान की बात करते रहे। और उन्होंने जम्मू के उन लोगों के उलट किसी भी तरह की हिंसा का सहारा नहीं लिया था।

अपने निरपराध व्यवहार के बावजूद केंद्र सरकार ने उन सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत को लेकर किसी तरह की कोई नरमी नहीं बरती। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव के हफ़्तों पहले गद्दार के तौर पर पेश किया गया। सरकार की तरफ़ से उनके सामने किसी भी तरह के शांति प्रस्ताव रखने से इंकार कर दिये जाने से लग रहा था कि उनकी हलचल को तेज़ करने के लिए बेसब्र और कट्टरपंथी तत्वों को प्रेरित किया जायेगा और चक्का जाम का आयोजना किया जायेगा।

चक्का जाम एक वैध राजनीतिक साधन है,जिसका अतीत में संघ ने भी इस्तेमाल किया है। यह दावा हास्यास्पद है कि उन्हीं लोगों पर एफ़आईआर 59 में आरोप लगाया गया है, जो प्रथम दृष्टया दोषी थे, क्योंकि वे जानते थे कि उनके चक्का जाम से हिंसात्मक प्रतिक्रियायें हो सकती हैं।

आरोप उन लोगों पर क़ायम किया गया, जिन्होंने हिंसा को रोकने की साज़िश की थी, न कि उन कार्यकर्ताओं पर, जिन्होंने सड़क पर नाकेबंदी की योजना बनायी थी। उन पर आतंक का आरोप दर्ज किये जाने की स्थिति इसलिए नहीं थी, क्योंकि वे संघ के उन नेताओं की तरह  ही चक्का जाम का आयोजन किया था,जिन्होंने राम सेतु और अमरनाथ मुद्दों पर चक्का जाम किया था।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

 
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 

https://www.newsclick.in/Chakka-jam-legit-for-sangh-sedition-for-caa-protest

 

 

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