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भारत में हिंदू नहीं, बल्कि इतिहास और समझदारी ख़तरे में हैं

हाल ही में सामने आया सुदर्शन टीवी प्रकरण धर्म आधारित जनसांख्यिकी को लेकर गढ़े जाते मिथकों की एक लंबी श्रृंखला में से एक प्रकरण है।
sudarshan

हिंदी भाषा का एक टीवी चैनल सुदर्शन न्यूज़,जो सांप्रदायिक दुष्प्रचार और नफ़रत से भरी भाषा के प्रसार को लेकर ख़ासे बदनाम है, उसने हाल ही में प्रतिष्ठित यूपीएससी परीक्षा में 42 मुस्लिम उम्मीदवारों के चुने जाने के सिलसिले में इसे "नौकरशाही जिहाद" का नाम दिया है। इस चैनल ने इस विषय पर एक शो के लिए एक वीडियो प्रोमो जारी किया, जो देखते-देखते वायरल हो गया, और इसके टेलीकास्ट के ख़िलाफ़ दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर दी गयी। उस प्रोमोशनल वीडियो से साफ़ था कि किसी प्रतियोगी परीक्षा और साक्षात्कार के बाद मुसलमानों के चुने जाने को यह चैनल हिंदुओं और भारत के लिए ख़तरे के रूप में देखता है। उस शो को प्रसारित तो नहीं किया जा सका, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि "हिंदू ख़तरे में हैं" वाली अवधारणा कोई ढकी-छुपी धारणा है।

बीजेपी के छह साल के शासन के दौरान बार-बार कहा जाने वाले "हिंदू ख़तरे में है" वाला यह रूपक  सांप्रदायिक दुष्प्रचार का एक हथियार बन गया है। इसे मौजूदा दौर में भी आज़माया जा रहा है (जैसा कि सुदर्शन न्यूज ने भी किया है) और भारतीय इतिहास के अतीत,ख़ासतौर पर मध्ययुग में भी इस रूपक का इस्तेमाल किया जाता रहा है। जिस तरह 2016 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना शहर छोड़ने वाले हिंदुओं के बारे में यह फर्ज़ी ख़बर फ़ैला दी गयी थी कि उन्होंने अपने मुस्लिम पड़ोसियों से कथित तौर पर उत्पीड़ित होकर कैराना छोड़ दिया था,उसी तरह किसी भी दौर में जब भी कोई मुस्लिम सत्ता के शीर्ष पर रहा है, उसे "हिन्दू ख़तरे में है" के चश्मे से तोड़-मरोड़ कर पेश कर दिया जाता रहा है। पालघर में हुई लिंचिंग की तरह ज़्यादातर संगीन अपराध इस अवधारणा का एकमात्र तरकश नहीं हैं। कोई भी करतूत,जिसमें अपराधी कोई मुस्लिम होता है और पीड़ित हिंदू होता है,उसे "हिंदू ख़तरे में है" की धारणा के भीतर फिट कर दिया जाता है।

सांप्रदायिक दक्षिणपंथी ताक़तों का मक़सद बहुसंख्यक समुदाय के बीच डर का मनोविज्ञान पैदा करना और उस नामुमकिन रहे विचार को फ़ैलाना है कि कभी एक अखंड हिंदू पहचान का वजूद हुआ करता था। असल में इस कोशिश का मक़सद एक ऐसी राजनीतिक हिंदू इकाई को गढ़ना है, जो सत्तारूढ़ पार्टी को चुनावी फ़ायदा पहुंचा सके। हालांकि ऐसा लग सकता है कि हिंदुओं के लिए "ख़तरे" की यह अवधारणा कोई नयी बात है। सच्चाई तो यह है कि यह हिंदुत्व दुष्प्रचार के तरकश के सबसे बड़े और सबसे पुराने तीरों में से एक है। "हिंदू ख़तरे में है" एक ऐसी अचूक धारणा है, जो दूसरे छोटे-छोटे विचारों को अपने भीतर समेट तो लेती ही है,बल्कि वे विचार उसी तरह विषय और रूपक के स्तर पर उनका इस्तेमाल स्वतंत्र रूप से किये जाते हैं। इन रूपकों में मुस्लिम मर्दों को चार महिलाओं से शादी करने की धार्मिक मंजूरी का अति सरलीकरण और अतिशयोक्ति भी शामिल हैं। हिंदुत्व ग़लत तरीक़े से इस बात को रखता है कि मुसलमानों के बीच बहुविवाह बड़ी संख्या में मान्य है और इसी चलते औसतन मुस्लिम प्रजनन दर बहुत ज़्यादा है। अविश्वसनीय स्तरों पर जाकर यह तर्क दिया जाता है कि मुस्लिम आबादी हिंदुओं से आगे निकल जायेगी। इस दावे को इस आरोप के साथ जोड़ दिया गया है कि मुसलमान अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं, और "लव जिहाद" में लिप्त हैं। इसलिए मुस्लिम पुरुषों को अधिक हिंसक और आक्रामक और हिंदुओं को कमज़ोर और डरे हुए तौर पर पेश किया जाता है।

इस तरह तो मुसलमानों की "भूमि जिहाद" के बेतुके विचारों को भी रखा जाना चाहिए, क्योंकि इसाई और अन्य अल्पसंख्यकों को छोड़कर मुसलमानों के पास अन्य सामाजिक समूह की तुलना में कम ज़मीन हैं, मुसलमानों की "आर्थिक जिहाद" की बात भी की जानी चाहिए, जिसकी आर्थिक स्थिति भारत में सबसे ख़राब है,मुसलमानों की "शिक्षा जिहाद" की बात भी होनी चाहिए, जो न्यूनतम शिक्षित सामाजिक समूहों में से एक है। असल में ये हिंदुत्व की काल्पनिक दुनिया की कल्पनायें हैं, जो मुसलमानों को बाहरी लोगों के तौर पर पेश करती हैं, जो इस 79.8% "एकजुट" हिंदुओं के वजूद को ख़तरे में डालने की साज़िशें रचती हैं।

"हिंदू ख़तरे में है" की धारणा पीडि़त होने और ख़तरे में पड़ जाने वाले एक झूठे बोध पर आधारित विचार है, क्योंकि इस धारणा के चलते "आत्मरक्षा" में हिंसक आक्रामकता उचित जान पड़ता है। यह इस विचार को आगे बढ़ाता है कि हिंदुओं के लिए दोतरफ़ा ख़तरा है। इनमें से पहला ख़तरा जनसांख्यिकीय या हिंदू बनाम मुसलमानों की आबादी के सिलसिले में है। दूसरा बड़ा ख़तरा उस सिलसिले में है,जिसे कुछ हिंदुत्व समूह "हिंदू संस्कृति" के तौर पर प्रचारित करते हैं।

यह 19 वीं शताब्दी की जनगणना की वह क़वायद ही थी, जिसने जनसंख्या को धार्मिक आधार पर वर्गीकृत और श्रेणीबद्ध किया था। उस समय,आज जिसे हिंदू होने की बात की जाती है,उसकी कोई एकलौती समझ थी ही नहीं । जाति के सामने धार्मिक पहचान कमतर हुआ करती थी, और इस बोध ने शुरुआती जनगणना अधिकारियों के लिए बेहद मुश्किल स्थिति बना पैदा कर दी थी। उन्हें ख़ासकर उन लोगों,जिन्हें हम आज हिंदू कहते,उनकी धार्मिक पहचानों का पता लगाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। जनगणना (1871-1901) के दौरान, कुलीन जाति के जनगणना अधिकारियों ने अछूतों को तो हिंदू माना ही नहीं था।साल 1909 में मिंटो मॉर्ले सुधार आया, जिसके बाद विभिन्न समुदायों को शामिल करने के लिए मताधिकार का विस्तार किया गया, यहीं से एक "हिंदू" जनसांख्यिकी का विचार आकार लेने लगा। जैसा कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक जनसांख्यिकीय लड़ाई हारने की संभावना थी। एक बार जब यह संभावना विभिन्न जातियों के हिंदू नेतृत्व के सामने ख़तरा जैसा दिखायी पड़ने लगी, तो उन्होंने हिंदू के भीतर पहले से मौजूद अछूत समुदायों को शामिल करना शुरू कर दिया। जाति आधारित इस समाज में व्याप्त ग़ैर-बराबरी को छुपाने के लिए उन्होंने इस विचार को फ़ैलाना शुरू कर दिया कि ब्रिटिश इस जनगणना के ज़रिये हिंदुओं को "विभाजित" करने की कोशिश कर रहे हैं।

1901 की जनगणना "हिंदू ख़तर में है" की बहस का आधार बन गयी, क्योंकि इससे हिंदू आबादी की विकास दर में गिरावट का पता चला था। दरअस्ल,यह कोई गिरावट नहीं थी, बल्कि जनगणना अधिकारियों द्वारा अछूतों और जनजातीय समूहों को हिंदुओं के रूप में नहीं देखा गया था। फिर भी जो अभिजात वर्ग इस बहिष्कार के लाभार्थी थे, उन्होंने ही अब आने वाले दिनों में हिंदुओं के सर्वनाश के काल्पनिक विचारों का दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया था। 1901 की उसी जनगणना के आधार पर कर्नल यूएन मुखर्जी ने 1909 में “बंगाली” नामक पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की, जिसे बाद में “हिंदू: ए डाइंग रेस” शीर्षक वाली एक किताब में संकलित किया गया। इसमें धर्म परिवर्तन के साथ-साथ सामान्य उच्च प्रजनन दर और बहुविवाह का हवाला देते हुए यह दावा किया गया था कि आने वाले 420 वर्षों में हिंदुओं का सफ़ाया हो जायेगा। मुखर्जी का यह आलेख हिंदुत्व आंदोलन का एक ऐसा मूल पाठ बन गया, जो हिंदू सांप्रदायिक नेताओं द्वारा ऐसे कई लेखन को प्रेरित करता रहा है।

बाद में प्रभावशाली आर्य समाजवादी,स्वामी श्रद्धानंद ने मुखर्जी से मुलाक़ात की, जिसके बाद उन्होंने 1926 में “हिंदू संघटन: सेविंग ऑफ़ डाइंग रेस” नाकम किताब लिखी। इस किताब में श्रद्धानंद ने बताया, “जबकि मुसलमानों की तादाद बढ़ती ही जा रही है, वहीं हिंदुओं की संख्या समय-समय पर घटती जा रही है।” 1938 में पंजाब के आरबी लालचंद ने “सेल्फ़-अबनेशन इन पॉलिटिक्स” में लिखा कि हिंदुओं का "कोई बाहरी दोस्त और इससे सहानुभूति रखने वाला नहीं है ... हिंदू राष्ट्रीयता और हिंदू भावनाओं को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है..." सुदर्शन टीवी के विवादास्पद संपादक, सुरेश चव्हाणके, इस अतार्किक परंपरा के आधुनिक वसीयतदार होने का दावा कर सकते हैं।

जनगणना आधारित जनसांख्यिकी हिंदू सांप्रदायिकता का एक संस्थापक सिद्धांत बन गयी और हिंदू महासभा और आरएसएस की पूरी राजनीति इस एकमात्र चिंता को दूर करने में लगी रही। फिर से धर्मपरिवर्तन के कार्यक्रम चलाये गये, दलितों और आदिवासियों के धर्मांतरण से रोका गया, लेकिन इसके बावजूद अखंड हिंदू समुदाय की धारणा ज़मीन पर नहीं उतर पायी, क्योंकि इस परियोजना का मूलभूत दोष उनकी ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का होना था। इसके अलावा, कई पूर्ववर्ती अछूत समुदायों ने "हिंदुओं" के रूप में एकजुट होने से इनकार कर दिया और बीआर अंबेडकर द्वारा शुरू किये गये उस पृथक निर्वाचन क्षेत्र के संघर्ष के दौरान यह तनाव अपने शीर्ष पर पहुंच गया, जिसका महात्मा गांधी और मदन मोहन मालवीय ने विरोध किया, और इसका अंत 1932 में पूना संधि के साथ हुआ।

आज़ादी के बाद भी जनसांख्यिकी के प्रति यह जुनून हिंदू सांप्रदायिकता की शीर्ष चिंता का विषय बना रहा। 1979 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने मुखर्जी की किताब से एक वाक्यांश, “दे काउंट देयर गेन्स,वी कैलकुलेट आवर लॉसेज़” को उठाते हुए इसी शीर्षक से एक किताब प्रकाशित की, लेकिन ग़लत तरीक़े से इसका श्रेय भाई परमानंद को दे दिया गया, जो हिंदू महासभा के एक नेता थे और जिन्होंने 1908-09 में धार्मिक तर्ज पर विभाजन का प्रस्ताव दिया था। जनगणना के आंकड़ों से खिलवाड़ करते हुए इस किताब में मुसलमानों की ज़्यादा आबादी के हौआ को खड़ा किया गया था। 19 वीं शताब्दी की ये किताबें और पैम्फलेट्स से तलाशे जा रहे ये सभी मुद्दे आज फिर से जीवंत किये जा रहे हैं और सुदर्शन टीवी एपिसोड इसकी एक और मिसाल भर है।

पश्चिमीकृत "वाम / उदार / धर्मनिरपेक्ष" अकादमियों द्वारा हिंदू संस्कृति, विश्वासों और प्रथाओं पर कथित हमला वह अन्य रूपक है, जिसका मूल औपनिवेशिक प्रशासकों, ईसाई मिशनरियों और राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, और इसी तरह के अन्य स्वदेशी सुधारकों द्वारा लिखित 19 वीं सदी के समालोचना में निहित है। प्रचलित जाति और लिंग आधारित भेदभाव, अंधविश्वास, धार्मिक साहित्य, सांस्कृतिक प्रथाओं को लेकर की गयी उनकी आलोचनाओं को "हिंदूफ़ोबिया" के रूप में रखा गया था।

पीड़ित होने के दावों के साथ मिलकर यह काल्पनिक ख़तरा ग़ैर-मुसलमान और ग़ैर-ईसाई आबादी को हिंदुओं के राजनीतिक निकाय में एकीकृत करने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य करता है। इस कारण से हिंदुत्व पारिस्थितिकी तंत्र सभी ग़ैर-मुसलमानों और ग़ैर-ईसाइयों से इस बात का आह्वान करता है कि वे जातिगत मतभेदों और क्षेत्र, जातीयता और भाषा के भेदों को भुलाकर एक एकीकृत हिंदू पहचान बनायें और इस ग़ैर-मौजूद जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक ख़तरे का विरोध करें। हिंदू एकजुटता की यह धारणा इसलिए शिकार हो जाती है कि इसके पारिस्थितिकी तंत्र में निहित ब्राह्मणवाद इस एकजुटता को व्यावहारिक रूप में सामने आने ही नहीं देता है। मुसलमानों के हाथों पीड़ित होने के केंद्रीय विषय के साथ एक अखंड हिंदू समुदाय का तात्पर्य यही है कि दूसरे हिंदू द्वारा उत्पीड़ित अन्य हिंदू इंसाफ़ की उम्मीद नहीं कर सकते।

मुसलमानों की भीड़ की तरफ़ से बैंगलोर के कांग्रेस विधायक के घर की गयी हालिया बर्बरता पर ज़रा विचार करें। कांग्रेस पर अक्सर "जाति की राजनीति" करने का आरोप लगाते वाले दक्षिणपंथियों ने मुसलमानों के इस हमले के शिकार होने वाले इस विधायक को अचानक दलित हिंदू के रूप में चिह्नित करना शुरू कर दिया। लेकिन, इसका अंतर्विरोध तब सामने आता है,जब दलितों के साथ होने वाले उन अनगिनत मामले गिनाये जाते हैं, जिसमें दलित हिंदू उन अपराधियों के शिकार होते हैं, जो कुलीन जाति के होते हैं, लेकिन हिंदुत्व का यह पारिस्थितिकी तंत्र कभी भी हिंदुओं के लिए ख़तरा नहीं बनता है। ऊना लिंचिंग पीड़ितों को कभी भी हिंदू के रूप में चिह्नित नहीं किया गया,क्योंकि अपराधी उच्च और बड़ी जातियों के थे। इसलिए,वास्तविक दुनिया में "हिंदू ख़तरे में है" वाली यह बहस सिर्फ़ मुसलमानों या दूसरे अल्पसंख्यकों को डराने के लिए है, जो उन्हें उकसाने वाले की भूमिका को बनाये रखती है। बाक़ी अन्य सभी स्थितियों में पारंपरिक जाति और लिंग पदानुक्रम को बरक़रार रखा जाता है, लेकिन इसे कभी भी एकीकृत राजनीतिक हिंदू निकाय या क़ानून के समक्ष समानता के दृष्टिकोण के लिए ख़तरे के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।

चूंकि एक और दशकीय जनगणना का काम चल रहा है, ऐसे में तय है कि धर्म आधारित जनसांख्यिकी संख्या के साथ खेलने के लिए तमाम तरक़ीबें अपनायी जायेंगी ताकि अगले दशक की राजनीति भी सांप्रदायिकता की चपेट में बनी रहे। जनसंख्या नियंत्रण का शोर, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड और NRC-CAA इसी साम्प्रदायिक बहस की गहन तैयारी हैं, और चाहे जो भी हो, इनसे मुक़ाबला करने की ज़रूरत है।

लेखक जेएनयू स्थित सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल सिस्टम से पीएचडी कर रहे हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

 अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 https://www.newsclick.in/not-hindus-history-sanity-danger-india

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