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कोविड-19: लॉकडाउन की भागलपुर रेशम उद्योग पर भारी मार 

कभी रेशमी कपड़ों का फलता-फूलता केंद्र, भागलपुर अब अपना बाज़ार अहमदाबाद और बैंगलोर जैसे नए केंद्रों की वजह से खो रहा है। सरकार का समर्थन न मिलने और बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने शिल्पकारों/बुनकरों के जीवनयापन को गहरे संकट में डाल दिया है।
कोविड-19: लॉकडाउन की भागलपुर रेशम उद्योग पर भारी मार 

नई दिल्ली: भागलपुर में लगभग 100 साल पुरानी रेशम की बुनाई परंपरा, जिस जिले को 'बिहार का रेशम शहर' कहा जाता है, तेजी से अपनी चमक खो रहा है। गंगा नदी के दक्षिणी तट पर बसा कभी फलता-फूलता उद्योग अब "ढहने" के कगार पर है – और कारीगरों के अस्तित्व को अंधकारमय बना रहा है।

जहां अप्रैल 2019 तक प्रति वर्ष लगभग 500 करोड़ रुपये का व्यापार होता था, जो 2 लाख से अधिक लोगों की आजीविका का पारंपरिक स्रोत था - जो कपड़ा बुनने से लेकर सूत की कताई के काम में लगे हुए थे – वहाँ का व्यापार लगभग 100 करोड़ रुपये तक गिर गया हैं, यह सब कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए दो अनियोजित लॉकडाउन के कारण और सरकार की योजनाओं के नाम पर राजनीतिक उदासीनता, कुप्रबंधन और प्रकाशिकी के कारण हुआ है।

भागलपुर में बुनाई का काम परंपरागत रूप से अनुसूचित जातियों जैसे हिंदुओं में तांती और मुसलमानों में अंसारी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तक ही सीमित है।

भागलपुरी सिल्क ने फैशन रैंप पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है, जिसमें सामंत चौहान जैसे डिजाइनरों ने इसे अपनी पसंद का कपड़ा बनाया है, इसे दिल्ली के विल्स इंडिया फैशन वीक और सिंगापुर फैशन वीक में प्रदर्शित किया जा चुका है। विश्व स्तर पर भी इसकी काफी मांग है। ऐसा नहीं है कि मांग कम हो रही है, लेकिन लॉजिस्टिक्स के मुद्दों के कारण व्यापारी अंतिम उत्पादों का निर्यात नहीं कर पा रहे हैं। विदेशी ऑर्डर के लिए बने उत्पादों को बक्सों में रखा जाता है। अमेरिका और यूरोप के पुराने ऑर्डर अब रद्द हो गए हैं।

भागलपुर रेशम को, साड़ी, स्टोल, स्कार्फ, दुपट्टे, कंबल और ड्रेस सामग्री बनाने के लिए विश्व स्तर पर जाना जाता है।

“हम पहले से ही यार्न की उच्च कीमतों और स्थानीय बाजार में रंगों की अपर्याप्त आपूर्ति जैसी समस्याओं से जूझ रहे थे। लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र फिर भी किसी तरह काम कर रहा था। जब पिछले साल लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो भागलपुर में 25,000 से अधिक बिजली करघे और 4,000 हथकरघा बेकार हो गए, जिससे चलते लगभग हजारों घरों की कमाई लड़खड़ा गई। जैसे ही उद्योग ने वापस रेंगना शुरू किया, तो हममें से कुछ को टुकड़ों में काम मिला और ऑर्डर हाथ लगे, लेकिन फिर दूसरा लॉकडाउन लगा दिया गया। 90 प्रतिशत से अधिक करघा मालिकों के पास कोई काम नहीं होने के कारण, व्यवसाय चरमराने के कगार पर आ गया है, ”हसनाबाद निवासी और बुनकर संघर्ष समिति के प्रमुख नेजाहत अंसारी ने न्यूज़क्लिक को बताया।

रेशम की बुनाई का काम परंपरागत रूप से घरेलू स्तर पर किया जाने वाला एक पारिवारिक काम रहा है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य शामिल होते हैं। अंसारी ने कहा, "बुनकर न केवल वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं, युवा पीढ़ी श्रम प्रधान और अलाभकारी काम से दूर जा रही है," अंसारी ने कहा, जो अपने चार बेटों के साथ 10 करघे चलाते हैं।

उन्होंने कहा कि क्षेत्र में टेक्सटाइल पार्क के अभाव के चलते बिचौलियों का राज कायम है। उनके अनुसार, केवल बुनकरों का एक समूह (अधिकतम 3-5 प्रतिशत), व्यापारियों से सीधे ऑर्डर हासिल  कर पाता है। बाकी, बहुमत करघा मालिक काम के लिए बिचौलियों पर निर्भर हैं।

“हमें पहले छह मीटर की एक साड़ी की बुनाई के लिए 20 रुपये प्रति मीटर की दर से 120 रुपये की दिहाड़ी मिलती थी। वर्क ऑर्डर संकट के कारण, शोषण अब इस हद तक बढ़ गया है कि प्रति साड़ी 30-35 रुपये मिल रहे हैं,” उन्होंने कहा, प्रत्येक करघे से औसत मासिक आय 2,500-3,000 रुपये से लेकर 5,500 -6000 रुपये तक हो रही है।“ यहाँ तक कि सामान्य दिनों में भी एक करघा महीने में 20 दिनों से अधिक काम नहीं करता है। एक व्यक्ति जिसके पास औसतन दो करघे होते हैं, वह हर महीने 10,000-12,000 रुपये कमा पाता था। इसलिए, औसत व्यक्तिगत आय उस संख्या पर निर्भर करती है जितने करघे एक बुनकर के पास है।" 

चंपानगर में आलोक कुमार के बीस करघे दो महीने से बंद पड़े हैं। “मुझे आखिरी ऑर्डर अप्रैल में मिला था जब मैंने मांग आने पर दुपट्टे का उत्पादन किया था। मुझे 18 रुपये प्रति दुपट्टा मिला था। हमें बिचौलियों द्वारा कच्चा माल जैसे धागा, डाई आदि दिया जाता है और हमें उसका उत्पादन करने के लिए केवल मजदूरी का भुगतान किया जाता है। अगर बुनाई में कोई दोष पाया जाता है, तो हमें नुकसान होता है क्योंकि प्रत्येक 'दोषपूर्ण' दुपट्टे का बाजार मूल्य हमारे वेतन से काट लिया जाता है, ”उन्होंने कहा।

बुनकरों के सामने उभरती चुनौतियाँ

कभी रेशमी कपड़ों का फलता-फूलता केंद्र, भागलपुर अब अपना बाज़ार अहमदाबाद और बैंगलोर जैसे नए केंद्रों के हाथों खो रहा है। सरकार का समर्थन न मिलने और बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने शिल्पकारों/बुनकरों के जीवन-यापन को गहरे संकट में डाल दिया है।

आलोक ने बताया कि उद्योग पहले इतना लाभदायक था कि उनके पिता ने बुनाई के पारिवारिक काम को आगे बढ़ाने के लिए टाटा इंजीनियरिंग और लोकोमोटिव कंपनी में अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़ दी थी। उनके चाचा, जो एक सरकारी हाई स्कूल में शिक्षक थे, ने भी व्यवसाय में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया था। लेकिन वही उद्योग, आज पूंजी के तीव्र संकट का सामना कर रहा है जो उन्हें एक दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर रहा है और उन्हें अपनी संतानों को शिक्षित करने से भी रोक रहा है।

बुनकरों ने दावा किया कि वे अपने पूरे परिवार के साथ, प्रत्येक उत्पाद पर कम से कम 18 घंटे काम करते हैं, लेकिन इतनी कड़ी मेहनत के बाद वे मामूली सी राशि कमाते हैं, जो उनके परिवारों के जावन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं है - फिर बच्चों की बेहतर शिक्षा के बारे में तो आप भूल ही जाओ। उन्होंने सरकार से उस कला का बचाने का आग्रह किया है, जिसके बारे में उनका दावा है कि वह मरने या उजड़ने के कगार पर है।

“भागलपुर में रेशम बनाने वाली इकाइयों को सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को बिचौलिए और कुछ प्रभावशाली लोग हड़प लेते है। सरकार समुदाय के उत्थान के लिए अक्सर कई ऋण योजनाओं की घोषणा करती है, लेकिन नौकरशाही बाधाओं और बैंकों द्वारा सामने रखी गई सख्त शर्तों के कारण एक आम बुनकर को शायद ही ऋण मिल पाता है। केवल प्रभावशाली लोगों को ही इसका लाभ मिलता है, जो खुद बुनकर नहीं हैं। जो लोग ऋण लेने में सफल होते हैं, उन्हें अधिकारियों को रिश्वत के रूप में मोटी रकम देनी पड़ती है।

उनके विचार को एक अन्य बुनकर सज्जन कुमार ने साझा करते हुए कहा कि बुनकर/शिल्पकार गरीब लोग हैं, जिनमें से कई तो अभी भी गरीबी की रेखा से नीचे हैं। “जब हम समाज के अभिजात वर्ग के लिए शानदार कपड़े बनाते हैं, तो हमारा जीवन हमेशा अंधकार में क्यों रहता है। अधिकांश समय, हम बैंकों से कर्ज़ लेने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, जो हमें स्थानीय साहूकारों से उधार लेने पर मजबूर करता है, जिसके ब्याज़ दर काफी ऊंची यानि प्रति माह 5 प्रतिशत होती हैं। बाजार में काम नहीं होने और ढेरों अदायगियों के कारण, हमें पुनर्भुगतान में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। हम में से कई लोग सदियों पुरानी बुनाई की परंपरा को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं और कमाई के वैकल्पिक स्रोत की तलाश कर रहे हैं, ”उन्होंने कहा।

कई बुनकरों और कारीगरों को नई जीएसटी प्रणाली के तहत काम करने में कठिनाई हो रही है। काम के लिए पूंजी की कमी के अलावा, धागों की आसमान छूती कीमतें यहां के बुनकरों के लिए एक और बड़ी चुनौती पेश कर रही हैं। उन्होंने कहा, "सूत और अन्य कच्चे माल इतने महंगे हो गए हैं कि छोटे बुनकर इन्हें वहन नहीं कर सकते हैं और इसलिए, वे व्यापारियों और बिचौलियों पर निर्भर हैं जो उन्हें सभी कच्चे माल उपलब्ध कराते हैं।"

आलोक ने यह भी बताया कि कई कॉरपोरेट्स दिग्गजों के मैदान में उतरने से शोषण बढ़ा है। उन्होंने आरोप लगाया कि गरीब बुनकरों का फायदा उठाकर वे कम मजदूरी देते हैं। कोई विकल्प नहीं होने के कारण, गरीब बुनकर निराशाजनक रकम पाने के लिए सहमत हो जाते हैं।

समस्या के समाधान के प्रयास 

उन्होंने सुझाव दिया कि पावरलूम क्षेत्र के समग्र और सतत विकास के लिए सरकार को हथकरघा उत्पादों के व्यापार/विपणन के लिए विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को शुरू करना  चाहिए। अन्य सुझावों में बुनियादी ढांचे के विकास, ब्रांड निर्माण, प्रशिक्षण और कौशल उन्नयन, डिजाइन के साथ-साथ उत्पाद विविधीकरण, प्रौद्योगिकी उन्नयन, रियायती कीमतों पर कच्चे माल उपलन्ध करना, कम ब्याज दरों पर आसान कर्ज़ देना और समकालीन डिजाइनों का समावेश कर कल्याणकारी योजनाओं के तहत बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं और जीवन बीमा का प्रावधान करना चाहिए।

“हमारे पास जो करघे हैं, वे हथकरघा के उन्नत या विकसित संस्करण हैं। वे पुराने हो चुके हैं। अगर सरकार चाहती है कि हम प्रतिस्पर्धा में बने रहें, तो हमें नवीनतम तकनीकों पर आधारित नई मशीनें दी जानी चाहिए। मरते हुए क्षेत्र को एक नया जीवन देने के लिए, कम ब्याज दरों पर ऋण आसानी से मिलना चाहिए। बैंक प्रक्रियाओं को आसान बनाया जाना चाहिए ताकि इसका लाभ बड़ी संख्या में बुनकरों तक पहुंच सके। वर्तमान में सरकार हमें एक ऑनलाइन आवेदन के माध्यम से 50 प्रतिशत की सब्सिडी के साथ 10 लाख रुपये का ऋण देती है। शॉर्टलिस्ट किए गए आवेदक को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है, लेकिन अधिकारियों को रिश्वत देने वालों को ही वित्तीय मदद मिल पाती है। हम में से अधिकांश लोग अनपढ़ हैं और ऑनलाइन आवेदन करने में सक्षम नहीं हैं। अगर इन प्रक्रियाओं में ढील दी जाती है, तो यह बहुत मददगार होगा," अंसारी ने कहा।

दूसरा बड़ा मुद्दा बिजली दरों का है। बुनकर वर्तमान में 7.21 रुपये प्रति यूनिट वाणिज्यिक दर के मुक़ाबले 3.21 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बिल का भुगतान कर रहे हैं। यह हमेशा बुनकरों और बिजली विभाग के बीच विवाद का विषय बना रहता है। बिहार सरकार ने बुनकरों के बिजली के बकाए को नियमित करने की सुविधा के लिए वन टाइम सेटलमेंट (ओटीएस) योजना लाने का फैसला किया था, लेकिन वह भी काम नहीं आई है। 

यदि सरकार अपने दफ्तरों, बंगलों, अस्पतालों आदि के लिए आवश्यक कपड़े सीधे बुनकरों से खरीदना शुरू कर देती है, तो समुदाय को उसका बाजार मिल जाएगा। “इसके अलावा, अगर भागलपुर में कपड़ा बाजार स्थापित करने की हमारी लंबे समय से मांग पूरी हो जाती है, तो हम खुद को बिचौलियों के चंगुल से मुक्त कर पाएंगे। हम वहां से कच्चा माल खरीद सकेंगे और अंतिम तैयार उत्पाद बाज़ार में बेच सकेंगे। यह व्यापारियों पर हमारी निर्भरता को भी कम करेगा, ”आलोक ने बताया।

उन्होंने आगे बताया कि “बुनकरों को बाज़ार में अपने दम पर टिके रहने के लिए एक कुशल मंच/एसोसिएशन/संगठन या बाज़ार की ज़रूरत है। वर्तमान एसोसिएशन और संगठन बुनकरों को समर्थन देने के मामले लिए पर्याप्त रूप से कुशल नहीं हैं,”।

पूंजी की समस्या को हल करने के लिए, बुनकरों की मजदूरी बढ़ाने की जरूरत है, उन्होंने कहा कि यह निगरानी की जानी चाहिए कि क्या व्यापारी 1 अक्टूबर, 2018 को घोषित राज्य सरकार के न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का पालन कर रहे हैं, जो कहता है कि अकुशल और अर्ध कुशल को 257 रुपये प्रतिदिन (6,682 रुपये प्रति माह) और 268 रुपये प्रति दिन (6,968 रुपये प्रति माह) मिलना चाहिए, जबकि कुशल, उच्च कुशल को 325 रुपये प्रति दिन (8,450 रुपये प्रति माह) और 396 रुपये (10,296 रुपये प्रति माह) प्रति दिन दिए जाने चाहिए।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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