Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

सांस-सांस को तड़पता भारत: घोर कुप्रंधन की एक और मिसाल

सरकार के शीर्ष पर बैठे दो लोग ही सारे फैसले ले रहे हैं और कोई नहीं जानता है कि ये फैसले किस आधार पर लिए जा रहे हैं। यह महाविनाश का ही नुस्खा है और सभी भारतीय इस सच्चाई को अब आसानी से देख पा रहे हैं।
सांस-सांस को तड़पता भारत: घोर कुप्रंधन की एक और मिसाल

पूरा देश कोविड-19 की नृशंस दूसरी लहर की चपेट में है और उसने दैनिक नये केसों का विश्व रिकार्ड तोड़ दिया है। स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा बैठ गया है और ऑक्सिजन जैसी अतिमहत्वपूर्ण चिकित्सकीय आपूर्तियां खत्म होने के कगार पर हैं। अस्पतालों में बेड तथा आइसीयू भर चुके हैं और ऑक्सिजन नहीं है, जिससे अनेक दु:खद मौतें भी हो चुकी हैं। बहुत से अस्पतालों ने मरीजों को भर्ती करना बंद कर दिया है और पहले से भर्ती बहुत से मरीजों को छुट्टी देकर भेज दिया है। हजारों लोग ऑक्सिजन सिलेंडरों की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं कि कम से कम घर पर ही मरीज को ऑक्सिजन लगा सकें। कोविड के मरीज बेबस हैं और शब्दश: सांस-सांस के लिए तड़प रहे हैं।

पिछले साल की ही तरह, यह सरकार दूसरी लहर का पूर्वानुमान करने में और स्वास्थ्य व्यवस्था के मोर्चे पर आवश्यक तैयारियां करने में विफल रही हैं, जबकि अनेक विशेषज्ञों ने इस दूसरी लहर की भविष्यवाणी की थी। अगर मद्रास हाई कोर्ट को यह लगा है कि चुनाव आयोग, विशाल चुनाव रैलियों की इजाजत देकर ‘हत्याओं’ का दोषी है, तो केंद्र सरकार तो मुजरिमाना तरीके से लापरवाह साबित हुई है।

ऑक्सिजन की उपलब्धता

ऑक्सिजन की मौजूदा तंगी उसकी असामान्य रूप से बढ़ी हुई मांग, चिकित्सकीय ऑक्सिजन के उत्पादन के कम पड़ने और वितरण की समस्याओं के योग का नतीजा है। इनमें से कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका पहले से पता नहीं रहा हो। 

भारत में औद्योगिक उपयोग की तथा चिकित्सकीय उपयोग की, दोनों ही तरह की ऑक्सिजन को मिलाकर, करीब 7,127 मीट्रिक टन ऑक्सिजन की दैनिक उत्पादन क्षमता है। दोनों ही उपयोगों की आक्सीजन बुनियादी तौर पर एक जैसी ही होती है। उसे एक ही तरह से बनाया जाता है और यह 95 से 99 फीसद तक, शुद्घता के एक जैसे मानकों को पूरा करती है। मुख्य अंतर दोनों के भंडारण के टैंकों तथा ढुलाई के टैंकरों का होता है। चिकित्सकीय ऑक्सिजन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले टैंक तथा टैंकर, कहीं कम अशुद्घताओं की गुंजाइश वाले होते हैं और इससे संबंधित प्रमाणन के साथ आते हैं। 

सरकार के प्रवक्ता, उत्तर प्रदेश सरकार और हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के सामने सोलिसिटर जनरल ने, बार-बार यह दावा किया है कि ऑक्सिजन की आपूर्ति की तो कोई कमी ही नहीं है। बस ऑक्सिजन के परिवहन की समस्या और समस्या है राज्यों के कुप्रबंधन की और जमाखोरी तथा कालाबाजारी की समस्याएं हैं। बहरहाल, जरा गहराई से देखने पर आंकड़े हमें बताते हैं कि चिकित्सकीय ऑक्सिजन के कुल उत्पादन में, वास्तव में तंगी की समस्या है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 24 अप्रैल तक, सभी स्रोतों से दृवीकृत चिकित्सकीय ऑक्सिजन (एलएमओ) का कुल उत्पादन, 9,103 मीट्रिक टन था, जो अप्रैल के आखिर तक बढक़र 9,250 मीट्रिक टन हो जाने की अपेक्षा है, जबकि पहले यही आंकड़ा 7,259 मीट्रिक टन था। यह भी दावा किया गया है कि चिकित्सकीय ऑक्सिजन का दैनिक उत्पादन, 2020 के अगस्त में 5,700 मीट्रिक टन के स्तर पर था। 

कोविड-पूर्व भारत में एलएमओ की दैनिक मांग करीब 700 मीट्रिक टन थी, जो पहली लहर के दौरान तेजी से बढक़र 4,800 मीट्रिक टन पर पहुंच गयी थी। उस समय चिकित्सकीय ऑक्सिजन की अधिकांश कमी की भरपाई, अपने उपयोग के लिए ऑक्सिजन पैदा करने वाले विभिन्न उद्योगों की आपूर्तियों को, चिकित्सकीय ऑक्सिजन की ओर मोड़कर की गयी थी। औद्योगिक ऑक्सिजन का उत्पादन 4,500 मीट्रिक टन के करीब है। इसमें से करीब 2,500 मीट्रिक टन उत्पादन नाभिकीय ऊर्जा, इस्पात, दवा, पैट्रोलियम रिफाइनरी, जल-मल शोधन, आदि नौ प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के ही हिस्से में आता है। अप्रैल के मध्य में सरकार ने इन नौ प्राथमिकता के क्षेत्रों को छोड़कर, बाकी सभी क्षेत्रों के औद्योगिक

ऑक्सिजन उत्पादन को अनिवार्य रूप से चिकित्सकीय उपयोग की ओर मोड़ दिया था। बाद में प्राथमिकता वाले इन नौ क्षेत्रों को भी इस प्रयास में खींच लिया गया और उन्होंने एक हद तक अपने ऑक्सिजन उत्पादन को बढ़ाया भी है। बहरहाल, औद्योगिक ऑक्सिजन का इस तरह चिकित्सकीय उपयोग की ओर मोड़ा जाना तो, एक अस्थायी, फौरी कदम ही हो सकता है। ज्यादा बड़े उद्यम तो फिर भी इसके झटके को झेल सकते हैं, लेकिन लघु तथा मंझले उद्योग तो पहले ही इसके चलते संकट में आ गए हैं। मिसाल के तौर पर त्रिची में भेल के लिए बॉयलर बनाने वाले लघु तथा मंझले उद्यम, अपना काम बंद कर रहे बताए जाते हैं, जबकि विडंबनापूर्ण है कि भेल के अपने ऑक्सिजन संयंत्र सालों से बंद पड़े हुए हैं। जब सभी उद्योग नियमित रूप से काम करना शुरू कर देंगे, जैसा कि होना ही चाहिए, तब भारत को चिकित्सकीय ऑक्सिजन की प्रतिदिन लगभग 5,000 टन की तंगी का सामना करना पड़ेगा।

यहां तक कि  9,000 मीट्रिक टन प्रतिदिन का कुल आक्सीजन उत्पादन, उतना अच्छा भी नहीं है जितना ऊपर से देखने में लगता है। अनेक मॉडलों के हिसाब से मई के महीने में नये केसों का दैनिक आंकड़ा 5 लाख तक पहुंच सकता है और उस सूरत में आक्सीजन की मांग 12,000 मीट्रिक टन से भी ऊपर निकल सकती है, जबकि सभी प्रमुख आक्सीजन उपयोक्ता उद्योग बंद होंगे। मौजूदा प्रयास कुछ समय के लिए तो मददगार हो सकते हैं, लेकिन आगे सिर पर एक और संकट मंडरा रहा है।

इसलिए, सरकार ने 50,000 मीट्रिक टन एलएमओ के आयात का इमर्जेंसी टेंडर जारी किया है और आगे चलकर और अतिरिक्त एलएमओ का आयात कर सकती है। ऐसा लगता है कि भारत के पास 50,000 मीट्रिक टन एलएमओ का सुरक्षित भंंडार भी है। सार्वजनिक चर्चा में इसका जिक्र कम ही आता है, हालांकि यह भी कुल 5 दिन की ही जरूरत पूरी कर सकता है। साफ है कि कोविड-19 की पहली लहर में चिकित्सकीय आक्सीजन की तंगी सामने आने के बावजूद, उसके उत्पादन की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए सरकार ने कोई प्रयास ही नहीं किया था।

ऑक्सिजन उत्पादन संयंत्र

केंद्र सरकार इसका काफी ढोल पीट रही है कि आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उसने अब 551 आक्सीजन निर्माण संयंत्र लगाने के आदेश दिए हैं। ये प्रेशर स्विंग एब्सोब्र्शन (पीएसए) आक्सीजन संयंत्र जिला अस्पतालों में लगाए जाएंगे, जो इन जिला अस्पतालों की आक्सीजन की जरूरतें पूरी करने के अलावा संबंधित क्षेत्र की अन्य चिकित्सकीय सुविधाओं को भी आक्सीजन मुहैया कराएंगे। यह संख्या, 162 पीएसए आक्सीजन संयंत्रों के पिछले साल जारी किए गए आदेश के ऊपर से है। इस मामले में इन पहली नजर में प्रभावशाली लगने वाली संख्याओं के पीछे झांक कर देखने पर, एक अलग ही हकीकत सामने आती है।

पीएसए आक्सीजन संयंत्र, बड़े-बड़े उद्योगों में द्रव आक्सीजन के उत्पादन के मुकाबले, चिकित्सकीय आक्सीजन गैस के उत्पादन का कहीं छोटा, कहीं सरल तथा कहीं सस्ता विकल्प मुहैया कराते हैं।

संक्षेप में यह कि साधारण हवा में 78 फीसद नाइट्रोजन और 21 फीसद आक्सीजन होती है और शेष हिस्सा अरगोन तथा अन्य निष्क्रिय गैसों का होता है। पीएसए संयंत्र एक विशेष छन्नी के जरिए हवा में नाइट्रोजन को सोखने तथा इस तरह आक्सीजन को अलग करने और उसके बाद नाइट्रोजन को छोडऩे के जरिए प्रक्रिया को पलटने (स्विंग) और नये सिरे से वही चक्र शुरू करने के जरिए काम करते हैं। इस प्रक्रिया में 93 से 95 फीसद तक शुद्घता की आक्सीजन मिलती है, आइसीयू के वेंटीलेटरों को छोडक़र, अधिकांश चिकित्सकीय कामों के लिए उपयुक्त होती है। ऐसे किसी संयंत्र को लगाने में सामान्यत: 4 से 6 हफ्ते तक लगते हैं।

भारत में महामारी का प्रकोप शुरू होने के कई महीने बाद, 2020 के अक्टूबर में सरकार ने 150 पीएसए आक्सीजन संयंत्रों के लिए टेंडर जारी किया था, जिसमें 12 और संयंत्र बाद में जोड़ दिए गए थे। 14 राज्यों के जिला अस्पतालों में अलग-अलग आकार के ये संयंत्र लगाए जाने थे। दुर्भाग्य से अब तक विभिन्न राज्यों में इनमेें से 33 संयंत्र ही लगाए जा सके हैं।

केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता बार-बार और जोर-शोर से इस मुद्दे को उठाकर राज्य सरकारों पर इस काम में ढिलाई का दोष डालने की कोशिश करते रहे हैं। उनकी ओर से यह दावा भी किया जाता रहा है कि केंद्र ने तो राज्यों को इसके लिए पैसा भी दे दिया था। सचाई यह है कि ये संयंंत्र पीएम केअर्स फंड से पूर्ण भुगतान के आधार पर लगने थे और राज्यों की भूमिका सिर्फ इनकी स्थापना में मदद करने की होनी थी, जबकि केंद्र सरकार को ही बराबर इस काम की प्रगति की निगरानी करनी थी। केंद्र सरकार अब दावा कर रही है कि उक्त आर्डर में से बचे हुए संयंत्र, अगले महीने में लग जाएंगे।

बहरहाल, इस सिलसिले में महत्वपूर्ण नुक्ता यह है कि ये संयंत्र सचमुच छोटे हैं। पिछले साल 201 करोड़ रु0 के खर्च के साथ, जिन 162 संयंत्रों के निर्माण का आदेश किया गया था, उनकी कुल आक्सीजन उत्पादन क्षमता सिर्फ 154 मीट्रिक टन की होनी थी। इनमें से 105 संयंत्रों की क्षमता तो एक-एक मीट्रिक टन भी नहीं है, जबकि सबसे बड़े की क्षमता, 4 मीट्रिक टन है। इसके हिस्से के तौर पर दिल्ली को आवंटित 8 संयंत्रों की कुल क्षमता 14.4 मीट्रिक टन होनी थी। जाहिर है कि दिल्ली की 700 मीट्रिक टन की रोजाना की मांग के सामने, यह तो ऊंट के मुंह में जीरे का ही मामला है।

इसलिए, यह साफ  है कि इन पीएसए संयंत्रों से (हम यह मानकर चल रहे हैं अब घोषित 551 अतिरिक्त संयंत्र भी क्षमता के मामले में पहले के ऑर्डरों के संयंत्रों के जैसे ही होंगे) देश की कुल आक्सीजन उत्पादन क्षमता में बहुत इजाफा होने वाला नहीं है। इन संयंत्रों का मकसद ग्रामीण तथा दूर-दराज के जिला अस्पतालों को घरू आक्सीजन उत्पादन संयंत्र मुहैया कराना है ताकि उन्हें कुछ घरू आक्सीजन आपूर्ति उपलब्ध हो और उन्हें पूरी तरह से बाहरी आपूर्तियों पर ही निर्भर न रहना पड़े। बेशक, यह दीर्घावधि के लिए एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, लेकिन यह अपने आप में मौजूदा संकट को हल नहीं कर सकता है। दिल्ली में अब आप पार्टी की सरकार भी ऐसे ही 40 और संयंत्र हासिल कर रही है। इससे कुछ खास अस्पतालों को तो आक्सीजन की नाजुक कमी से छुट्टी मिल सकती है, लेकिन कुल मिलाकर समस्या हल होने वाली नहीं है।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, प्रधानमंत्री कार्यालय ने 500 और पीएसए संयंत्र हासिल करने का एलान किया है। ये संयंत्र, पीछे हम जिन 713 संयंत्रों की चर्चा कर आए हैं, उनके ऊपर से होंगे। उचित होगा कि इन पीएसए संयंत्रों की क्षमताओं पर पुनर्विचार कर लिया जाए। भविष्य के लिए यह भी अच्छा होगा कि एक निश्चित आकार से बड़े अस्पतालों के लिए घरू ऑक्सिजन उत्पादन क्षमता स्थापित करने को अनिवार्य कर दिया जाए, उसके लिए चाहे वे पीएसए जैसी प्रौद्योगिकी के संयंत्रों का उपयोग करें या फिर अपने आकार के हिसाब से क्रायोजैनिक एलएमओ संयंत्रों का उपयोग करें। बहरहाल, मुख्य समस्या फिर भी रहेगी और यह समस्या यही है कि औद्योगिक ऑक्सिजन से अलग, कुल मिलाकर एलएमओ के उत्पादन की क्षमता में कैसे इजाफा किया जाए।

ऑक्सिजन कन्सेन्ट्रेटर

इन दिनों ऑक्सिजन कन्सेन्ट्रेटर मंगाए जाने के काफी चर्चे हो रहे हैं। ये उठाऊ, मरीज के बिस्तर की बगल में लगाने वाले उपकरण, वातावरण की वायु से पीएसए यूनिटों की जैसी ही पद्घति का उपयोग कर, 90 से 95 फीसद तक शुद्घ आक्सीजन बना लेते हैं। लेकिन, ये उपकरण सिर्फ 5 से 10 लीटर प्रति मिनट ऑक्सिजन ही बना पाते हैं, जिससे वेंटीलेटर वाले मरीजों का या अन्य ऐसे नाजुक मरीजों का काम नहीं चल सकता है, जिन्हें 40-50 लीटर प्रति मिनट तक ऑक्सिजन की जरूरत होती है। बहरहाल, कोविड से मामूली से कम असर तक के पीड़ितों के लिए, ये बिल्कुल उपयुक्त होते हैं। इन ऑक्सिजन कन्सेन्ट्रेटरों की एक अच्छी बात ये है कि इन्हें दिन में लगातार चौबीस घंटे तक चलाया जा सकता है और ये पांच साल या उससे भी ज्यादा चल जाते हैं।

केंद्र सरकार ने शुरू में भारत की विभिन्न कंपनियों की ओर से कुल मिलाकर 10 हजार कन्सेन्ट्रेटरों का आयात करने का एलान किया था, अब इस संख्या को काफी बढ़ा दिया गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने पीएम केअर्स फंड का उपयोग कर 1 लाख कन्सेन्ट्रेटर खरीदने का एलान किया है। इसके अलावा यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फंड नाम के अमरीका आधारित एडवोकेसी ग्रुप ने, 1 लाख और कन्सेन्ट्रेटर तथा अन्य आक्सीजन से जुड़े उपकरण, भारत को दान करने का फैसला लिया है।

आक्सीजन कन्सेन्ट्रेटर, चिकित्सकीय उपयोग के लिए आक्सीजन की आपूर्ति की शृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं और सामान्यत: आक्सीजन सिलेंडरों द्वारा अदा की जाने वाली भूमिका को संभाल सकते हैं। भारत में आक्सीजन कन्सेन्ट्रेटर 40 से 90 हजार रु0 तक में मिलते रहे हैं, जबकि सिलेंडर 8 से 20 हजार रु0 तक के मिलते रहे हैं। सिलेंडर के मुकाबले, कन्सेन्ट्रेटर के उपयोग में कम मेहनत लगती है और उसमेें भरवाई, ढुलाई का न कोई अतिरिक्त झंझट है और न ऐसा कोई खर्चा। बेशक, फिलहाल कन्सेन्ट्रेटरों की कीमत उसी तरह दोगुनी हो गयी है, जैसे आक्सीजन के सिलेंडर काला बाजार में पहले के दाम से कई गुने ज्यादा में मिल रहे हैं। इसके अलावा आक्सीजन सिलेंडरों की बहुत भारी तंगी भी है।

कोविड से पहले तक हमारे देश में कन्सेन्ट्रेटरों की मांग 40 हजार यूनिट सालाना की थी, जो अब बढक़र करीब 35,000 प्रतिमाह पर पहुंच गयी है। भारत में इसकी अधिकांश आपूर्ति करीब 50 आपूर्तिकर्ता करते रहे हैं। इनमें आठ तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही हैं, जिनमें फिलिप्स सबसे बड़ी आयातकर्ता है। इस पर 0.75 फीसद का बहुत ही मामूली आयात शुल्क लगने के चलते, घरेलू पैमाने पर इनका उत्पादन गैर-लाभकर बना रहा है। इसी तरह की समस्याएं विभिन्न चिकित्सकीय उपकरणों के साथ हैं। इन समस्याओं को चाहे देर से ही सही, कोरोना की पहली लहर के दौरान वेंटीलेटर, पीपीई आदि के मामले में सचेत रूप से हल भी किया गया था। जाहिर है कि तब आक्सीजन कन्सेन्ट्रेटर ध्यान से छूट ही गए थे। उद्योग एसोसिएशन के प्रवक्ताओं ने सुझाव दिया है कि जैसाकि पिछले साल वेंटीलेटरों के मामले में किया गया था, सरकार को इनका घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए, भेल को इस उद्यम में शामिल करना चाहिए।

परिवहन और लॉजिस्टिक्स

बेशक, द्रव ऑक्सिजन की ढुलाई एक बड़ा मुद्दा है और यह एक और मुद्दा है जिसका पूर्वानुमान नहीं किया गया और जिसे हल ही नहीं किया गया। द्रव ऑक्सिजन विशेष क्रायोजैनिक टेंकरों में लायी-ले जायी जाती है, जो शून्य से 180 डिग्री कम तापमान पर एलएमओ की ढुलाई करते हैं। भारत में करीब 1,224 आक्सीजन टेंकर हैं, जिनमें ज्यादातर 10 या 20 मीट्रिक टन क्षमता के हैं और इनकी कुल ढुलाई क्षमता 17,732 मीट्रिक टन की है। ये टेंकर ज्यादातर एलएमओ उत्पादकों या ट्रान्सपोर्टरों के पास हैं। बहरहाल, एक फेरे के 6-7 दिन लगाएं तो व्यावहारिक रूप से इसका अर्थ होता है, हर रोज  करीब 200 टैंकरों का उपलब्ध होना। चूंकि प्रतिदिन करीब 8000 मीट्रिक टन एलएमओ की ढुलाई की जरूरत है, इन टैंकरों की मौजूदा उपलब्धता जरूरत के करीब तिहाई हिस्से के ही बराबर बैठती है। यह अंतर इतना बड़ा है कि इसे फिलहाल चल रही नाइट्रोजन तथा अरगोन की ढुलाई के काम में आने वाले करीब 1200 टैंकरों को, एलएमओ की ढुलाई के उपयोग के लिए तब्दील करने की कोशिश से, पूरा नहीं किया जा सकता है। क्रायोजैनिक टैंकर ऐसा एक प्रमुख आइटम है, जिसका केंद्र सरकार द्वारा तथा दिल्ली जैसे कुछ राज्यों द्वारा आयात किया जा रहा है और जो अनेक देशों से दान में भी मिला है।

क्रायोजैनिक टैंकरों की ढुलाई की रेलवे की कोशिशों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि इन टैंकरों के आकार और रेलवे के पुलों, सुरंगों आदि से होकर गुजर सकने वाली चीजों के आकार की सीमाओं का, मेल नहीं बैठ पाया है। अब एमएलओ उत्पादकों या ट्रांसपोर्टरों से तो इसकी उम्मीद नहीं ही की जा सकती है कि आपात स्थितियों की जरूरतों के हिसाब से, वे ऑक्सिजन लाई की इतनी फालतू क्षमता जमा करेेंगे। इसलिए, साफ तौर पर सरकार पर, जिसमें शायद केंद्र तथा राज्य दोनों की सरकारें आती हैं, यह जिम्मेदारी आती है कि ऐसी आपातस्थितियों की तैयारी कर के रखे और क्रायोजैनिक टेंकर जमा कर के रखे। प्रासंगिक स्तरों पर आपदा प्रबंधन एजेंसियों के माध्यम ये यह काम पूरा किया जा सकता है।

अतिकेंद्रीकरण और नियोजन की विफलता

यह सचमुच हैरत में डाल देने वाली बात है कि इन सभी समस्याओं का पूर्वानुमान तक नहीं किया गया और जो काफी समय उपलब्ध था, उसमें इन्हें हल ही नहीं किया गया। साफ है कि पहली लहर के असली सबक तो सीखे ही नहीं गए। निर्णय प्रक्रिया को अति-केंद्रीकृत बनाए रखा गया है। स्वतंत्र वैज्ञानिकों तथा अन्य विशेषज्ञों को, संचालक तंत्रों से बाहर रखा गया है और संदेश प्रबंधन को, जमीनी सच्चाइयों का सामना करने तथा उनसे निपटने के ऊपर रखा गया है। यह जिम्मेदारी पूरी करने में मुजरिमाना कोताही का मामला है!

कोविड-19 के प्रबंधन के लिए, 2020 के आरंभ में एक राष्ट्रीय कार्यदल का गठन किया गया था, जिसमें उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारियों तथा विशेषज्ञों को रखा गया था। इस राष्ट्रीय कार्यदल को ही महामारी से निपटने की नीति का मार्गदर्शन करने वाले प्रमुख निकाय का जिम्मा सौंपा जाना चाहिए था। इस कार्यदल का ऑपरेशन्स मैनेजमेंट संबंधी उप-दल तो, जिसके ऊपर आपूर्ति शृंखलाओं तथा लॉजिस्टिक्स सुनिश्चित करने की विशेषीकृत जिम्मेदारी थी, शायद ही कहीं तस्वीर में रहा होगा। यह भी सचमुच हैरान करने की बात है कि उक्त कार्यदल की 2021 की फरवरी या मार्च के दौरान तो, एक बैठक तक नहीं हुई। इस निकाय से उसी प्रकार टीकाकरण नीति पर कोई परामर्श नहीं किया गया, जैसे पिछले साल उससे लॉकडाउन के संबंध में कोई परामर्श नहीं किया गया था। सारे के सारे फैसले केंद्रीयकृत हैं। सरकार के शीर्ष पर बैठे दो लोग ही ये सभी फैसले ले रहे हैं और कोई नहीं जानता है कि ये फैसले किस आधार पर लिए जा रहे हैं। यह महाविनाश का ही नुस्खा है और सभी भारतीय इस सच्चाई को अब आसानी से देख पा रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

COVID Horror: Criminal Dereliction of Duty While Indians Gasp for Breath

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest