कट, कॉपी, पेस्ट: राष्ट्रवादी एजेंडे के लिए भारतीय खिलाड़ियों के सोशल मीडिया का इस्तेमाल
इन दिनों अनिल डे नाम की चर्चा आम है। डे एक प्रतिभाशाली मिडफ़ील्डर थे और 1940 के दशक में मोहन बाग़ान को पसंद करने वाले लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय थे और 1950 के दशक के शुरुआती दिनों में अपनी ख़ूबसूरती को लेकर वह उतना ही मशहूर थे, जितना कि अपने फुटबॉल को लेकर। वह इतने स्टाइलिश और मोहक फुटबॉलर थे कि बंगाली फ़िल्म उद्योग की एक मशहूर महिला उन दिनों मोहन बाग़ान मैदान में नियमित रूप से मौजूद रहती थीं, वह मैदान में सिर्फ़ इसलिए होती थीं, ताकि डे का उत्साह बढ़ा सके।
बाद में जाकर इन दोनों ने शादी कर ली और कुछ सालों बाद वे एक दूसरे से अलग भी हो गये। लेकिन, डे को जिस वजह से याद किया जायेगा, वह इससे एकदम अलग वजह है।
1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था, तब कलकत्ता (अब कोलकाता) के मैदान में खेल गतिविधियां रुक गयी थीं। अंग्रेज़ों का एक समूह, जिसमें स्टार बल्लेबाज़,डेनिस कॉम्पटन भी शामिल थे, उसने इस स्थिति के बावजूद यह फ़ैसला किया कि ईडन गार्डन्स में दाखिल हुआ जाये।
हालांकि, मैच पूरा नहीं हो सका। अनिल डे की अगुवाई में एक हुजूम ने कांग्रेस का झंडा लेकर पिच पर मार्च किया और मैच को तुरंत रोक देना पड़ा। कॉम्पटन ने अपनी आत्मकथा में इस घटना का उल्लेख बहुत ही कड़वाहट के साथ किया है और इसके बाद भारत की "विघटनकारी" राष्ट्रवादी राजनीति पर कुछ बेहद असहज टिप्पणी की है।
डे को याद रखा जाए, इसकी परवाह किसी ने नहीं की। उन लोगों ने भी उन्हें उन्हें याद करने की जहमत नहीं उठाई, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक मुद्दों पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की तेज़तर्रार अमेरिकी फुटबॉल खिलाड़ी, मेगन रेपीनो की तीखी आलोचना की वाहवाही की है। इसमें कोई हैरत की बात नहीं। अनिल डे को पसंद किये जाने को भारतीय खेल जगत में अब ज़्यादा बढ़ावा नहीं दिया जाता है, ख़ासकर इन दिनों, जब “कट और पेस्ट” से किये गये ट्विटर पोस्ट को तत्काल स्टारडम पाने का आसान रास्ता मान लिया जाता हो।
किसी चीज़ के बारे में एक राय रखना कोई मुद्दा ही नहीं है। बल्कि ऐसा करना तो एक स्वागत योग्य संकेत है। अल्बर्ट कामू की एक मशहूर उक्ति है, "हमारी दुनिया को चैतन्य आत्माओं की ज़रूरत नहीं है। बल्कि उत्साही दिलों की ज़रूरत है, जिन्हें समभाव की उचित जगह मालूम है।”
उन्हें यह देखकर ख़ुशी होती कि भारत के प्रतिष्ठित शीर्ष खिलाड़ी इन दिनों हर राष्ट्रीय मुद्दे पर कितनी दृढ़ता के साथ प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इससे पहले शायद कभी भारतीय खेल जगत से जुड़े पुरुष और महिला खिलाड़ियों को राजनीतिक रूप से इतना जागरूक होते नहीं पाया गया और जब भी उन्हें लगता है कि राष्ट्र को उनकी "सेवाओं" की ज़रूरत है, वे बिना देर किये अपनी प्रतिक्रियायें देते जा रहे हैं।
हर प्रतिभाशाली एथलीट का पिच पर अपनी सूझबूझ के इस्तेमाल का अपना ख़ास तरीक़ा होता है। लेकिन, अब इस विविधता में भी उल्लेखनीय एकता देखी जा रही है। जिस तरह से वे ट्वीट किये जा रहे हैं, उससे तो पिच के बाहर भी वे अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हुए दिख रहे हैं; जितनी बार ख़ुद को साबित करने के लिए आगे आते हैं, हैरत है कि उतनी बार उनकी ज़बान में समानता होती है।
ऐसा नहीं कि किसानों के विरोध को लेकर यह कोई हालिया घटना है, बल्कि पिछले कुछ सालों से इस तरह की चीज़ें बहुत ज़्यादा देखी जा रही हैं। अक्टूबर 2019 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिवाली के दौरान भारत लक्ष्मी कार्यक्रम की शुरुआत की थी, तो आठ शीर्ष महिला खिलाड़ी उन्हें बधाई देने के लिए फ़ोन करने लगीं। बैडमिंटन खिलाड़ी-पीवी सिंधु, विश्व चैंपियन मुक्केबाज़-एम.सी.मैरी कॉम और लंदन ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता-साइना नेहवाल सहित बाक़ी सभी आठों खिलाड़ियों ने प्रधानमंत्री को धन्यवाद देते हुए एक ही तरह के संदेश ट्वीट किये।
उनमें से आठों के आठ ने ट्वीट किया, “मैं इस दिवाली के मौक़े पर महिलाओं को सम्मानित और सशक्त बनाने की उनकी इस पहल के लिए @narendramodi को धन्यवाद देती हूं। हमारी कड़ी मेहनत के लिए प्रेरित करने और भारत को गर्वान्वित करने के लिए आभार। #bharatilaxaxmi.”
दिलचस्प बात यह है कि पीएम मोदी का सबसे पहले शुक्रिया अदा करने वाली पहलवान-पूजा ढांडा का बधाई संदेश देने से पहले जो एक शब्द जुड़ा था, वह था “Text:” यह इस बात का एकदम साफ़ संकेत था कि उस अभियान पर अपने विचार साझा करने के बजाय उन्हें किसी से ट्वीट करने के लिए एक बना-बनाया टेक्स्ट उपलब्ध कराया गया था। जैसे ही यह वायरल हुआ, पहलवान को इसे हटाना पड़ा (या ऐसा करने के लिए कहा गया)।
फिर, सवाल उठता है कि आख़िर इसमें खिलाड़ियों को दोषी ठहराने की कौन सी बात है ? कुछ दिनों पहले एक महिला पत्रकार ने ट्वीट किया था कि किस तरह से किसानों के विरोध प्रदर्शन में उनके साथ छेड़छाड़ हुई। दोषियों को गिरफ़्तार करने की मांग करते हुए उन्होंने (हिंदी में) लिखा: "मैं सिर्फ़ एक पत्रकार ही नहीं, एक महिला भी हूं।" इसी तरह की एक पोस्ट कई अन्य महिला पत्रकारों के ट्विटर हैंडल के ज़रिये भी दिखायी दी। अव्वल तो यह कि एक पुरुष पत्रकार ने भी इसी टेक्स्ट को ट्वीट कर दिया !
अब हम फिर खेल पर आते हैं, गायिका-रियाना की तरफ़ से ट्विटर पर किसानों के विरोधों पर दुनिया का ध्यान देने का अनुरोध किये जाने के बाद देश के शीर्ष मौजूदा और पूर्व क्रिकेटरों को इस तरह के किसी भी शर्मनाक क़दम के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। किसी खेल टीम के सच्चे सैनिकों की तरह, क्रिकेट बिरादरी के सर्वोत्तम खिलाड़ियों ने देश को एकजुट रहने और बाहरी ताक़तों को देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देने की बात कही।
आलोचक तो बहुत सी बातें कह सकते हैं, जैसे कि क्रिकेट बोर्ड अब किसी विशेष राजनीतिक पार्टी के दफ़्तर की तरह हो गया है और हर मौजूदा और पूर्व क्रिकेटर इस मुद्दो को लेकर एक ही तरह का रुख़ अपना रहे हैं, कयोंकि उन्हें मौजूदा सत्ता-संरचना से कुछ हासिल करना है। लेकिन, यहां तो उनमें से हर एक एक महान लोकतांत्रिक राष्ट्र के ज़िम्मेदार नागरिकों की तरह अपनी भाषा में बात करते हुए दिख रहे थे।
सचिन तेंदुलकर ने कहा, “भारत की संप्रभुता के साथ समझौता नहीं किया जायेगा। बाहरी ताक़तें दर्शक हो सकती हैं, भागीदार नहीं।” कोहली ने लोगों से "असहमति के इस दौर में एकजुट रहने" का आह्वान किया। ऑस्ट्रेलिया में टीम की कप्तानी करन वाले अजिंक्य रहाणे ने कहा, "एकजुट रहें।" कोच, रवि शास्त्री ने कहा कि यह एक "अंदरूनी मामला" है और उनके पूर्ववर्ती कोच, अनिल कुंबले ने कहा कि "भारत अपने अंदरूनी मुद्दों को लेकर सौहार्दपूर्ण समाधानों पाने में सक्षम है।"
क्रिकेट के नज़रिये से रियाना के ट्वीट ने भारतीय प्रशंसकों के बीच नयी उम्मीदें जगा दी हैं। चलिए, कोहली और कुंबले कम से कम एक मुद्दे पर तो एक साथ खड़े हो सकते हैं, निश्चित रूप से इस संकट के बीच ऐसा होना सबसे बड़ी बात है।
यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी वजह से पिछले कुछ दिनों से तूफ़ान खड़ा हो गया था। लेकिन, इस कहानी का एक और पहलू भी है, जिसका ज़िक़्र शायद ही कभी हुआ हो। भारतीय खेल जगत में अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो महसूस करते हैं कि अगर भारत में किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बारे में इस बारबेडियाई गायिका ने बात कर दी, तो इससे आकाश तो नहीं गिर गया। ठीक है कि ये ऐसे लोग नहीं हैं, जिनका इस वक़्त कोई राष्ट्रीय क़द हों और जिनके पास बैंकों में लाखों रुपये हों। लेकिन, उनके पास ख़ुद के दिमाग़ तो हैं और स्वतंत्र रूप से सोच तो पाते हैं।
ऐसे ही लोगों में चेन्नई के गोलकीपर-करनजीत सिंह हैं। एक दशक पहले वे राष्ट्रीय टीम का हिस्सा थे, लेकिन अब वे अपनी उम्र के तीसरे दशक के बीच के पड़ाव में हैं, वह इस समय भी इंडियन सुपर लीग (ISL) में बने हुए हैं। इस शॉट स्टॉपर ने किसान विरोध पर स्टार क्रिकेटर-शिखर धवन की टिप्पणी पर तेज़ी से चोट मारकर हैरत में डाल दिया है।
ऐसा नहीं कि फुटबॉल बिरादरी में ऐसा करने वाले करनजीत अकेले हैं। जर्मनप्रीत सिंह, अनिरुद्ध थापा और दीपक टंगड़ी जैसे होनहार नौजवानों ने अब तक एक अलग ही तरह का रुख़ अपनाया है। बाईस वर्षीय टंगड़ी, जिन्होंने जूनियर स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया है, उन्होंने अपने ट्वीट में कहा, “भले ही दुनिया देख पा रही हो या नहीं, लेकिन ये उन असली लोगों के असली मुद्दे हैं, जिनकी रीढ़ पर यह महान देश बना है (तक़रीबन यही शब्द हैं)
तर्क और उस तर्क के ख़िलाफ़ किया जाने वाला तर्क जीवन का हिस्सा है, हर किसी को अपनी राय रखने का हक़ है। लेकिन, इससे खेल जगत, ख़ासकर क्रिकेट जगत में एक अवांछित विभाजन पैदा हो रहा है। क्रिकेटरों के एक वर्ग के बीच निश्चित रूप से यह एक ज़बर्दस्त भावना है (हालांकि यह ग़लत भी हो सकता है), कम से कम ऐसा लगता ज़रूर है कि जो लोग सरकार के विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं, ऐसा इसलिए कि शायद उन्हें इस सौदेबाज़ी से ज़्यादा फ़ायदा मिल सकता है।
कोहली और उनके विचारों से सहमति रखने वालों का विरोध करने वाले क्रिकेटरों के कुछ ट्वीट्स व्यंग्य से लिपटे हुए हैं, मसलन-किसानों के विरोध के मुद्दे अब धीमे पड़ गये हैं। बेशक, यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है, लेकिन ऐसी चीज़ें तब अपरिहार्य हो जाती हैं, जब सरकारें अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए खिलाड़ियों का इस्तेमाल करने में बहुत कम संयम दिखाती हैं। अफ़सोस की बात है कि यह प्रवृत्ति अब देश के नंबर एक खेल में व्याप्त हो गयी है और इसने दूसरे क्षेत्रों में भी अपने पंख फैला लिये हैं। मुक्केबाजी महासंघ के लिए हाल में हुए चुनावों में एक विशेष उम्मीदवार के पक्ष में एक सक्रिय मुक्केबाज़ का आना ठीक नहीं था, लेकिन इसका विरोध नहीं किया गया।
अनिल डे ने 79 साल पहले जो कुछ किया था, वह उनकी स्वतंत्र इच्छा थी; उन्होंने मोहन बाग़ान या ब्रिटिश-प्रभुत्व वाले आईएफ़ए में एक फुटबॉलर के रूप में अपनी हैसियत की कभी परवाह नहीं की। लेकिन, उसका उन्हें एक फ़ायदा भी मिला था। उन दिनों जो लोग भारत में खेल का संचालन कर रहे थे, उन्होंने एथलीटों को अपनी तरफ़दारी के लिए कभी नहीं कहा। मैदान से बाहर डे अपना जीवन जिस तरह तरह जीना चाहते थे, इसके लिए वह पूरी तरह स्वतंत्र थे। उनकी मौत एक भुलाये जा चुके नायक के तौर पर हो गयी, वह जिस खेल को खेल रहे थे, उससे उनकी क़िस्मत तो नहीं बनी। लेकिन, शायद, वह मौजूदा पीढ़ी के कई खिलाड़ियों से कहीं ज़्यादा भाग्यशाली थे।
(लेखक नई दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह उनकी व्यक्तिगत राय है)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे
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