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दलितों पर हमले और उनका विरोध गये वर्ष भी होते रहें !

जब भी दलितों ने अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश की तो उसे पूरी तरह दबा दिया गया। बजट आवंटन राशि घटा दी गई, महत्वपूर्ण नीतियां जो एससी तथा एसटी के उत्थान के लिए थी ख़त्म कर दी गई, इसके अलावा उनके साथ भेदभाव अभी भी जारी है।
 Dalits

मौजूदा केंद्रीय सरकार के शासन का एक और साल बीत गया और इस साल में दलितों के लिए ज़िन्दगी और भी दूभर हो गयी I दलितों और आदिवासियों के लिए इस साल सबसे बड़ा झटका रहा केंद्र सरकार के 2017 के बजट से अनुसूचित जाति सब-प्लान (एससीएसपी) और आदिवासी सब-प्लान (टीएसपी) को निकाल दिया जाना I

70 के दशक में लागू किये गये इन ख़ास कार्यक्रमों का उद्देश्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए चलाये जाने वाले विकास कार्यक्रमों के लिए पैसा आबंटित करना था I एससीएसपी और टीएसपी के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के जनसँख्या में अनुपात के अनुसार विभिन्न कार्यक्रमों के लिए फण्ड आबंटित किया जाता था I तथाकथित विकास की होड़ में इन तबकों को शामिल करने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई गयी थी I

2017 के बजट से न सिर्फ इस प्रक्रिया को पूरी तरह निकाल दिया गया बल्कि जो फण्ड दिया भी गया वह अनिवार्य अनुपात से बहुत कम था I राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान के अनुसार दलितों और आदिवासियों के लिए क्रमशः 91,386 करोड़ और 47,276 करोड़ रूपये आबंटित किये जाने चाहिए लेकिन साल 2017 के बजट में दलितों के लिए इसका 55% (52,393 करोड़ रूपये) और आदिवासियों के लिए 66.5% (31,920 करोड़ रूपये) ही दिया गया I

शिक्षा दलितों के लिए बहुत अहम पहलू है I 6-14 आयु वर्ग में 81% और 15-16 आयु वर्ग में 60% दलित छात्र स्कूल छोड़ देते हैं I पूर्व-मैट्रिक छात्रवृत्ति स्कूल छोड़ने की दर को कम करने के लिए एक प्रमुख प्रोत्साहन है। फिर भी एससी छात्रों के लिए पूर्व-मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए बजट आवंटन में कमी देखी गईI पिछले बजट में 510 करोड़ रुपए से कटौती कर इसके लिए इस साल केवल 50 करोड़ रुपए आवंटित हुआ।

जब भी दलितों ने अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश की तो उसे पूरी तरह दबा दिया गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यही हुआ Iमई 2017 को सहारनपुर ज़िले के शब्बीरपुर में दलितों पर हमला किया गया और 55 से ज़्यादा दलित घरों को जला दिया गया। दलितों का अपराध सिर्फ़ यह था कि वे 14 अप्रैल 2017 को अपने समुदाय से संबंधित रविदास मंदिर परिसर में डॉअम्बेडकर की प्रतिमा स्थापित करना चाहते थे। राज्य प्रशासन ने इसके लिए अनुमति नहीं दी।

मई को राणा प्रताप की प्रतिमा स्थापित करने के लिए पड़ोसी गाँव से गुज़रते हुए ठाकुरों के एक जुलूस ने ये कहते हुए भीड़ इकट्ठा कर ली कि दलितों ने ठाकुरों का अपमान किया और इस बहाने वे आए और दलितों पर हमला किया।

इस क्रूरता के ख़िलाफ़ भीम सेना नाम के एक संगठन ने चन्द्र शेखर रावण के नेतृत्व में विरोध किया। हिंसा को रोकने के बहाने भीम सेना के सभी प्रमुख सदस्यों को गिरफ्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया। भीम सेना के सदस्यों की गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ पूरे देश में विरोध प्रदर्शन किए गए लेकिन प्रशासन ने इंसाफ़ के लिए कुछ भी नहीं किया।

इसी दिन (5 मई 2017) आंध्र प्रदेश मेंपश्चिमी गोदावरी ज़िले के गरागपारु गांव में 400 दलित परिवारों का सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया गया था। उनकी एकमात्र मांग थी कि डॉबीआर अम्बेडकर की प्रतिमा उस क्षेत्र में स्थापित की जाएगी जहां अन्य राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसके लिए गांव में उक्त जातियों के लोगों को कोई रोज़गार न देने और उनके साथ सभी संबंधों को ख़त्म करने का एक फरमान जारी किया गया। अगर कोई व्यक्ति प्रतिबंधों का उल्लंघन करता है तो उस पर 1000 रुपए का जुर्माना लगाया गया था। इस खबर ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में न्याय की मांग के लिए लोगों को संगठित किया लेकिन लोगों की मांग पूरी नहीं हुई।

भेदभाव का एक अन्य स्वरूप जो दलितों को सामना करना पड़ रहा है वह है सफाई क्षेत्र जिसमें ज्यादातर दलित हैं। इस वर्ष पूरे देश में नाले की सफाई करने के दौरान क़रीब 130कर्मचारी मारे गए। ये मौत रोकी जा सकती थी लेकिन कोई संजीदा कोशिश नहीं किए गए। सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान (स्वच्छ भारत कार्यक्रमपर हजारों करोड़ रुपए खर्च किए लेकिन इन मौतों को रोकने के लिए तकनीकों के इस्तेमाल को लेकर कोई बेहतर प्रयास नहीं किया गया।

शैक्षणिक संस्थानों में 2016 में रोहित वमूला की संस्थागत हत्या के बाद सख़्त प्रतिरोध के बावजूद दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव ग़ैर चुनौतीपूर्ण हो गया। छात्रों के भेदभाव और आत्महत्या को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए। सिर्फ जेएनयू में दलित समुदाय के दो शोधकर्ता छात्रमुथु कृष्ण और घनश्याम दास ने संकटग्रस्त छात्रों के लिए संस्थागत सहयोग की कमी के चलते अपनी ज़िंदगी समाप्त कर ली थी ।

कई हमलों के बावजूद दलित अपने तौर पर इन अत्याचारों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। लोग सड़कों पर पीड़ितों के लिए न्याय की मांग की और न्याय पाने के लिए दमनकारी सामाजिक संरचनाओं के लिए लड़ाई की। उदाहरण स्वरूप कौशल्या अपने दलित पति शंकर के लिए न्याय के लिए लड़ी। उसने परिवार के सदस्यों के ख़िलाफ़ अदालत में गवाही दी जिससे दोषियों को सजा मिली। उसने उन दंपत्तियों के लिए लड़ने का संकल्प किया है जो जातिगत संरचनाओं और विवाह के ख़िलाफ़ जाते हैं।

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