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10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण अप्रमाणिक और निराधार: डेटा

सुप्रीम कोर्ट ने 'आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों' को चिह्नित करने के लिए आय का मानदंड तय करने वाले केंद्र सरकार के तर्क के बारे में पूछा है कि इसके तहत सरकारी रोजगार पाने और उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए दिए गए 10% आरक्षण का लाभ कौन-कौन उठा सकता है।
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डेटा बताता है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण योजना अप्रमाणित और आधारहीन है। सुप्रीम कोर्ट ने आय का मानदंड तय करने के केंद्र सरकार के तर्क के बारे में पूछा है कि 'आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों' के लिए सरकारी रोजगार पाने और उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए उसके द्वारा हालिया दिए गए 10% आरक्षण का कौन-कौन लाभ उठा सकता है। सर्वोच्च अदालत के सवाल की पृष्ठभूमि में विनीत भल्ला ने घरेलू आय तथा सार्वजनिक रोजगार एवं उच्च शिक्षा में उच्च जाति के प्रतिनिधित्व के बारे में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों की तहकीकात कर पाते हैं कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए सरकार के चुने गए आंकड़े प्रथमदृष्टया अनुचित और एकतरफा हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस महीने के प्रारंभ में, राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (स्नातकोत्तर) (नीट पीजी) के माध्यम से मेडिकल के पीजी कोर्सों में दाखिले में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए सीटों के आरक्षण के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण मांगा था कि ईडब्ल्यूएस के आय मानदंड तय करने के लिए उसकी ऊपरी सीमा के रूप में आठ लाख रुपये निर्धारित करने के पीछे उसका तर्क क्या है?

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, विक्रम नाथ और बीवी नागरत्न की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सरकार का पक्ष रख रहे अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल से विशेष रूप से पूछा कि इस आंकड़े तक पहुंचने के लिए किन प्रविधियों एवं डेटा का इस्तेमाल किया गया था? और क्या इस आय मानदंड को देश भर में समान रूप से लागू किया जा सकता है? 

मामले की अगली सुनवाई कल होगी। 

हालांकि, बेंच की टिप्पणियों ने ईडब्ल्यूएस कोटा के लिए सरकार द्वारा निर्धारित विशिष्ट और खराब आय मानदंडों को नए सिरे से बहस के केंद्र में ला दिया है।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की पृष्ठभूमि 

संसद ने 2019 में संविधान का (103वां) संशोधन किया था, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 (6) और 16 (6) को शामिल किया गया था। इसके मुताबिक ही राज्य को सार्वजनिक सेवाओं एवं शैक्षणिक संस्थानों में ईडब्ल्यूएस उम्मीदवारों के लिए क्रमशः पदों और सीटों को आरक्षित करने का अधिकार दिया गया है। ऐसे आरक्षणों के लिए अंतिम सीमा 10% है, जो अन्य समूहों के लिए किए गए अन्य सभी आरक्षणों में शामिल नहीं है, उनसे अलहदा है। 

इस संविधान संशोधन के तुरंत बाद केंद्र सरकार द्वारा जारी एक ज्ञापन के अनुसार, केवल "उस व्यक्ति को ही आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के तहत रखा गया है, जो अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए तय आरक्षण के दायरे में नहीं आता है, और जिसके परिवार की सकल वार्षिक आय 8 लाख रुपये से कम है। उस व्यक्ति की आय के मद में आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष में सभी स्रोतों जैसे वेतन, कृषि, व्यवसाय, पेशा आदि से होने वाली आय को शामिल माना जाएगा।” जिन व्यक्तियों के परिवार के पास एक निश्चित आकार की भूमि है (जैसे कम से कम पांच एकड़ कृषि भूमि, या कम से कम 1,000 वर्ग फुट का आवासीय फ्लैट) उसे इस आरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है। 

इस संशोधन के तुरंत बाद ही इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली 20 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं। जिस पर संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अगस्त 2020 में, मामले को पांच-न्यायाधीशों की एक बड़ी संवैधानिक पीठ को रेफर कर दिया। संविधान पीठ ने इस मामले पर अभी फैसला नहीं दिया है। इस बीच, केंद्र और राज्य सरकारों ने सार्वजनिक नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर अमल करना शुरू कर दिया है। 

यहां मेरा इरादा ईडब्ल्यूएस आरक्षण की संवैधानिकता, या उसके अभाव पर टिप्पणी करने का नहीं है (एक तरफ, पत्रकार और लेखक दिलीप मंडल ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण की असंवैधानिकता के लिए एक उत्कृष्ट और व्यापक मामला बनाते हैं), लेकिन इसका विश्लेषण इस महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए सवालों के परिप्रेक्ष्य में करते हैं: क्या सरकार द्वारा तय किए आरक्षण को युक्तिसंगत ठहराने के लिए कोई डेटा उपलब्ध भी है? और उपलब्ध आंकड़े हमें ऐसे आरक्षण की प्रभावशीलता के बारे में क्या बता सकते हैं? 

नंबर क्या कहते हैं

घरेलू उपभोक्ता व्यय के प्रमुख संकेतकों पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में सबसे अमीर 5% भारतीय हैं। उनकी प्रति व्यक्ति आय ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 4,481 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 10,281 रुपये थी। इसलिए यदि शहरी क्षेत्रों में शीर्ष 5% से संबंधित परिवारों में कम से कम पांच सदस्यों को शामिल माना जाए तो उस परिवार की मासिक आय 51,405 रुपये होगी और इस हिसाब से उसकी वार्षिक आय लगभग छह लाख रुपये होगी; यहां तक कि 2012 के बाद से मुद्रास्फीति के हिसाब से भी। इस लिहाजन, यह अभी भी नए आरक्षण के मानदंड के तहत निर्धारित सीमा से 25% कम हो जाता है। 

इसके अलावा, सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना 2011 के अनुसार, केवल 8.25% ग्रामीण परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से अधिक है (जो कि 1.2 लाख रुपये से अधिक की वार्षिक आय के बराबर है)। इसी तरह, कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, भारत में लगभग 86 प्रतिशत लोगों के पास जोत की जमीन की निर्धारित सीमा प्रति परिवार 5 एकड़ से भी कम है। 

बीसीजी (सेंटर फॉर कस्टमर इनसाइट) के आंकड़ों के अनुसार, 2016 में लगभग 76% भारतीय परिवारों की वार्षिक आय 7,700 अमेरिकी डॉलर से कम थी, जो उस समय प्रचलित विनिमय दर के अनुसार सालाना 5.15 लाख रुपये के बराबर होगी।

हालांकि, यह अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिए कि ये सभी डेटा सभी भारतीय घरों के लिए है, और उनमें जाति के आधार पर अंतर नहीं किया गया है। 

सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए, बिजनेस टुडे ने निष्कर्ष निकाला कि "यह विडंबना है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 100% भारतीय परिवार सरकार के हालिया तय आय मानदंड के तहत नौकरी और दाखिले के लिए लाभार्थी हो जाएंगे।"

यह आश्चर्यजनक है कि 10% की ईडब्ल्यूएस आरक्षण योजना जो समाज के "आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों" को लाभ पहुंचाने के लिए लागू की गई है, वह आबादी के एक बड़े हिस्से को कवर करती है। किसी को भी ताज्जुब हो सकता है और जैसा कि तब सुप्रीम कोर्ट को हुआ था, सरकार ने आठ लाख रुपये की वार्षिक घरेलू आय सीमा और इसके आधार पर 10% आरक्षण देने के निर्णय तक पहुंचने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई थी। घरेलू आय के आंकड़ों के आलोक में, दोनों संख्याएं बेहद मनमानी लगती हैं।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण के औचित्य का समर्थन करने के लिए डेटा कहां है? 

संविधान के 103वें संशोधन विधेयक के लाने के उद्देश्यों और उनके कारणों के बारे में बयान में कहा गया है: "वर्तमान में, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के नागरिकों को उच्च शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक रोजगार में भाग लेने से बड़े पैमाने पर बाहर रखा गया है, जो स्वयं की तुलना में आर्थिक रूप से अधिक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों से प्रतिस्पर्धा करने में अपनी वित्तीय अक्षमता के कारण पिछड़ जाते हैं।... तो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के नागरिकों को यह सुनिश्चित करने के लिए...उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने और राज्य की सेवाओं में रोजगार में भागीदारी का उचित मौका मिलना सुनिश्चित करने के लिए भारत के संविधान में संशोधन करने का निर्णय लिया गया है।"

इसका तात्पर्य यह है कि उच्च जाति समूह (अर्थात, जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित नहीं है और इसलिए वह इस आरक्षण का लाभ नहीं उठा सकता है), ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आता है, उसे सार्वजनिक रोजगार और उच्च शिक्षा के संस्थानों में कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

केंद्र सरकार के 78 मंत्रालयों और विभागों के आंकड़ों के अनुसार, 01.01.2016 को केंद्र सरकार के पदों और सेवाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व क्रमशः 17.49%, 8.47% और 21.57% था। इसका मतलब है कि इन मंत्रालयों और विभागों में केंद्र सरकार के 52.47% कर्मचारी ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते हैं। 

उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, उच्च शिक्षण संस्थानों में कुल अनुमानित 3,85,36,359 छात्रों के नामांकन में, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों का नामांकन क्रमशः14.7 फीसदी, 5.6 फीसदी और 37 फीसदी है। इसका मतलब है कि 42.7 फीसदी नामांकन उच्च जाति के छात्रों का है। 

अब, क्या सरकारी कर्मचारी और उच्च शिक्षा संस्थानों में उच्च जाति के कर्मचारियों एवं छात्रों का एक बड़ा हिस्सा आठ लाख रुपये प्रति वर्ष से अधिक की वार्षिक घरेलू आय वाले परिवारों से है? 
यह बताता है कि अधिकांश भारतीय परिवार उसी श्रेणी में आते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, अगर अगर ऐसा था भी, तो तथ्य यह है कि इसे बताने के लिए कोई डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।

'ईडब्ल्यूएस' ऊंची जातियों के इस स्पष्ट प्रतिनिधित्व को रेखांकित करने वाले डेटा के अभाव में, और इस तथ्य के आलोक में कि उच्च जाति वाले सहित अधिकांश भारतीय परिवार सरकार के ईडब्ल्यूएस मानदंडों के दायरे में आते हैं, ऐसे में ईडब्ल्यूएस प्रतिनिधित्व के औचित्य का कोई आधार नहीं है।   

ऐसे में, इस मामले में रोशनी डालने के लिए सर्वोच्च अदालत के पूछे गए सवालों पर केंद्र सरकार के दिए जाने वाले जवाब का बेसब्री से इंतजार हो रहा है। 

(विनीत भल्ला एक अधिवक्ता हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे लीफ्लेट के सहायक संपादक भी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 
सौजन्य: लीफ्लेट 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Data Suggests That 10% EWS Reservation Scheme is Unsubstantiated and Baseless

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