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पश्चिम बंगाल : राज्य सरकार और गवर्नर का बढ़ता टकराव

टीएमसी को पीछे हटना चाहिए और राज्यपाल को राज्य की बिगड़ती स्थिति का एहसास होना चाहिए।
jagdeep dhankhar
Image Courtesy: Wikimedia

बंगाल की राजनीति में सबसे ख़राब क़िस्म का स्वांग रचा जा रहा है जो न तो अपने आप में अद्वितीय है और न ही ऐसा है जो पहली बार हो रहा है। हाल ही में नियुक्त हुए राज्यपाल जगदीप धनखड़मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी सरकार के बीच बद से बदतर शब्दों की लड़ाई जारी है।

इसकी शुरुआत राज्यपाल ने जादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) में बाबुल सुप्रियो प्रकरण में शामिल होकर की। यह टकराव राज्य सरकार द्वारा आयोजित दुर्गा पूजा कार्निवल के दौरान कथित रूप से "उनकी अवहेलना और अपमान" करने से आगे बढ़ा। और अब, यह मसला राज्यपाल द्वारा की जा रही विभिन्न ज़िलों की यात्रा पर असर डाल रहा है। ये टकराव ख़राब हैं और इनसे बचा जा सकता था, जो चरित्र में तुच्छ और बेहूदे हें, जिनके बारे में कहना होगा कि ये राज्य में एक बुरी मिसाल क़ायम करते हैं और इसलिए दोनों पक्षों को पीछे हटना चाहिए और बिगड़ते हालात का संज्ञान लेना चाहिए।

धनखड़, सुप्रीम कोर्ट के 68 वर्षीय वरिष्ठ वकील और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे हैं, राजस्थान से सांसद और विधायक भी रहे हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष 84 वर्षीय, केशरी नाथ त्रिपाठी की जगह लगभग तीन महीने संभाली थी। त्रिपाठी को जुलाई 2014 में राज्यपाल नियुक्त किया गया था, और उन्होंने बनर्जी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के साथ कई टकराव पैदा किए थे।

टीएमसी ने त्रिपाठी को वापस बुलाने के लिए कई बार सार्वजनिक रूप से मांगें उठाईं और आरोप लगाया कि उन्होंने कथित तौर पर "राजभवन को आरएसएस के दफ़्तर में तब्दील कर दिया है।" जब धनखड़ को नियुक्त किया गया था, तो बंगाल सरकार में मौजूद कुछ लोगों ने कहा था कि राज्य प्रशासन और केंद्र के बीच संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं, इसलिए उन्होंने सोचा कि उनके स्थान पर भगवाधारी हार्डलाइनर को लाया जाएगा। लेकिन जब धनखड़ की नियुक्ति हुई तो सोच बदली क्योंकि ये साहब कुछ समय कांग्रेस में रहे थे और फिर जनता दल से होते हुए भाजपा में शामिल हुए थे, इसलिए माना गया कि शायद उनके कार्यकाल से तनाव कम करने में मदद मिल सकती है।

“एक सफल वकील होने के नाते, निश्चित तौर पर वे अपनी सीमाओं को पहचानेगे। पूर्व में भी, राज्य सरकार ने कुछ राज्यपालों पर संवैधानिक सीमा पार करने का आरोप लगाया था। यह राज्य सरकार और राजभवन के बीच संघर्ष का कारण रहा। इस बार, उम्मीद है कि तनाव कम हो जाएगा।” यह बात उनकी नियुक्ति के समय राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कही जो मुख्यमंत्री के क़रीबी थे।

अब जब नब्बे दिन बीत चुके हें तो पाते हें कि स्थिति त्रिपाठी के समय से भी बदतर हो गई लगती है।

जादव पुर झगड़े और दुर्गा पूजा प्रकरण के बाद, राज्यपाल ने ख़ुद के लिए विशेष सुरक्षा मांगी है। ख़ुद को "संभावित ख़तरों" का हवाला देने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गुरुवार को उन्हें 'ज़ेड' श्रेणी की वीआईपी सुरक्षा प्रदान की है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि कार्निवल के दौरान मीडिया ने उन्हें "ब्लैक आउट" किया था, जिसने उन्हें आपातकाल की याद दिला दी है। टीएमसी ने उनके आरोपों को नकारते हुए राज्यपाल को "प्रचार का भूखा” क़रार दिया है।

उत्तर बंगाल में अपनी पहली यात्रा के दौरान, राज्य प्रशासन की ओर से "सुस्त" प्रतिक्रिया से राज्यपाल को हैरानी हुई। दिन भर की यात्रा के दौरान, धनखड़ सिलीगुड़ी में दार्जिलिंग ज़िला प्रशासन से मिले, लेकिन क्षेत्र के निर्वाचित टीएमसी नेताओं में से कोई भी उनसे मिलने नहीं गया। इस सप्ताह, राज्यपाल ने उत्तर 24-परगना ज़िला प्रशासन के प्रति अपनी नाख़ुशी व्यक्त की है, राजभवन को बताया गया कि राज्यपाल से मिलने के लिए ज़िला अधिकारियों, सांसदों और विधायकों को निमंत्रण भेजना राज्य सरकार की अनुमति के बिना संभव नहीं था। इस संबंध में ज़िला कलेक्टर का पत्र कहता है, "...सभी वरिष्ठ सरकारी अधिकारी 21 से 23 अक्टूबर तक मुख्यमंत्री की प्रशासनिक समीक्षा की बैठकों के लिए उत्तर बंगाल में रहेंगे..." धनखड़ ने ज़िला अधिकारियों की अनुपस्थिति को "असंवैधानिक" क़रार दिया और इसे मोटे तौर पर उन्होंने राज्य में "सेंसरशिप" लागू करने के प्रकार का संकेत दिया। इस तरह के टकराव आने वाले दिनों और महीनों में बढ़ सकते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 163 में भारतीय राज्य के राज्यपाल और उसके मुख्यमंत्री के बीच संबंध के बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि : राज्यपाल सामान्य हालात में "मुख्यमंत्री की सहायता और सलाह के अनुसार" काम करेगा। अनुच्छेद 356 कहता है कि वह राष्ट्रपति के शासन को लागू करने के लिए अपने विवेक का उपयोग कर सकता है, अगर राज्य में संवैधानिक मशीनरी या क़ानून और व्यवस्था चरमरा गई है।

अनुच्छेद 164 में साफ़ तौर पर कहा गया है कि मंत्री परिषद विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है - जिसका अर्थ है कि सरकार सत्ता में तब तक बनी रहती है जब तक उसे विधानसभा में बहुमत हासिल है। अंत में, अनुच्छेद 167 कहता है कि मुख्यमंत्री कैबिनेट के सभी बड़े फ़ैसलों को राज्यपाल को बताएगा; और राज्यपाल राज्य के बारे में किसी भी मुद्दे के बारे में मुख्यमंत्री से पूछताछ कर सकते हैं। संपूर्ण व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि चेक और बैलेंस यथावत बना रहे। राज्यपाल राज्य का पहला नागरिक होता है, लेकिन मुख्यमंत्री व्यवहार में निर्वाचित मुख्य कार्यकारी होता है, और सामान्य हालात में राज्यपाल इसके दैनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता है।

यह सब संविधान की किताब में है। लेकिन यहाँ वास्तविकता गंभीर है। 1970 के दशक के बाद से, विभिन्न राज्यों में अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस और बीजेपी के दोनों प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी और वर्तमान पीएम नरेंद्र मोदी जो दोनों सबसे अधिक सत्ता-केंद्रीकृत नेता हैं, ने अक्सर राज्यपाल के दफ़्तर का विशेष रूप से इस्तेमाल किया है। कांग्रेस सरकारें, विशेष रूप से इंदिरा गांधी के अधीन, ने केरल, झारखंड, यहां तक कि पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में केंद्रीय शासन लागू करने के लिए विभिन्न राज्य के राज्यपालों के माध्यम से अनुच्छेद 356 को लागू किया था। मोदी सरकार ने उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में सरकारों से छुटकारा पाने के लिए समान रणनीति का इस्तेमाल किया है, हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों फ़ैसलों को पलट दिया था।

यहां तक कि पश्चिम बंगाल में गवर्नर और राज्य सरकारों के बड़े टकरावों का एक इतिहास रहा है। जब तत्कालीन राज्यपाल श्री धरमवीर ने 21 नवंबर 1967 को राज्य में संयुक्त मोर्चा सरकार को बर्खास्त कर दिया था तो उसने 1969 में सत्ता में फिर से वापसे कर ली थी। सरकार के गठन के बाद अजब राज्यपाल का भाषण होना था जिसे मंत्रीपरिषद के गठन के बाद दिया जाना था, उसके एक हिस्से में धरमवीर की आलोचना की गई थी। हालांकि, राज्यपाल ने भाषण के उस हिस्से को पढ़ने से इनकार कर दिया था।

यह टकराव उस वक़्त फिर से उभर कर सामने आया जब 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता में आया जिसे बड़े पैमाने का जनादेश मिला था। वाम मोर्चे के तत्कालीन राज्यपाल, बीडी पांडे के साथ कभी भी सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रहे। वाम मोर्चा ने पांडे पर उस वक़्त निशाना साधा जब केंद्र-राज्य के संबंध में टकराव पैदा हुआ। अनंत प्रसाद शर्मा को 1984 में पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया था और उनके संबंध भी वाम मोर्चा सरकार के साथ अच्छे नहीं थे। उस वक़्त कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति के नामांकन को लेकर दोनों के रिश्तों में खटास आ गई थी, क्योंकि शर्मा ने उस उम्मीदवार का समर्थन किया था जो सरकार की नापसंद थी। टकराव उस वक़्त ज्यादा बढ़ गया जब 2007 में तत्कालीन राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने नंदीग्राम की घटना को 'हड्डी कंपकपाने वाला आतंक'' कहा था, इस पर वाम मोर्चे के नेताओं उन पर तीखे प्रहार किए थे।

टीएमसी के कार्यकाल में यह सिलसिला 2011 में शुरू होता है। 2014 में राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभालने के बाद, केशरी नाथ त्रिपाठी ने शुरुआत में तो राज्य सरकार के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार रखा। लेकिन, उत्तर 24 परगना ज़िले के कई हिस्सों में जब दो समुदायों के बीच झड़प हुई तो त्रिपाठी ने राज्य प्रशासन की आलोचना की। नाराज़ बनर्जी ने दावा किया कि राज्यपाल ने उनका अपमान किया है।

ऊपर दिए गए उदाहरणों में से कोई भी उदाहरण राज्यपाल की भूमिका और उसे नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी (यानी पीएम और उनकी कैबिनेट की सलाह पर काम करने वाले राष्ट्रपति) का अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा है, भले ही सत्ता में कोई भी हो। इसके अलावा, गवर्नटोरियल संस्था या व्यवस्था को जीवित रखने में होने वाला ख़र्च भी बहुत अधिक होता है। इस नियुक्त स्थिति पर संघीय व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव और इसकी लोकतांत्रिक प्रकृति के बारे में सवाल उठाए गए हैं क्योंकि इस पद पर अक्सर सेवानिवृत्त नौकरशाहों, उम्रदराज राजनेताओं और कुछ सेवानिवृत्त सशस्त्र बलों के अधिकारियों या वकीलों को हमेशा नियुक्त किया जाता है, जिनके ज़रीये बड़े पैमाने पर सत्ता की राजनीतिक लूट होती है।

इसके अलावा राष्ट्रपति को अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है लेकिन राज्यपाल को केंद्र सरकार नियुक्त करती है। यहां तक कि निर्वाचित राष्ट्रपति भी, जिनकी शान में केंद्र सरकार काग़ज़ों पर काम करती है, कभी भी केंद्र में निर्वाचित सरकारों के आड़े नहीं आते हैं; और यहां तक कि अगर उनके विश्वास के विपरीत निर्णय लिया जाता है तब भी वे सरकार के अनुसार काम कराते हें (जैसा कि राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा में किया था)। लेकिन, नामांकित राज्यपाल अक्सर सीमाओं को पार कर जाते हैं, अनुच्छेद 365 को लागू कर रहे हैं और राज्य सरकार के मामलों में लगातार दख़ल दे रहे हैं।

बंगाल के इस विशेष मामले में राज्य सरकार को राज्यपाल और प्रमुख व्यक्तियों के साथ सहयोग करने के लिए काम करना चाहिए ख़ासकर जब यात्रा की अग्रिम सूचना सरकार के पास हो, और सीएम को नियमित अंतराल पर राज्यपाल से मिलते रहना चाहिए। यहां तक कि कार्यकर्मों में उचित सम्मान देना, बैठने की सही व्यवस्था करना और उचित मीडिया का इस्तेमाल करना तथा एक संवैधानिक हस्ती जैसी सही भाषा का उपयोग करना एक स्वस्थ लोकतंत्र के हित में होगा। इनसे टीएमसी सरकार की साख का स्तर बढ़ा होगा।

इसके अलावा, भाजपा के एक पूर्व विधायक, जो अब राज्य के राज्यपाल हैं, राज्य की विधानसभा के चुनावों से 18 महीने पहले टीएमसी सरकार के मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें भाजपा को राज्य में पहली बार सत्ता में आने की उम्मीद है, वास्तव में यह ख़राब स्वाद की निशानी है। बनर्जी की सरकार को निशाना बनाना और संभवतः उसके कार्यकाल के अंत होने से पहले राष्ट्रपति शासन लागू करना, केवल उसे एक राजनीतिक शहीद बना देगा, जिससे उसे राजनीतिक लाभ ही मिलेगा।

अंतत: मूल प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें भारत के लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के सात दशक से अधिक समय के बाद भी राज्यों में शक्तिशाली, लेकिन अयोग्य, अलोकतांत्रिक (हालांकि अवैध नहीं) और ग़ैर-निर्वाचित राज्यपालों के पद को जारी रखना सही है।

उज्ज्वल के चौधरी कोलकाता स्थित अदामास विश्वविद्यालय के प्रो-वाइस चांसलर हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

Decoding Governor-Government Conflict in West Bengal

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