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जंगलमहल में आरएसएस और आदिवासी/कुर्मी पहचान की लड़ाई

संघ लगातार यह नैरेटिव फैला रहा है कि सभी आदिवासी हिंदू हैं जिससे प्रकृति की पूजा करने वाले समुदायों की अनूठी सांस्कृतिक पहचान पर चिंता बढ़ रही है।
RSS & Battle for Tribal
बांकुरा के जंगलमहल के सुसुनिया पहाड़ी क्षेत्र में आदिवासी लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति का प्रदर्शन करते हुए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में अपना अभियान जारी रखे हुए है, जिसमें सभी आदिवासी समुदायों को हिंदू बताने के लिए हर तरह की रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है। यह दृष्टिकोण आदिवासी लोगों की पारंपरिक पहचान और मांगों को कमजोर करता है, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से बोनोबासी (वनवासी) के रूप में पहचाना जाता है। इसी तरह, अलग-अलग धार्मिक प्रथाओं के बावजूद कुर्मी समुदाय को भी आरएसएस द्वारा हिंदू बताया जा रहा है।

आरएसएस के अभियान में गीता और रामायण जैसे ग्रंथों को पढ़ना, समुदायों के बीच आरक्षण नीतियों पर संघर्ष पैदा करना और उनके बीच हिंदुत्व विचारधाराओं को बढ़ावा देना जैसी गतिविधियां शामिल हैं। ये प्रयास पूरे क्षेत्र में विभिन्न तरीकों से किए जा रहे हैं।

सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) इस मामले को लेकर काफी हद तक चुप रही है। वह इसे धार्मिक मुद्दा मानती है। वास्तव में कई टीएमसी नेता और कार्यकर्ता कथित तौर पर आरएसएस को उसके प्रयासों में सहायता कर रहे हैं। इस बीच, कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं क्योंकि कुछ समुदाय इस रणनीति को पहचान रहे हैं और इसका विरोध कर रहे हैं।

हालांकि, विरोध के बावजूद आरएसएस के धार्मिक नैरेटिव का प्रभाव बांकुड़ा, पुरुलिया और झारग्राम, पश्चिम मेदिनीपुर जिलों में बढ़ता जा रहा है। आरएसएस का नेटवर्क लगातार फैल रहा है, जिससे उन लोगों में चिंता बढ़ रही है जो आदिवासी और कुर्मी समुदायों की अनूठी सांस्कृतिक पहचान को महत्व देते हैं।

आदिवासियों/कुर्मियों के बीच हिंदू धर्म का प्रसार कैसे हो रहा है

आदिवासी और कुर्मी समुदाय बंगाल के जंगलमहल इलाके के एक विशाल क्षेत्र में रहते हैं, जो बांकुड़ा, पुरुलिया, झारग्राम और पश्चिम मेदिनीपुर जिलों में फैला हुआ है। लाखों की संख्या में ये समुदाय सदियों से घने जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। बांकुड़ा में रानीबांध, रायपुर, सारेंगा, सिमलापाल और हिरबांध जैसे इलाके; पुरुलिया में बंदोवन, बड़ाबाजार, मनबाजार, बलरामपुर और हुरा और पश्चिम मेदिनीपुर में गारबेटा, चंद्रकोना रोड इन समुदायों का निवास स्थान है।

मकर संक्रांति मेला जंगलमहल क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है। इस त्योहार में आदिवासी, कुर्मी समेत सभी लोग हिस्सा लेते हैं। 14 जनवरी को रानीबांध के मुकुटमणिपुर के परेशनाथ इलाके में काफी भीड़ देखी गई।

गौरतलब है कि पुरुलिया जिले की 52% आबादी कुर्मी समुदाय की है, जो उन्हें उस क्षेत्र में बहुसंख्यक बनाता है। बांकुरा के रानीबांध ब्लॉक के साथ-साथ झारग्राम के बेलपहाड़ी और लालगढ़ में आदिवासी समुदाय काफ़ी ज़्यादा हैं। आदिवासी आबादी में, संथाल सबसे बड़ा समूह है, साथ ही अन्य जनजातियां जैसे भूमिज (सरदार), मुंडा, शबर, महाली, बिरहोर, पहाड़िया और कोरा भी हैं।

ये आदिवासी और कुर्मी समुदाय पारंपरिक रूप से प्रकृति पूजक हैं। इनकी जिंदगी यानी जन्म, विकास और जीविका उनके आसपास के जंगलों और पहाड़ियों से गहराई से जुड़ा हुआ है। प्रकृति को सर्वशक्तिमान माना जाता है, जो उनके धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवहारों को आकार देती है। उनके अपने अलग-अलग धर्म, भाषाएं और परंपराएं हैं। हालांकि, आरएसएस इन अनूठी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचानों को स्वीकार करने से इनकार करता है, इसके बजाय यह दावा करता है कि ये समुदाय व्यापक हिंदू धर्म का हिस्सा हैं।

बांकुरा के रानीबांध ब्लॉक के झिलिमिली में आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल के एक शिक्षक ने बताया, "आदिवासी व्यापक हिंदू धर्म का हिस्सा हैं; वे सदियों से इसे भूल गए हैं। उन्हें हिंदू मुख्यधारा में वापस लाना हमारी ज़िम्मेदारी है। दूसरी ओर, कुर्मी पहले से ही हिंदू अनुष्ठानों और त्योहारों में भाग लेते हैं। तो उन्हें हिंदू कहने में समस्या कहां है? हम उस लक्ष्य की ओर काम कर रहे हैं।"

जब उनसे पूछा गया कि क्या इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई ऐतिहासिक साक्ष्य है कि स्वदेशी आदिवासी और कुर्मी लोग हिंदू थे, तो रानीबांध निवासी शिक्षक ने साफ तौर पर कहा कि लिखित साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह केवल आस्था का मामला है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आरएसएस इन समुदायों के व्यवहार को “हिंदू प्रथाओं के अनुरूप” बनाने की कोशिश कर रहा है।

झारग्राम के बिनपुर के आरएसएस प्रचारक बिनॉय चक्रवर्ती से जब बेरोज़गारी, स्वास्थ्य सेवा की कमी और जंगलमहल में स्कूल छोड़ने वालों की बढ़ती संख्या जैसे ज्वलंत मुद्दों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उन चिंताओं को खारिज कर दिया और कहा, “हमारा ध्यान सभी को हिंदू धर्म के दायरे में लाने पर है। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं, तो समाज बिगड़ जाएगा। लोगों की आजीविका को बेहतर करना हमारी चिंता नहीं है - यह सरकार की जिम्मेदारी है।”

आरएसएस ने 1949 में अविभाजित मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर के गोपाली इलाके में अपना मुख्यालय स्थापित करके पूर्वी बंगाल में अपनी गतिविधियां शुरू कीं। शुरुआत में, उन्होंने जंगलमहल क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने के लिए "समाज के पुनर्निर्माण" के बहाने बेरोजगार और वंचित युवाओं को प्रशिक्षित किया। हालांकि, इलाके में अत्यधिक गरीबी के कारण, ऐसी धार्मिक भावनाएं असर नहीं कर पाईं। आरएसएस ने कुछ शाखाएं (प्रशिक्षण शिविर) खोलीं, लेकिन उनकी गतिविधियां सीमित रहीं।

1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के सत्ता में आने के बाद स्थिति में भारी बदलाव आया। वाम मोर्चे की सरकार के तहत, राज्य प्रशासन ने जाति और धार्मिक ध्रुवीकरण के प्रयासों पर सक्रिय रूप से अंकुश लगाया, जिससे आरएसएस की गतिविधियां काफी कम हो गईं। पश्चिमबंगा आदिवासी अधिकार मंच के राज्य सचिव पुलिनबिहारी बास्के के अनुसार, "उस अवधि के दौरान आरएसएस का प्रभाव कम हो गया। राज्य ने उनके विभाजनकारी एजेंडे को जड़ जमाने नहीं दिया।"

बंगाल के पूर्व पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री रायपुर निवासी उपेन किस्कू और रानीबांध के पूर्व सभापति (ब्लॉक प्रमुख) सहदेव महतो ने याद किया कि कैसे 1977 के बाद एलएफ सरकार ने जंगलमहल में गरीबी उन्मूलन को प्राथमिकता दी। खेती के लिए गरीब आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच जमीन बांटी गई, स्कूल और अस्पताल स्थापित किए गए और लोगों को विकासात्मक गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल किया गया। इससे आरएसएस का प्रभाव काफी कम हो गया और यह स्थिति 2011 तक बनी रही, जब टीएमसी सत्ता में आई।

पुरुलिया स्थित सिद्धो कान्हो विश्वविद्यालय के लाइब्रेरियन प्रणब हाजरा ने कहा, "1990 के दशक के मध्य में, आरएसएस ने जंगलमहल क्षेत्र में कुछ प्राथमिक विद्यालय स्थापित किए। हालांकि, वे गरीब आदिवासी, कुर्मी और अन्य समुदायों के बीच प्रभाव डालने में विफल रहे।"

साल 2011 में राज्य में टीएमसी के सत्ता में आने के बाद जंगलमहल इलाके में स्थिति बदलने लगा। बांकुरा, पुरुलिया, झारग्राम और पश्चिम मेदिनीपुर के जंगली इलाकों में आरएसएस की विद्याबिकास परिषद के प्रबंधन में कई स्कूल स्थापित किए गए।

कुछ ही सालों में लोगों का सरकारी शिक्षण संस्थानों से भरोसा उठ गया, जिसकी कई वजहें थीं, जैसे कि ज़रूरी शिक्षकों की कमी और नियमित बुनियादी ढांचे के नवीनीकरण का काम बंद होना। आरएसएस ने इस कमी का फ़ायदा उठाया। कई आदिवासी और गैर-आदिवासी परिवार अपने बेटे-बेटियों को इन स्कूलों में भेजने लगे और हर महीने ट्यूशन फीस देने लगे। इनमें से कुछ स्कूलों के नाम सरस्वती, मां शारदा, रामकृष्ण, स्वामी अभयानंद और बोनोबासी कल्याण छत्रबास रखे गए।

स्कूलों के अलावा, विभिन्न स्थानों पर नए आरएसएस प्रशिक्षण शिविर शुरू किए गए। इन शिविरों में लाठी और चाकू के खेल जैसी गतिविधियां सिखाई गईं। इन प्रशिक्षण शिविरों का एक प्राथमिक उद्देश्य हिंदुत्व के नैरेटिव का प्रसार करना और कभी-कभी अन्य धर्मों के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देना था।

जंगलमहल खतरा में आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल।

रानीबांध के एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक लखमन मंडल ने कहा, "2014 में केंद्र में भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) के सत्ता में आने के बाद, जंगलमहल में आरएसएस की गतिविधियां बढ़ गईं। बेरोज़गार आदिवासी युवाओं, खासकर संथाल और भूमिज समुदायों को आकर्षित करने के प्रयास किए गए, क्योंकि ये दोनों समुदाय जंगलमहल में आदिवासियों के बीच बहुसंख्यक हैं।"

मंडल ने बताया कि जिन स्कूलों में आदिवासी लड़के-लड़कियां बहुसंख्यक थे वहां स्थानीय आदिवासी युवकों को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। हालांकि, इन शिक्षकों को नाममात्र का पारिश्रमिक दिया गया, जो स्थानीय आबादी के बीच स्वीकृति प्राप्त करने के उद्देश्य से एक रणनीतिक कदम था। इसी तरह, कुर्मी बहुल क्षेत्रों में स्थित स्कूलों में कुर्मी शिक्षकों की नियुक्ति की गई।

इन चार जिलों के कई लोगों के अनुसार, आरएसएस मुख्य रूप से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अपने स्कूलों का इस्तेमाल करता है। रानीबांध के बारिकुल क्षेत्र से मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) कार्यकर्ता मालती हेमराम, झारग्राम के लोधासुली गांव से तपन महतो और पुरुलिया जिले के मनबाजार क्षेत्र से मनोरथ महतो ने पाया कि इन स्कूलों के शिक्षक नियमित रूप से छात्रों के घर जाते थे और अभिभावकों से बातचीत करते थे। ये बातचीत छात्रों की पढ़ाई में सुधार पर चर्चा से अलग होती थी और अक्सर हिंदुत्व के बारे में बातचीत भी शामिल होती थी। माता-पिता सुनने के लिए मजबूर थे और अक्सर इन चर्चाओं से प्रभावित होते थे।

रानीबांध के बारीकुल के आदिवासी लोक कलाकार मोहन हेम्ब्रम कहते हैं, "जंगलमहल इलाके में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदाय के लोग सदियों से सौहार्दपूर्ण तरीके से रह रहे हैं। यह इलाका साल भर उत्सवों से गुलजार रहता है और हर कोई एक-दूसरे के उत्सवों में हिस्सा लेता है। इसके बावजूद आदिवासियों ने हमेशा अपना अलग धर्म बनाए रखा है।" झारग्राम के बेलपहाड़ी निवासी दिगंतो हेम्ब्रम कहते हैं, "हम मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते। हम हिंदू नहीं हैं। अगर हम पर जबरन हिंदू धर्म थोपा गया तो हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।"

सच तो यह है कि संताल आदिवासियों का धर्म सारी और सरना है, जबकि शबर लोग खड़िया धर्म को मानते हैं। मुंडा, भूमिज, पहाड़िया, महाली और बिरहर जैसे अन्य आदिवासी समुदाय सरना धर्म को मानते हैं। खास बात यह है कि ये सभी प्रकृति को ऊर्जा का अंतिम स्रोत मानते हैं। हर समुदाय की अपनी भाषा और त्योहार होते हैं। इसी तरह कुर्मी लोगों का अपना धर्म सरना है और उनकी भाषा कुर्माली है। हालांकि, आरएसएस इन अलग पहचानों को स्वीकार नहीं करता है।

रायपुर, बांकुरा के एक इंजीनियर और आरएसएस प्रचारक ने कहा, "राष्ट्रीय जनगणना में लोगों के धर्म का रिकॉर्ड होता है। अगली जनगणना के करीब आने पर अगर आदिवासी और कुर्मी अपने वास्तविक धर्म का जिक्र करते हैं, तो देश में हिंदुओं की संख्या में लगभग 20 करोड़ की कमी आ सकती है।" उन्होंने कहा कि 2011 की जनगणना में आदिवासियों और कुर्मियों की पहचान हिंदू के रूप में की गई थी और आरएसएस नहीं चाहता कि हिंदुओं की आबादी घटे। लाइब्रेरियन प्रणब हाजरा ने टिप्पणी की कि यही मुख्य कारण है कि आरएसएस ने आदिवासियों के विशिष्ट धर्मों की अनदेखी करते हुए उन्हें "हिंदू" के रूप में बताने पर जोर दिया है।

आरएसएस आदिवासी आरक्षण के दायरे से ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को बाहर करने के लिए भी अभियान चला रहा है। जयोति मुर्मू और गौतम हंसदा जैसे स्थानीय लोगों के साथ-साथ बांकुरा के सरेंगा के कई लोगों ने भी इस दावे को दोहराया है। उनमें से कई लोगों ने बताया कि उन्हें कई सूक्ष्म और प्रत्यक्ष तरीकों से हिंदू धर्म में लौटने के लिए दबाव डाला जा रहा है।

हिंदुत्व के माहौल को बढ़ावा देने के लिए आरएसएस अक्सर रामकृष्ण सेवा निकेतन, विवेकानंद सेवा निकेतन, बोनोबासी कल्याण आश्रम और अन्य जैसे बैनर तले गीता और रामायण के शाम का पाठ सत्र आयोजित करता है। इन सत्रों का नेतृत्व अक्सर संताल समुदाय के सम्मानित लोगों द्वारा किया जाता है, जहां संतालों की आबादी अधिक होती है।

इसी तरह, भूमिज और कुर्मी बहुल क्षेत्रों में इन समुदायों के व्यक्तियों को इस तरह के पाठ आयोजित करने के लिए लगाया जाता है। यह प्रथा रायपुर में हलुदकनाली, बांकुरा के रानीबांध में झिलिमिली, बिरखम और रुत्रा, झारग्राम में बिनपुर और लालगढ़, पुरुलिया में बंदोवन, बड़ाबाजार और बलरामपुर और पश्चिम मेदिनीपुर में गरबेटा और सालबोनी जैसी जगहों पर देखी गई है।

बांकुरा के खतरा के उप-विभागीय अधिकारी (एसडीओ) शुभम मौर्य ने कहा कि प्रशासन को रायपुर, रानीबांध, सारेंगा और हिरबांध ब्लॉक जैसे क्षेत्रों में इन धार्मिक समारोहों के बारे में पता था और जांच चल रही थी।

दिलचस्प बात यह है कि सत्तारूढ़ टीएमसी के कुछ नेता और कार्यकर्ता कथित तौर पर इन आयोजनों में खुले तौर पर या गुप्त रूप से भाग ले रहे हैं।

इस बीच, टीएमसी सरकार आदिवासियों और कुर्मियों के लिए जाहेरथान और गोरमथान जैसे धार्मिक पूजा स्थल बना रही है। हालांकि, जंगलमहल के कई लोग इलाके की बिगड़ती सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बारे में चिंता जता रहे हैं। कभी आजीविका का एक प्रमुख स्रोत केंदुपत्ता (बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाला) का संग्रह और बिक्री थी, जिसे सरकार द्वारा समर्थित लार्ज साइज मल्टीपर्पज आदिवासी सहकारी समिति (LAMPS) के तहत किया जाता था, लेकिन टीएमसी के सत्ता में आने के बाद यह बंद हो गया। इसके अलावा, पिछले तीन वर्षों से इस क्षेत्र में मनरेगा (ग्रामीण नौकरी गारंटी योजना) का काम भी बंद है।

नतीजतन, स्कूल छोड़ने वालों की दर में काफी वृद्धि हुई है। कई छात्र अपनी पढ़ाई छोड़कर काम की तलाश में दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि टीएमसी सरकार बेहतर रोजगार के अवसर पैदा करने के बजाय, जॉयजोहार मेला और अन्य मनोरंजन कार्यक्रमों जैसे आयोजनों के ज़रिए इन ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश कर रही है।

7 जनवरी को बांकुरा में आदिवासी समुदाय के लोग इकट्ठा हुए और जंगलमहल में काम, शिक्षा, स्वास्थ्य ढांचे के विकास की मांग को लेकर बांकुरा के जिला मजिस्ट्रेट को एक ज्ञापन सौंपा। वे जॉयजोहार मेला नहीं चाहते।

"क्या जंगलमहल के साथ गिनी पिग जैसा व्यवहार किया जा रहा है?" कई लोग पूछते हैं।

निराशा विरोध में बदल गई है। 7 जनवरी को बांकुरा जिले के आदिवासी समुदाय जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय के सामने इकट्ठा हुए और कार्रवाई की मांग की। भारत जकात माझी परगनामल के बैद्यनाथ हंसदा और भीम चंद्र मुर्मू जैसे नेताओं ने प्रशासन से बंद पड़े स्कूल छात्रावासों को फिर से खोलने, रिक्तियों को भरने के लिए पारदर्शी तरीके से शिक्षकों की भर्ती करने, छात्रों की वापसी सुनिश्चित करने और जंगलमहल के लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने का आग्रह किया।

लेखक पश्चिम बंगाल के ‘गणशक्ति’ अखबार के लिए जंगलमहल क्षेत्र को कवर करते हैं। उनके विचार निजी हैं।

(सभी तस्वीरें मधु सुदन चटर्जी द्वारा ली गई हैं)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

RSS & Battle for Tribal, Kurmi Identity in Jangalmahal

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