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एक घरेलू कामगार महिला का ‘नियत प्रक्रिया’ की अंधी गली  की तरफ़ इशारा

यौन उत्पीड़न पर देश का क़ानून काफ़ी संरचित और श्रेणीबद्ध हैं। एक घरेलू कामगार महिला रूपा, जिन्होंने बहुत कम उम्र से काम के स्थान पर यौन उत्पीड़न का सामना किया है, उनकी स्थिति यह दर्शाती है कि यहाँ एक बड़े बदलाव की ज़रूरत है।
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अगर देखा जाए तो #मीटू आंदोलन काफी हद तक ऑनलाइन स्पेस के भीतर और अपेक्षाकृत विशेषाधिकार प्राप्त आबादी के एक निश्चित हिस्से के बीच ही सीमित रहा है। समाज में चर्चा चलाने की इसकी क्षमता को दरकिनार किए बिना संभवतः हम इससे उत्पन्न अंतर की तरफ इशारा करना उचित समझते है। यह आंदोलन अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली कमजोर महिलाओं के एक बड़े तबके को अपने दायरे में नहीं ले पाया है। 

इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज ने फिल्म उद्योग जैसे अनौपचारिक क्षेत्र में यौन उत्पीड़न की प्रकृति और सीमा को समझने के लिए एक अध्ययन शुरू किया। जिन व्यावसायिक श्रेणियों पर हमने ध्यान केंद्रित किया, उनमें घरेलू काम भी शामिल है। महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती कानूनी सहारा लेने में है क्योंकि यौन हिंसा के खिलाफ बोलने के मामले में महिलाओं पर एक तरह की पाबंदी है। हर बार दोष पीड़ित के ही मत्थे मढ़ दिया जाता है। घरेलू काम करना वैसे भी कलंकित माना जाता हैं, और जो महिलाएं यौन उत्पीड़न की शिकायत करती हैं वे इस कलंक का भी सामना करटी हैं और काम के स्थान पर उनकी स्थिति खतरे से घिरी रहती हैं। हालांकि, जो महिलाएं इसकी परवाह किए बिना काम के स्थान पर यौन हिंसा की दृढ़ता से मुखालफत करती हैं, उन्हे तब भी कानूनी सहयोग नहीं मिलता हैं और उस प्रक्रिया तक नहीं पहुँच पाती हैं। 

फील्डवर्क की शुरुआत में, हमारे उत्तरदाताओं में से एक, रशीदा, हमारे प्रयास से काफी खुश थी  लेकिन मज़ाक में कहा कि उनका "जीवन क्राइम पेट्रोल जैसा नहीं है"। हमने कहा कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां उनकी दुर्दशा के प्रति उतनी ज़िम्मेदारी से काम नहीं करती जैसा कि टेलीविजन पर दिखाया जाता हैं। हालाँकि, जब हमने महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के अनुभव और कहानियों का संग्रह किया तो हमने महसूस किया कि "नियत प्रक्रिया" के ज़रीए मामला लड़ने का मौका, जीवन और घटनाओं में पीड़ित और अभियुक्तों की कथा को फिट करने की जरूरत है। जबकि हमारी "नियत प्रक्रिया" मानती है कि पीड़िता के पास अपने मामले को दर्ज करने और लड़ने के लिए उचित स्वतंत्रता और साधन है। अपने फील्डवर्क के दौरान हमें कई ऐसी महिलाओं का सामना करना पड़ा, जिनका जीवन साफ-सुथरे वर्गीकरण को परिभाषित करता है, जो कानूनी कामकाजी ढांचे की मांग करता है। रूपा (नाम बदला हुआ) उनमें से एक है।

रूपा गुड़गांव में एक झुग्गी के एक छोटे से कमरे में अपने छह महीने के बच्चे के साथ हमसे मिली। यह दिसंबर 2019 की सर्दियों की एक शाम थी। यह उसका घर नहीं था क्योंकि उसके पति घर पर थे और वहां मिलना संभव नहीं था। बैठक को एलिजाबेथ के॰ के घर पर किया गया जो  हरियाणा डोमेस्टिक वर्कर्स यूनियन की सह-संस्थापक है। रूपा का साक्षात्कार लेने की हमारी इच्छा पर वह आश्चर्यचकित थी। यह समझाने के बाद कि हमारा शोध यौन उत्पीड़न पर है जिसका सामना वे कार्यस्थल पर करती हैं, उसने कहा कि आप "मुझसे कुछ भी पूछो, मैं आपको सब कुछ बता दूंगी"। उसके जीवन की कहानी का एक असाधारण विवरण था।

उत्पीड़न एक नियम

उसके पहचान पत्र पर रूपा की उम्र 27 वर्ष है, लेकिन वह अपनी उम्र के बारे में निश्चित नहीं है। उसके जीवन की कथा न तो सीधी है और न ही सटीक है, लेकिन वे सब उसकी यादों और अनुमानों के आधार पर है। वह कहती है कि उसे झारखंड के एक गाँव से दिल्ली लाया गया था तव वह केवल नौ साल की थी। गाँव का एक रिश्तेदार उसे एक एजेंसी के माध्यम से दिल्ली ले गया क्योंकि उसके माता-पिता गरीबी की वजह से उसकी पालन-पोषण नहीं कर सकते थे। वह पूर्णकालिक घरेलू कामगार बनने को याद करती है। उसे इस समय की याद बहुत कम है क्योंकि दिल्ली में हर कोई उससे एक तरह से विदेशी भाषा बोलता था। उसके संचार का एकमात्र तरीका सिर हिलाना था जो "हाँ" और "नहीं" दर्शाने के लिए था। हालाँकि, उसे साफ तौर पर याद है कि न तो उसे और न ही उसके परिवार को उसके काम का कोई भुगतान किया जाता था। उसे इतना याद है कि जब एजेंसी और उसके रिश्तेदार उसे दिल्ली लाए थे, तो उन्हें एकमुश्त पैसा मिला था। कुछ वर्षों के बाद वह बीमार पड़ गई और घर वापस जा सकी। 

कुछ महीने बाद, उसके चचेरे भाई ने उसे एक एजेंसी को दे दिया जो दिल्ली में घरेलू कर्मचारियों की भर्ती और आपूर्ति करती है। जब हमने उससे यौन उत्पीड़न के तजुर्बे के बारे में पूछा, तो उसके पास बताने के लिए सिर्फ एक या दो घटनाएं नहीं थीं, बल्कि एजेंसी और घरों में काम करने वाले दोनों पर लगातार उत्पीड़न की यादें थी। एजेंसी का सुपरवाइजर ने जोर देकर कहता था कि सब लड़कियों उसके कमरे में सोएँगी। वह आमतौर पर बिस्तर पर सोता था और लड़कियां फर्श पर। एक रात वह मेरी बगल में सोते मिला और में जग गई और चिल्लाने लगी। उसकी पत्नी, जो उस समय गर्भवती थी, अगले कमरे में सो रही थी। रूपा की चीखों से एजेंट की पत्नी जाग गई और अपने पति को डांटने के बाजाय उसे डांटने लगी। रूपा ने माना कि भाभी (एजेंट की पत्नी) भी उससे डरती होगी।

रूपा ने आगे बताया कि वह एजेंसी की अन्य लड़कियों की तरह कभी-कभी घरेलू हिंसा के बारे में बात करती हैं और हिंसा की संभावनाओं का अनुमान लगाती हैं। वास्तव में कुछ घरों में तो अभ्यस्त अपराधी थे। जब कोई लड़की हिंसा से दुखी होकर एजेंसी वापस जाने में सक्षम हो जाती है, तो उसे किसी अन्य घर में भेज दिया जाता है, एजेंसी के मालिक की पूरी जानकारी के बावजूद नई लड़की को उसी हिंसा वाले घर में भेज दिया जाता है। अक्सर ये घर एजेंसी के मालिक को उनकी आज्ञा मानने के लिए मोटी रकम भी देते हैं। उसने एक ऐसी घटना याद की जिसमें उसे एक घर में जाना था। एक बूढ़ा व्यक्ति टेलीविजन पर अश्लील गाने सुनता और उसे शरीर की मालिश करने को कहता। और जब वह उसके शरीर की मालिश कर रही होती तो वह उसके स्तन को सहलाता और मुस्कुराता। उसने कहा, शुरू में बहू को उससे सहानुभूति थी, लेकिन बाद में उसने उससे इस बारे में पूछना बंद कर दिया। उसने अंततः वह घर भी छोड़ दिया और वापस एजेंसी में आ गई। और हर बार की तरह उन्होंने वहां एक नई लड़की को भेज दिया। और हमेशा की तरह काम इस उम्मीद में चलता गया कि नई लड़की "सहेगी" और बस वहां काम करती रहेगी।

घर नाम की कोई जगह नहीं है

रूपा को एजेंसी और उन घरों में उत्पीड़न का सामना करना पड़ा जहां उसे शुरुआत में छोटी उम्र से काम करने के लिए भेजा गया था। उत्पीड़न के मामले में वह अकेली नहीं थी। एजेंसी में ज्यादातर लड़कियां इसी तरह के उत्पीड़न का धिकार थी। हालाँकि, उसकी हालत खास तौर पर ढुलमुल थी क्योंकि एजेंसी छोड़ने के बाद उसके पास परिवार में वापस जाने का कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, वह जिन परिवारों में काम करती थी, जब वे छुट्टी पर चले जाते तो दूसरी लड़कियों की तुलना में उनके पास वापस घर जाने का कोई विकल्प नहीं था। उसकी एकमात्र शरण एजेंसी के सुपरवाईजर का घर था जिसे वह अपना अंकल कहती थी। यह वही आदमी था जिसने उसका यौन उत्पीड़न किया था।

छोटी उम्र में उत्पीड़न और कड़ी मेहनत से अधिक जो बात सताती थी वह यह कि रूपा के पास  वापस जाने के लिए कोई सुरक्षित घर या परिवार नहीं था जिसके साथ उसका भावुक रिश्ता होता। एक परिवार बनाने की उम्मीद में उसने एजेंसी में अन्य लड़कियों से दोस्ती की। उसने याद दिलाया कि उनमें से कुछ उसके अच्छे दोस्त बने और बाकी ने उसका फायदा उठाया। वह याद करती है कि कैसे उसकी एक करीबी दोस्त ने रूपा को उसकी बहन को 10 हजार रुपये अदा कर उसे अपनी बहन बनाने का वादा किया था। प्रस्ताव को ठुकरा कर रूपा पैसा लेने में कामयाब रही। हालांकि, लड़की ने उसके विश्वास को धोखा दिया और वह पैसे लेकर भाग गई। बाद में, एक अन्य वृद्ध महिला ने उसे इसी तरह 15,000 रुपये का धोखा दिया था। अब वह पछताती है कि क्योंकि वह जानती थी कि उसे धोखा दिया जाएगा, लेकिन वह बहुत छोटी थी और मौका लेने के लिए बेताब थी।

जबकि रूपा के मामले में हमारे द्वारा उसके संबंधों के बारे में पता लगाना हमारे लिए आश्चर्य की बात थी, लेकिन रूपा के लिए एक परिवार और स्वयं का घर का होना सभी संघर्षों के दिल में था। अपने जीवन पर होने वाले जबरदस्त मनोवैज्ञानिक और सामाजिक असर के अलावा, उसने जल्द ही महसूस किया कि किसी परिवार के बिना उसकी कोई पहचान नहीं है। हुकूमत के हिसाब से आपका नागरिकता का दावा तब तक बेकार है जब तक कि आपका परिवार अस्तित्व में नहीं है, और नागरिकता का सपना इसी धारणा के आसपास बुना गया है कि हर किसी का परिवार होता है। दो बार विश्वासघात होने के बावजूद, उसकी परिवार की खोज जारी रही। वह आखिरकार किसी पर भरोसा करने में कामयाब रही। एक लड़की थी जिसके साथ वह दिल्ली में काम करती थी। वह उसे उत्तर बंगाल के अपने घर ले गई और परिवार को रूपा को अपनाने के लिए मना लिया। उन्होंने उसे पहचान पत्र दिलाने में मदद की। वह कुछ साल तक अपने दत्तक परिवार के साथ रहीं। उन्होंने खेती का काम किया और चाय बागानों में काम किया और अपने नए परिवार का समर्थन किया। रूपा को याद है कि उसके सौतेले माँ और पिता उसे प्यार करते थे, लेकिन उसकी बहन और भाइयों को बहुत जलन होती थी इसलिए वह वापस दिल्ली आ गई। इसके तुरंत बाद, उसने बंगाल के एक लड़के से शादी कर ली, जो चेन्नई में काम करता था। शादी के बाद वह चेन्नई चली गईं और एक कपड़ा कारखाने में काम करने लगी। वहां उसकी मासिक तनख्वाह 9,000 रुपये थी, लेकिन उसे कभी पूरी रकम नहीं मिली क्योंकि मालिक हमेशा किसी न किसी बात पर वेतन काट लेते थे। आखिरकार, उसके पति ने भी नौकरी छोड़ दी और पति के साथ दिल्ली (गुड़गांव) वापस आने का फैसला किया क्योंकि उसे यहाँ काम मिलने का ज्यादा भरोसा था।

तब से, बड़े पैमाने पर वह अपने पति और अब अपने नवजात शिशु का समर्थन कर रही है। हालांकि, अपने पति से कोई समर्थन न मिलने या बहुत कम समर्थन मिलने की वजह से गर्भावस्था के दौरान काम करना मुश्किल था। उस दौरान वह अक्सर भूखी रहती थी। वह दर्द भरे दिल से याद करती है कि जब एक बार उसका बच्चा बीमार हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, उसके पास पैसे नहीं थे और उसे उधार लेना पड़ा। जबकि उसका पति, उसे पता  होने के बावजूद अस्पताल में मिलने नहीं आया। अस्पताल आने के बजाय उसका पति नए कपड़े पहनकर दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाता था। उसने शिकायत की कि उसका और बेटे का गुजारा चलाने के बजाय वह बस घूमता और अपनी मस्ती पर पैसा खर्च करता है। वह नियमित रूप से रूपा को गाली देता है।

रूपा के जीवन की कहानी कठिनाइयों से भरी होने के बावजूद, किसी भी बिंदु पर उसे अपने मुकदमे से भरे जीवन में कोई सहनशील गवाह नहीं मिलता है। वह सिर्फ खराब शादी में फंसी  असहाय यातनाग्रस्त महिला नहीं है, लेकिन एक ऐसी महिला जो जीवन में संसाधनों की कमी के बारे में गहराई से जानती है और इस तरह जानबूझकर शारीरिक और आर्थिक रूप से पीड़ित करने वाले पति के साथ रहने का विकल्प चुनती है क्योंकि उसका मानना है कि एक जानकार पुरुष के हाथों हिंसा सहना और सहने से बेहतर विकल्प है। उसकी बातों से सहमत या असहमत हुए बिना कोई भी उसके स्पष्ट निर्णय की प्रशंसा का भागी बन सकता है।

तय प्रक्रिया की विफलता

कई महिलाओं के जीवन खंडित हुए हैं और इस आम कहानी का विरोध करते हैं। लेकिन, जो कानून उनकी रक्षा करने के लिए बने हैं, वे बेहद संरचित और श्रेणीबद्ध हैं। वे अपने जीवित अनुभवों की जटिलताओं को समझने में कामयाब नहीं हैं। रूपा ने बहुत कम उम्र से यौन उत्पीड़न का सामना किया है। इस तरह की समान परिस्थितियों में कई महिलाओं के विपरीत, वह इसके बारे में बात करने से कतराती नहीं है। वह स्थानीय घरेलू कामगार यूनियन के संपर्क में है और स्थानीय शिकायत समिति के सदस्यों से परिचित है। समर्थन के इस नेटवर्क तक उसकी पहुँच के बावजूद, उसने शिकायत दर्ज करने के बारे में कभी नहीं सोचा। शायद एक बड़ी विडंबना यह है कि जिन लोगों ने उसका समर्थन किया था, उन्ही लोगों ने नियमित रूप से उसका उत्पीड़न किया था। इसलिए अगर वह शिकायत करेगी तो उसका समर्थन नेटवर्क टूट जाएगा,  हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसका उत्पीड़न बंद हो जाएगा। इसके अलावा, वह यह बात भी अच्छी तरह जानती है कि कानून उसकी रक्षा के लिए बना है, लेकिन कानूनी व्यवस्था उसके खिलाफ खड़ी है। यह कानूनी व्यवस्था उसके पैसे, संसाधनों और समय को नष्ट कर देगी और उसके "सम्मान" पर सवाल उठाया जाएगा और सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि उसे न्याय भी नहीं मिलेगा। इसलिए नियत प्रक्रिया कोई राहत नहीं है, बल्कि वह एक खतरा है। इसलिए समझदार रशीदा कहती ​​है कि आखिरकार "कानून बनाने वालों ने घरेलू श्रमिकों में गरीब महिलाओं के बारे में नहीं सोचा कि उनका भी क़ानून से कुछ लेना-देना हो सकता है।"

लेखक सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़, नई दिल्ली के शोधकर्ता हैं। यह लेख इंडियन एक्सक्लूजन रिपोर्ट से कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न पर एक बड़े अध्ययन का हिस्सा है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

A Woman Domestic Worker Narrates the Blind Side of ‘Due Process’

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