Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

आज़ाद को बाहर का रास्ता! और सावरकर का स्वागत!!

जिस ताबड़तोड़ गति से इतिहास के हिन्दुत्ववादी सांचे में पुनर्लेखन की प्रक्रिया में इसके प्रस्तावक जुटे हैं, इसका वास्तविक इतिहास ख़ुद ब ख़ुद उजागर होता जायेगा।
savarkar

पिछले साल, स्वतंत्रता सेनानी और आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की प्रतिमा को हिन्दुत्ववादी भीड़ ने पश्चिम बंगाल के नार्थ 24 परगना के कंकिनाडा इलाक़े में तोड़ दिया। उस समय देश में अपनी तरह के पहले आक्रामक तेवर में राम नवमी जुलूस के चलते राज्य के कई ज़िलों में सांप्रदायिक उन्माद भड़क गया था।

इस प्रकरण को जल्दी ही भुला दिया गया। कुछ ही लोगों को इस बात का अंदाज़ा होगा कि यह घटना मात्र दक्षिणपंथी हिंदुत्व के बड़े गेम-प्लान की पूर्वपीठिका थी, जो न सिर्फ़ इस महान स्वतंत्रता सेनानी की प्रतिमा को मिटा देना चाहती है, बल्कि इनकी मंशा इस नाम को इतिहास से भी मिटा देने की है।

अब किन्हीं कारणों की वजह से, इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च (आईसीएचआर) ने 11 नवंबर के दिन, जिस दिन मौलाना आज़ाद की जयंती है, ‘वीर दामोदर सावरकर: उनका जीवन और लक्ष्य’ विषय पर सेमिनार आयोजित करने का फ़ैसला किया है, जिससे शायद उनके इरादे का संकेत मिलता है। इस ख़ास दिन के साथ भी सावरकर का कोई स्पष्ट संबंध नज़र नहीं आता, क्योंकि उनका जन्म 28 मई 1883 को और मृत्यु 26 फ़रवरी 1966 को हुई थी।

आज से सिर्फ़ एक दशक पहले, 11 नवंबर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया गया था, जिसमें आज़ाद को नए आज़ाद हुए भारत में उनके द्वारा अपनाई गई नीतियों और संस्थानों को सुव्यवस्थित किये जाने के लिए याद किया गया। यह वह दिन था, जिसमें हमें देश की शिक्षा व्यवस्था और इसके भविष्य पर चर्चा करनी चाहिए थी।

अचानक से 11 नवंबर को सावरकर की यादों को ज़िन्दा करने की घोषणा, और दूसरी तरफ़ आज़ाद की अनदेखी का मतलब है सत्ता पक्ष और सरकार द्वारा एक बार फिर से अभी तक के अपने इतिहास दर्शन को दिखाने की सभी कोशिशों को दोबारा से फेंकना। इसके टूलकिट में एक औज़ार यह भी है कि किस प्रकार लोगों की यादों में किसी ख़ास दिवस पर राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके व्यक्तित्वों को नए सिरे से बदल दिया जाए।

टेलीग्राफ़ अख़बार के एक लेख में इसे बताया गया है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने किस प्रकार "लगातार कोशिश की है कि कैलेंडर में घोषित दिवसों के नाम बदल दिया जाए या उन्हें पुनर्स्थापित कर दिया जाए।" शायद इसकी एक वजह यह भी है कि जैसे ही भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं होती, इसके अपने हिंदुत्व के प्रतीक सार्वजनिक स्मृति में फीके पड़ने लगते हैं, मुश्किल से ही कोई उन्हें याद रखता है, और आम नागरिक तो शायद ही कभी याद करते हों।

और अपने ख़ुद के महत्वपूर्ण लोगों को को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की आड़ में, बीजेपी लगातार दूसरे सामाजिक समूहों के नायकों और प्रतीकों को खिसकाने की कोशिश में जुटी हुई है। उदाहरण के लिए, सत्ता में आते ही सरकार ने घोषणा की कि 25 दिसंबर के दिन, जिसे दुनिया भर में क्रिसमस दिवस के रूप में मनाया जाता है, आज से भारत में इस दिन को सु-शासन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। यह बीजेपी सरकार की वह स्कीम थी जिसमें उसने गुड गवर्नेंस देने का वायदा किया था। 25 दिसंबर को इसे अंगीकार करने और बदलने की भरपूर कोशिशों के बावजूद,  यह स्कीम शायद ही इसके बाद कभी सुनने को मिली हो।

इसी तरह, कांग्रेसी नेता सरदार पटेल की जयंती मनाने के लिए 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में चिह्नित किया जाना है। भाजपा पटेल को हिंदू-जैसा जैसा दिखने के रूप में प्रचारित कर रही है, जिस प्रकार के हिन्दू को वे ख़ुद देखना चाहते हैं। भुला दिए जा रहे हैं वे दिन जब पटेल ने बीजेपी की मातृ शक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बजाय, भाजपा कश्मीर के प्रश्न पर पटेल की स्थिति के बारे में आधे-सच को बढ़ावा देने में लगी है, ताकि पटेल उनकी मान्यता से नज़दीक खड़े दिखें। भाजपा यह भी तर्क देने की कोशिश करेगी कि 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस घोषित करने के पीछे उसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है की इसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर मनाए जाने वाले राष्ट्रीय संकल्प दिवस पर वह किसी प्रकार का ग्रहण लगा रही है।

2 अक्टूबर को भला कौन भूल सकता है, जिस दिन 1869 में गाँधी जी का जन्म  हुआ, उसको आज भी गांधी जयंती के रूप में मनाया जाता है। अब यह दिवस अंहिंसा और सांप्रदायिक भाईचारे के उत्सव के रूप में मनाए जाने के बजाय स्वच्छता दिवस के रूप में मनाने पर आ टिका है। मोदी राज वाली बीजेपी सरकार ने एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती को स्वच्छता के मुखौटे (शुभंकर) में तब्दील कर दिया है। भारतीय सामाजिक जीवन से जुड़े कई पर्यवेक्षकों ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि स्वच्छता के संदर्भ में भी बीजेपी का ज़ोर अच्छे साफ़-सुथरे स्वास्थ्य और नागरिक सुविधाओं के बजाय स्वच्छता के  ‘अनुष्ठानिक’ शुद्धता पर बना रहा है। 2 अक्टूबर को महज़, सरकार के प्रमुख प्रोजेक्ट, स्वच्छ भारत का प्रचार-प्रसार करने के रूप में हथिया लिया गया है।

अब हमें बताया जा रहा है कि प्रमुख संविधानविद और देश के पहले क़ानून मंत्री भीमराव अंबेडकर की जयंती, 14 अप्रैल को भी समरसता दिवस के रूप में मनाने की योजनाएँ बन रही हैं। समरसता, जाति व्यवस्था पर हिंदुत्व की विचारधारात्मक स्थिति को दर्शाती है। यह संविधान के आधार पर नागरिकों की समानता के मूल्यों का समर्थन करने के बजाय, पारंपरिक हिंदू जाति विभाजन के आधार पर स्थापित जातीय पदानुक्रम के भीतर सद्भाव बनाये रखने की वकालत करता है।

इन सभी महान प्रतीकों के साथ, मौलाना आज़ाद की जयंती भी मनाई जा रही है जो आज एक ख़ास महत्व रखती है। आज देश भर में धार्मिकता का ज़बरदस्त बोलबाला है और इसे हम सार्वजनिक जीवन में धर्म और राजनीति के घातक गठजोड़ के खुले प्रदर्शन के रूप में देख रहे हैं। आज़ाद ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक विद्वान, पत्रकार और कांग्रेस में एक वरिष्ठ नेता के रूप में योगदान दिया, और कांग्रेस में वे दो बार अध्यक्ष चुने गए।

आज़ाद ता-उम्र पक्के मुसलमान रहे, लेकिन वे कभी भी हिंदू-मुस्लिम एकता और धर्मनिरपेक्षता के विचार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में पीछे नहीं हटे। उन्होंने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत और पाकिस्तान की मांग को ख़ारिज कर दिया था। उनका दृढ मत था कि यह "लोगों के साथ सबसे बड़ी धोखाधड़ी" में से एक है, जब उन्हें यह समझाने की कोशिश की जाती है कि धार्मिक जुड़ाव से उन क्षेत्रों को भी एकजुट किया जा सकता है जो भौगोलिक, आर्थिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से अलग हैं। उनके कहने का आशय था, कि स्वतंत्र भारत एक ऐसा देश होगा जहाँ सभी धर्मों के सदस्यों को एक समान नागरिक हक प्राप्त होंगे।

इस मोर्चे पर उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का विरोध किया, जिसके चलते मुस्लिम समुदाय से भी उन्हें अलगाव झेलना पड़ा। 1947 में कुछ ग़ुस्साए छात्रों ने तो उन पर जूतों की एक माला उछाली और उन्हें "इस्लामी कामों में गद्दार" तक कहा।

कल्पना कीजिये उनकी अंदरूनी प्रेरणाशक्ति की, कि आज़ाद अपने सिद्धांतों पर डटे रहे और मुस्लिम समुदाय के भीतर के बहुसंख्यकवादी तर्क के शिकार नहीं हुए, यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी के भीतर भी मुसलमानों में यह बात घर कर रही थी कि उन्हें “पार्टी में भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है, उनके लिए पार्टी में निचले पद और उन्हें संगठन से बाहर किये जाने की कोशिशें की गईं” जब 1936-37 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने अधिकांश सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज़ाद अपनी जगह पर डटे रहे और उन्होंने आश्वस्त किया कि "कांग्रेस के उच्च पदों पर आसीन लोग सांप्रदायिक नहीं थे।"

1940 में कांग्रेस पार्टी के रामगढ़ अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए, आज़ाद ने धार्मिक अलगाववाद की आलोचना करते हुए मुसलमानों से एकजुट भारत को बनाये रखने का आह्वान किया। दिवंगत इतिहासकार मुशीरुल हक़ के अनुसार आज़ाद ने अपने भाषण में कहा "....इस्लाम का अब भारत की धरती पर उतना ही दावा है जितना हिंदू धर्म का है। अगर हिंदू धर्म कई हज़ारों वर्षों से यहां के लोगों का धर्म रहा है, तो इस्लाम भी एक हज़ार साल से उनका धर्म रहा है। जिस तरह से एक हिंदू गर्व के साथ कह सकता है कि वह एक भारतीय है और हिंदू धर्म का पालन करता है, उसी प्रकार से हम भी गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम भारतीय हैं और इस्लाम का पालन करते हैं ... भारतीय ईसाई भी गर्व के साथ यह कहने का हक़दार है कि वह एक भारतीय है और भारत के एक धर्म अर्थात् ईसाई धर्म को मानने वाला है।"

लेकिन दक्षिणपंथी हिंदुत्व इस जिन्ना को चुनौती देने वाले शख़्स मौलाना आज़ाद तक के “पुनारान्वेष्ण” में क्यों लगा है, जिसने विभाजन का विरोध किया था और अंत तक द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के दृढ समालोचक बने रहे?

आज़ाद की अपदस्थ करने की कोशिश यह दिखाती है कि जिन्ना और उनके ब्रांड की राजनीति पर लगातार लांछन लगाने के बावजूद, हिंदू राष्ट्र के समर्थकों और निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा या इस्लामिक राज्य के बीच एक विचित्र साम्य देखने को मिलता है। दोनों ही इस मूल प्रस्ताव पर सहमत हैं कि धर्म, राष्ट्रवाद का आधार हो सकता है। और इसी प्रकार, यह कोई संयोग नहीं है कि जब सावरकर ने यह दावा किया था कि भारत में दो राष्ट्र हैं, ख़ासतौर पर हिंदू और फिर मुस्लिम, और इसके ठीक दो साल बाद जिन्ना 1939 में अपने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हैं।

दस्तावेज़ हमें बताते हैं कि 1937 में, सावरकर ने हिंदू महासभा के 19 वें सत्र में अहमदाबाद में दिए गए अपने अध्यक्षीय भाषण में खुले आम इसकी घोषणा की थी कि भारत में दो राष्ट्र हैं(वीडी सावरकर की संकलित रचनाएँ, Vol VI, महाराष्ट्र प्रांतीक हिंदुसभा, पूना द्वारा प्रकाशित 1963, पृष्ठ-296)। बेशक, आज़ाद जैसी शख़्सियत, जिसने कभी भी धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं किया, वह हमेशा ही ऐसी विश्वदृष्टि के लिए अभिशाप बना रहेगा।

भारतीय इतिहास से आज़ाद को अपदस्थ करने का धीमा, यद्यपि निर्णायक प्रयास, ब्रिटिश शासित भारत में भी एक वास्तविक प्रकरण के रूप में दिखाई पड़ता है, जब हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों ने मौलाना आज़ाद की हत्या की साज़िश रची थी। यह साज़िश हिंदुत्व के विचारक विनायक सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर ने रची थी, लेकिन इसे अंजाम देने में सफलता हाथ नहीं लगी। यह हिस्सा अब इतिहास में दर्ज है कि गणेश जिन्हें बाबाराव के नाम से जाना जाता था, उन पाँच संस्थापकों केबी हेडगेवार, बीएस मुंजे, एलवी परांजपे और बीबी थोलकर में से एक थे जिन्होंने 1925 में आरएसएस की स्थापना की थी। किसी तरह इस योजना की भनक औपनिवेशिक सरकार के जासूसों को चल गई। उनकी यह रिपोर्ट अब दिल्ली पुलिस अभिलेखागार का हिस्सा है। जिस रफ़्तार से इसके प्रस्तावक हिंदुत्व के सांचे में इतिहास के पुनर्लेखन में जुटे हुए हैं, इसका वास्तविक इतिहास आदतन इसके साथ-साथ चलता आ जायेगा।

सुभाष गाताडे एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Exit Azad! Enter Savarkar!!

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest