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अटलांटिक गठबंधन और पड़ोसी देशों की विफलता अफ़ग़ानिस्तान त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार

लगता है तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण पाने की कगार पर है, उसने युद्धग्रस्त देश के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है।
अटलांटिक गठबंधन और पड़ोसी देशों की विफलता अफ़ग़ानिस्तान त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार
Image Courtesy: Reuters

डॉ॰ राधा कुमार एक इतिहासकार और जातीय संघर्ष और शांति निर्माण की विशेषज्ञ हैं। वे  मनमोहन सिंह सरकार के दौरान जम्मू और कश्मीर की वार्ताकार नियुक्त हुई थी और हाल तक, दिल्ली पॉलिसी ग्रुप की महानिदेशक थीं, जो अपने आप में उपरोक्त मुद्दों पर एक स्वतंत्र थिंक टैंक हैं। वे अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी सेना की अचानक वापसी के बारे में रश्मि सहगल से बात कर रही है। कुमार नवीनतम घटनाओं को एक "भयानक त्रासदी" कहती हैं, देश के बड़े हिस्से में यह त्रासदी अटलांटिक गठबंधन और अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्रीय पड़ोसियों की एक साथ काम करने में विफलता के कारण घटी है, साथ ही वे अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका और विकास के संभावित नतीजों के बारे में कुछ लोकप्रिय गलत धारणाओं को दूर करती है। महत्वपूर्ण रूप से, वे जम्मू और कश्मीर में और पाकिस्तान के साथ बातचीत के जरिए क्षेत्र में हिंसा को कम करने की वास्तविक शांति प्रक्रिया की जरूरत पर ज़ोर देती हैं। यहाँ उसी बातचीत के सपादित अंश पेश किए जा रहे हैं।

ऐसा लगता है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण पाने की कगार पर है, जिसने युद्धरत देश के एक बड़े हिस्से को कब्जा लिया है। भारत ने हेरात और जलालाबाद में अपने वाणिज्य दूतावास बंद कर दिए हैं और कंधार के वाणिज्य दूतावास से अपने नागरिकों को हटा दिया है। यह किस बात का संकेत है?

वाणिज्य दूतावासों का बंद होना अफ़ग़ानिस्तान में भारत की उपस्थिति और कार्यक्रमों में कूटनीतिक और विकास के संबंध में तेजी से आई कमी को दर्शाता है। यह इस बात की तरफ भी इशारा करता है कि इसके चलते मदद/सहायता में भी समान गिरावट आ सकती है। वास्तव में, मोदी सरकार ने 2014 से ही अफ़ग़ानिस्तान में अपनी गतिविधि को कम करना शुरू कर दिया था - दोनों सरकारों के बीच उच्च-स्तरीय यात्राओं या वार्ता में तेजी से गिरावट को देखी गई। हाल ही में, अमेरिका की तरफ से त्वरित वापसी की घोषणा के बाद, भारत सरकार ने तालिबान के साथ कुछ तालमेल बिठाने के लिए राजनयिक गतिविधि तेज की है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि प्रयास सफल होंगे या नहीं, जबकि भारत की सुरक्षा के लिए यह काफी महत्वपूर्ण है ताकि अफ़ग़ानिस्तान फिर से भारत विरोधी सशस्त्र समूहों की पनाहगाह न बन जाए, क्योंकि पहले तालिबान शासन के अधीन ऐसा हो चुका है।  

हाल ही में आई रिपोर्टों से पता चलता है कि पिछले 24 घंटों में अफ़ग़ानिस्तान के 13 जिलों को तालिबान ने अपने कब्जे में ले लिया है। वे कब्जाए गए अमेरिकी हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं और अब उनकी नज़र काबुल पर है।

जिलों पर कब्जा करना एक अलग बात है लेकिन उन्हे अपने साथ बनाए रखना मुश्किल बात  है। अफगान सेना वर्तमान में अमेरिकी सेना की वापसी से जूझ रही है, लेकिन निश्चित रूप से लड़ाई होगी। इस तरह की लड़ाई कितनी प्रभावी होगी यह कई कारकों पर निर्भर करेगा: भुगतान, हथियार/उपकरण और सैनिकों का मनोबल, अफगान सरकार का दृढ़ संकल्प, पड़ोसियों से समर्थन- जैसे सभी कारकों की जैसे एक साथ बाढ़ सी आ गई है और इसलिए इसका आकलन करना अभी मुश्किल है।

इस बात को भी ध्यान में रखें कि जहां क्षेत्रीय और महान शक्तियाँ वर्तमान में तालिबान के साथ सौदे करने की कोशिश कर रही हैं, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एक्टरों का इस किस्म का आधा-अधूरा दृष्टिकोण इस बात पर निर्भर करता है कि तालिबान उनके साथ कैसे व्यवहार करता है और यही बात आगे भी निर्भर करेगी। अगर तालिबान सत्ता हासिल कर लेता है, और अपनी पिछली सरकार की तरह, महिलाओं, स्वतंत्र मीडिया, गैर सरकारी संगठनों के सदस्यों को बड़े पैमाने पर प्रताड़ित करता है, तो उन्हें कम से कम तालिबान का समर्थन करने वाले देशों की तरह वित्तीय और कूटनीतिक दबाव का सामना करना पड़ेगा। यदि अमेरिका/यूरोप/भारत विरोधी सशस्त्र समूह तालिबान के अधीन शरण लेते हैं, तो फिर से अतीत की तरह हवाई हमले जैसे सैन्य दबाव बढ़ सकते है।

इस दौरान दो लाख से अधिक अफगान नागरिक विस्थापित हुए हैं और कई और लोग इसकी चपेट में आएंगे। देश के 375 में से 200 जिलों में अफगान बलों और तालिबान लड़ाकों के बीच सक्रिय लड़ाई चल रही है। सैकड़ों अफगानी सुरक्षाकर्मी ईरान और ताजिकिस्तान भाग गए हैं। व्यवसायी और पेशेवर देश छोड़कर भाग रहे हैं। यह अफगान लोगों के लिए शुभ संकेत नहीं है। आपकी टिप्पणियां?

अफ़ग़ानिस्तान गृहयुद्ध में धसता जा रहा है जिसके चलते शरणार्थी और पूंजी का प्रवाह सभी सहवर्ती बुराइयों के साथ जारी है। यह एक ऐसी भयानक त्रासदी है, जो पिछले बीस वर्षों में अटलांटिक गठबंधन और अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्रीय पड़ोसियों के साथ काम करने और उनकी विफलता के कारण हुई है।

भारतीय सेना ने अफगान सेना को लैस करने में मदद की थी। वे क्यों तालिबान का मुकाबला करने के लिए नेतृत्व बनाने में विफल रहे?

एक बार जब अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो का मिशन शुरू हुआ, उसके बाद भारतीय सेना की भूमिका काफी कम हो गई थी। अफगान सेना को भारतीय सैन्य समर्थन मुख्य रूप से पूर्व-तालिबान काल के दौरान मिला था, यानी 1996 से पहले। उसके बाद, उसने उत्तरी-गठबंधन को समर्थन दिया, जो वास्तव में कोई सेना नहीं थी। नाटो की भागीदारी के बाद, भारत ने अपने सैन्य प्रशिक्षण कार्यक्रमों को जारी रखा जिसमें कई अन्य देशों के अधिकारियों के साथ अफगान अधिकारी भी कभी-कभी भाग लेते थे। ये कार्यक्रम मुख्य रूप से विभिन्न राष्ट्रीय सेनाओं के अधिकारियों की रणनीतिक सोच के बारे में जानने के लिए किए जाते हैं, न कि सेना की कमान या नेतृत्व-निर्माण के बारे में होते थे। 

भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को सहायता के रूप में, उनके अस्पतालों और सड़कों के निर्माण में निवेश किया है। अब इन सभी संपत्तियों का क्या होगा?

2014 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में संस्था-निर्माण और विकास में भारत का निवेश और खर्च धीरे-धीरे कम हुआ है। स्कूल, अस्पताल और सड़कों जैसी संपत्ति अक्सर गृहयुद्ध में प्राथमिक लक्ष्य बन जाती है, और भारत उनकी रक्षा करने की स्थिति में नहीं है। पहले, भारत जिन संपत्तियों का निर्माण करता था उनकी सुरक्षा अफगान बलों और उनके लोगों द्वारा की जाती थी, अब उन संपत्तियों का अस्तित्व विभिन्न युद्धरत ताकतों और उनके रहम पर निर्भर करेगा।

अफ़ग़ानिस्तान का गृहयुद्ध भारत की सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेगा, ख़ासकर कश्मीर में?

जम्मू और कश्मीर में हिंसा भारत सरकार की शांति प्रक्रिया से संबंधित है। आंकड़े बताते हैं कि जब भी जम्मू-कश्मीर में ठोस शांति प्रक्रिया हुई है और पाकिस्तान से बात की है, तो हिंसा में नाटकीय रूप से गिरावट आई है। इसके विपरीत, सरकार द्वारा कठोर कार्रवाइयाँ, शांति-निर्माण की असफलता और नाउम्मीदी हिंसा की तीव्रता को बढ़ा सकती हैं।

यदि भारत सरकार आने वाले वर्ष का इस्तेमाल [पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी] वाजपेयी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की शांति प्रक्रियाओं की तर्ज पर शांति प्रक्रिया शुरू करती है, तो सशस्त्र समूहों को मिलने वाले सार्वजनिक समर्थन में तेजी से गिरावट आने की संभावना है, जो पाकिस्तान समर्थित सशस्त्र समूहों से हमारी सुरक्षा को मजबूत करेगी। इसकी संभावना नहीं है कि अफ़गानिस्तान से इन समूहों को हथियार मिलने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि अफ़गानिस्तान के भीतर मांग बहुत अधिक होगी, जबकि गृहयुद्ध चलता रहेगा, और इसके कम से कम एक वर्ष और संभवतः अधिक समय तक चलने की संभावना है।

याद रखें, कि पिछली बार अमेरिका और सऊदी-वित्तपोषित हथियारों को पाकिस्तान के माध्यम से भेजा गया था, जिसकी सरकार ने पाकिस्तान में स्थित भारत विरोधी समूहों को आपूर्ति की थी, और बदले में, उन्हें जम्मू और कश्मीर में आतंकवादियों को सौंप दिया था। ऐसी स्थिति इस बार दोहराने की संभावना नहीं है। विदेशी देश जो अफ़ग़ानिस्तान में एक या दूसरे पक्ष का समर्थन कर सकते हैं, उनके पाकिस्तान को ज़रिया के रूप में इस्तेमाल करने की संभावना नहीं है - उनके पास इसके लिए अधिक सीधे रास्ते होंगे।

भारत ने कथित तौर पर तालिबान के साथ "बैक-चैनल" यानि पीछे के दरवाजे से वार्ता की है। उनका परिणाम क्या रहा, यह देखते हुए कि भारत ने जोर देकर कहा था कि वे आतंकवादी संगठनों से बात नहीं करेगा?

अधिकांश देश कहते हैं कि वे आतंकवादियों से बात नहीं करेंगे और फिर वे ऐसा करते हैं, इसलिए मैं ऐसे बयानों को गंभीरता से नहीं लेती हूँ। जहां तक तालिबान के साथ बैक-चैनल के प्रयासों का सवाल है, यह एक अनकही कहानी है। मास्को बैठक को देखते हुए, कुछ सतर्क प्रगति लगती है, लेकिन हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि चीज़ें कैसे बदलती है।

तालिबान के साथ [पूर्व घटक] उत्तरी गठबंधन की बातचीत की व्याख्या कैसे की जाएगी?

कोई उत्तरी-गठबंधन नहीं है। इसके कई घटक अफगान सरकार में समा गए और मुझे नहीं पता कि जो छूट गए वे किस रास्ते पर जाएंगे। उनमें से अधिकांश अपनी जागीर की रक्षा को सबसे पहले चुनेंगे; उनमें से कुछ तालिबान के साथ एक समझौते पर बातचीत करने में सक्षम हो सकते हैं जो उन्हें अपने क्षेत्रों में कुछ शक्ति देगा, अन्य को ऐसी छुट मिलना मुश्किल है। 

क्या अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम से पाकिस्तान को अपना दबदबा बनाने में मदद मिलेगी? उस पर अमेरिका की ओर से आतंक के खिलाफ कार्रवाई का दबाव है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह अमरीका की सुनेगा।

ये बात सच है। लेकिन जैसा कि मैंने समझाया है, स्थिति अलग है क्योंकि पाकिस्तान अब भारत विरोधी समूहों के लिए हथियारों का जखीरा नहीं रखेगा। हालांकि पाकिस्तानी खुफिया विभाग फिर से कश्मीर में अफगान पश्तून लड़ाकों की भर्ती करने में सक्षम हो सकता है, जैसा कि उन्होंने 1948 और 1980 और 1990 के दशक में किया था, लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा करने में एक या दो साल लगेंगे। जैसा कि आपने कहा, पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने की संभावना नहीं है।

सैन्य जीत के लिए तालिबान का आक्रामक रुख और उसकी अफगान के भीतर राजनीतिक वार्ता में भाग लेने से बचना साबित करता है कि अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा सौदे ने अफ़ग़ानिस्तान में शांति और सुलह के लिए कोई ढांचा प्रदान नहीं किया है। बल्कि यह अमेरिकी वापसी की सुविधा का एक कवर-अप था?

निश्चित रूप से, यूएस-तालिबान समझौते का उद्देश्य अमेरिकी वापसी का एक ढांचा प्रदान करना था, और यह भी उतना ही सच है कि तालिबान द्वारा समझौते का बार-बार उल्लंघन करने के लिए उसे कोई दंड नहीं दिया गया। इसे कवर-अप नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह सब नज़र आ रहा था। 

अमरीका के अचानक से हटने से, अमेरिकियों ने अफगान गणराज्य के पैरों के नीचे से गलीचा खींच लिया है और अपने बीस साल के काम को तबाह कर दिया है। क्या आप कहना चाहेंगी कि अफगानी लोगों को भेड़ियों के हवाले कर दिया गया है?

हाँ यह बात सही है। साथ ही, इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि यूएस-नाटो-अफगान गठबंधन शुरू से ही बोझिल था- औपनिवेशिक या शाही इरादों के किसी भी दाग से बचते हुए उनकी ऐसी व्यवस्था बनाने की कोसिश्स थी जिसमें एक ऐसी अफगान सरकार हो जिसे यूएस-नाटो सैनिक बल का समर्थन हो। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान राजनीतिक रूप से बहुत विखंडित था, और हर एक अफ़ग़ान सरकार का गठन अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद ही हुआ था। इसके अलावा, प्रत्येक नेता अफगान जनता के समर्थन से अधिक अमेरिका के समर्थन पर निर्भर था। यह एक स्थायी तंत्र नहीं था - इसने निरंतर राजनीतिक और इसलिए सुरक्षा की अस्थिरता की स्थिति को पैदा किया था। 

पाकिस्तान ने पहले कहा था कि तालिबान अमीरात उन्हे स्वीकार नहीं है, लेकिन वे अब पीछे हट गए हैं। क्या इसका मतलब यह है कि उन्होंने दोहरा खेल खेला?

इसमें कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है। अमेरिका के तेजी से बाहर निकलने से पाकिस्तान के पुराने गंभीर रणनीतिक सिद्धांतकारों को नई आवाज मिली है। अब जब अंत नजदीक आ गया है,  पाकिस्तानी सरकार और सेना तालिबान पर दबाव बनाने के बजाय उनका पक्ष लेना पसंद करेगी।

पाकिस्तान ने तालिबान को पनाहगाह, प्रशिक्षण, वित्तीय सहायता और हथियार मुहैया कराए थे। क्या तालिबान और उग्रवाद के उदय से पाकिस्तान और उसके संघर्षरत लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा?

हमले का खतरा निश्चित रूप से पाकिस्तानी सरकार और सेना के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, साथ ही लश्कर और जैश जैसे सशस्त्र समूहों में नए सिरे से जान पड़ना पाकिस्तान के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। पाकिस्तानी अधिकारियों ने अक्सर शिकायत की है कि उनके देश ने अफगान युद्ध की वजह से और शरणार्थियों की शरण देने की बड़ी लागत अदा की है। फिर से एक शरणार्थी लहर किसी झटके से बड़ी चिंता है, जिसे अमल में लाने में कुछ समय लगेगा। दिलचस्प बात यह है कि ईरान और ताजिकिस्तान में शरण लेने वाले शरणार्थियों के बारे में मिली रिपोर्टों के विपरीत, पाकिस्तान में शरणार्थी पलायन की अपेक्षाकृत रिपोर्टें कम मिली हैं।

क्या कथित "चीनी धमकी" ने अमेरिकी वापसी को गति दी है?

मुझे लगता है यह अंदाज़ा थोड़ा गलत है। बाइडेन प्रशासन ने कहा है कि चीन अफ़ग़ानिस्तान की तुलना में कहीं अधिक सामरिक और सुरक्षा चुनौती पेश कर रहा है और यही उसका फोकस है। इस चुनौती से उपजी अमेरिका की वापसी, अमेरिकी जनता के ध्यान में अब अफगान/आतंकवाद चुनौती की जगह चीन की चुनौती ने ले ली है। इस अर्थ में, यह उन त्रासदियों के बारे में सार्वजनिक प्रश्नों को मोड़ देता है जो अमेरिका के एकतरफा वापसी के फैसले के मद्देनजर सामने आई हैं।

क्या अमेरिकी सैनिकों की वापसी से पैदा हुई रणनीतिक खाई को चीन भर पाएगा?

इसकी बहुत कम संभावना है। चीन अमेरिकी सैनिकों की वापसी से पैदा हुए सुरक्षा शून्य को भरने के लिए सैनिक नहीं भेजेगा। बल्कि वह तालिबान के साथ एक समझौते चाहेगा, ताकि वह यह सुनिश्चित कर सके कि उइगर उग्रवादियों को अफ़ग़ानिस्तान में पनाह और प्रशिक्षण नहीं मिले जैसा कि 9/11 से पहले हुआ था, और दूसरा यह देखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में जारी गृहयुद्ध के चलते वे अपनी बेल्ट एंड रोड पहल को कैसे सुनिश्चित या सुरक्षित कर सकते हैं। 

किसी भी सूरत में अफ़ग़ानिस्तान चीन को रणनीतिक गहराई पेश नहीं करता है। यदि चीन के पश्चिम में इस तरह की भूमिका की जरूरत होती है, तो इसे मध्य एशियाई देशों की भूमिका से पूरा किया जा सकता है, हालांकि रणनीतिक गहराई से अधिक बफर का होना जरूरी है (बाद वाला रूस का डोमेन है)। चीन के लिए हिंद-प्रशांत में रणनीतिक गहराई एक लक्ष्य है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत दक्षिण एशिया को अस्थिर कर देगी और 2014 में सीरिया में इस्लामिक स्टेट के उदय से लोगों को फ़रार होना पड़ा था क्या इसका भी समान वैश्विक प्रभाव पड़ेगा। आपकी टिप्पणी? 

आईएस और तालिबान पूरी तरह से अलग हैं। आईएस काफी क्रूर थे, लेकिन तालिबान के पास गुलाम 'आराम' वाली औरतें नहीं थीं, और न ही वे यूरोप और अमेरिका की गई क्रूरता वाले अजीबोगरीब वैचारिक समूह से प्रभावित थे। अफ़ग़ानिस्तान में आईएस के कुछ गुट मौजूद हैं; यह देखना बाकी है कि तालिबान देश पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद उनसे कैसे निपटेगा।

कुल मिलाकर तालिबान का फोकस अफ़ग़ानिस्तान पर रहा है। मैं उन्हें दक्षिण-एशियाई या मध्य एशियाई क्षेत्र में किसी भी महत्वपूर्ण सीमा तक विस्तार करने की स्थिति में नहीं देखती हूँ। उनसे जो मुख्य खतरा हैं, वह अन्य सशस्त्र समूहों को शरण देने का है, जिनमें से प्रत्येक अपने संप्रदाय के हित में या स्थानीय क्षेत्रीय लड़ाई लड़ने को तैयार है। चूंकि अफ़ग़ानिस्तान छह देशों की सीमा से जुड़ा है (यदि हम चीन के साथ एक छोटी सी सीमा को भी शामिल करते हैं), तो प्रत्येक के लिए सीमा पार खतरा महत्वहीन नहीं है, लेकिन इन सभी समूहों की तरफ से फिलहाल तो खतरा कम है।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Failure of Atlantic Alliance and Neighbours Largely Responsible for Afghanistan Tragedy

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