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एनआरआईसी (NRIC) के लिए किन काग़ज़ात की ज़रूरत पड़ेगी? : फ़ैज़ान मुस्तफ़ा

फ़िलवक़्त एनपीआर (NPR) की प्रक्रिया के मंडराने से भारतीयों की स्वाधीनता पर चोट का आभास हो रहा है, चाहे यह नागरिकों के रूप में उनके शामिल किए जाने के रूप में हो या अवैध घुसपैठियों के रूप में उन्हें बहिष्कृत किये जाने के रूप में हो।
CAA
चित्र साभार: स्क्रॉल 

गृह मंत्री अमित शाह के इस बयान, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि नागरिकों के पंजीकरण की प्रक्रिया पर काम किया जाना अभी बाकी है, प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने उसे ख़ारिज करते हुए चेतावनी दी है कि 2020 की जनगणना के तहत राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के लिए जुटाए गए डाटा का इस्तेमाल, बाद में भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRIC, या NRC) के लिए किया जाएगा। उनके अनुसार, इस प्रक्रिया के नियम पहले से ही 2003 में वाजपेयी सरकार के शासनकाल में तय किए जा चुके थे। सन 2003 में धारा 14-A को शामिल करने के लिए, 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया था और इस संशोधन के जरिये एनआरसी (NRC) के लिए क़ानूनी आधार तैयार कर दिए गए थे। दरअसल, इसी क़ानून के आधार पर एनपीआर (NPR) को फ़्रेम किया गया है, न कि 1948 के जनगणना अधिनियम के अनुसार- आमतौर पर जिसके अंतर्गत ही जनसंख्या की गणना संचालित की जाती रही है।

जनगणना का काम रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इण्डिया के अधिकार क्षेत्र के तहत आता है, और इस बार एनपीआर (NPR) को तैयार करने की प्रक्रिया आवेदन-आधारित (जैसा कि असम में हुआ था, जहां इस बात को व्यक्तिगत आवेदकों पर छोड़ दिया गया था कि वे शासकीय अधिकारियों से संपर्क करें और अपनी नागरिकता के लिए दावा पेश करें) न होकर कहीं अधिक हिसाब-किताब वाली और व्यापक होने जा रही है। जहाँ एक ओर एनआरसी (NRC) को अभी तक आधिकारिक रूप से अधिसूचित नहीं किया गया है, वहीं दूसरी ओर 1 अप्रैल से 30 सितंबर 2020 के बीच एनपीआर (NPR) के ज़रिये डेटा एकत्र किये जाने की प्रक्रिया अपने आप में- राष्ट्रीय रजिस्टर के लिए शुद्धीकरण की दिशा में एक बड़ा क़दम साबित होने जा रहा है। दरअसल इस सिलसिले में यूपी सरकार ने पहले से ही सर्वेक्षण, वीडियो डॉक्यूमेंटेशन और निगरानी के तमाम रिकार्डों के ज़रिये आधार बनाने की तैयारी भी शुरू कर दी है।

एक बार जनगणना की प्रक्रिया शुरू हो जाने पर जिन लोगों के दस्तावेज़ अधूरे या संदिग्ध लगेंगे, उनकी एक अलग से सूची तैयार कर आगे की पूछताछ के लिए रख दिया जाएगा। इस प्रकार बाहर करने का पहला चरण निचले स्तर के अधिकारी द्वारा तय कर लिया जाएगा, जैसा कि असम में "संदिग्ध" सूची तैयार करते समय किया गया था। वहां पर  टी.एन. शेषन की अगुआई में चुनाव आयोग ने डी-मतदाता सूची (संदिग्ध मतदाता सूची) तैयार करनी शुरू की, जो उसके बाद तेजी से विस्तारित होकर एनआरसी( NRC) द्वारा लाए गए कष्टों में एक महत्वपूर्ण योगदान करने की वजह बनी।

असम के अनुभव से सबक यह है कि असंबंधित-प्रतीत होने वाली प्रक्रिया (असम में डी-वोटर लिस्ट और आज के सन्दर्भ में एनपीआर की प्रक्रिया) में छोटी-छोटी कमियाँ (अशुद्धियाँ) उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ काफ़ी भारी पड़ने जा रही हैं। असम में जिन आवेदकों के नाम अलग श्रेणी में पाए गए, उन्होंने पाया कि वे बाकियों से अलग-थलग कर दिए गए हैं। अपनी नागरिकता साबित करने के लिए उन्हें अपने दस्तावेज़ों में सुधार या अनुसमर्थन के लिए एक फॉर्म भरना पड़ा, और इन फॉर्मों के साथ विदेशी न्यायाधिकरणों (फ़ोरेनर्स ट्रिब्यूनलस)  से संपर्क साधना पड़ा। इन ट्रिब्यूनलों की स्थापना फ़ोरेनर्स एक्ट 1946 के तहत की गई थी – जिसका उद्द्येश्य मूल रूप से भारतीय नागरिकों की पहचान की जाँच करना नहीं था, लेकिन इसका अंत इसी उद्येश्य में प्रस्तुत किया गया। यह काफी अहम होगा कि कहीं ऐसे में राष्ट्रव्यापी एनआरसी की प्रक्रिया भी उसी रस्ते पर न चली जाए। मुस्तफ़ा जोर देते हुए कहते हैं कि ऐसे नागरिकों वाले न्यायाधिकरणों के गठन की ज़रूरत है जिनके ख़ुद के निर्धारित नियमों से वे संचालित हों, और जो फ़ोरेनर्स ट्रिब्यूनलस से भिन्न हों। सत्यापन प्रक्रिया में उच्चारण में अन्तर, नाम के मध्य में छूट गई उपजाति और इसी तरह की छोटी-मोटी विसंगतियों को नज़रअंदाज़ करने की ज़रूरत पड़ेगी, जिसके चलते असम को भारी तकलीफ़ झेलना पड़ा।

असम में हुए एनआरसी की प्रक्रिया में 14 स्वीकार्य दस्तावेजों की एक "सूची-ए" (लिस्ट-A) घोषित की गई थी, जिन्हें ख़ुद को एक वैध नागरिक के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए पेश किया जा सकता था। ये वे दस्तावेज़ थे जिन्हें 1971 से पहले आधिकारिक रूप से उपयोग में लाया जाता था।

उनमें से एक 1951 में संकलित असम की पहली एनआरसी सूची में आवेदक को शामिल करने वाला प्रमाण था। इसके अलावा नागरिकता के प्रमाण के लिए 24 मार्च 1971 से पहले की मतदाता सूची में शामिल किये गए नाम या शिक्षा प्रमाण पत्र, भूमि/पट्टे पर लेने के रिकॉर्ड, पासपोर्ट, अदालत के रिकॉर्ड, सरकार द्वारा जारी लाइसेंस या सरकारी नौकरी पर होने के रिकॉर्ड, स्थायी निवासी या शरणार्थी पंजीकरण प्रमाण पत्र, बैंक/पोस्ट-ऑफिस के खाते, या एलआईसी पालिसी को लिया गया था। इनमें से किसी भी प्रमाण के ज़रिये नागरिकता का दावा किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त दो और दस्तावेजों को भी स्वीकृति दी गई, जिसमें से एक मण्डल (सर्किल) अधिकारी द्वारा जारी प्रमाण पत्र, और शादीशुदा महिलाओं के मामले में ग्राम पंचायत द्वारा जारी किया गया प्रमाण पत्र। (इन पंचायत प्रमाणपत्रों के बारे में, 16 दिसंबर की ICF रिपोर्ट यहां देखें)। देखने में यह योजना काफ़ी उदार लग सकती है, लेकिन इसके बावजूद स्थिति यह है कि बीएसएफ़ के कई अवकाश प्राप्त कर्मचारियों के साथ-साथ, यहां तक ​​कि राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिवार के सदस्यों ने ख़ुद को एनआरसी से बाहर पाया।

अभी असम पर ही रहते हुए आगे देखते हैं, कि यदि आवेदक अपनी पहचान और निवास के प्रमाण को लिस्ट-A में प्रस्तुत किये गए दस्तावेज़ों से सत्यापित करवा पाने में असफल रहे, तो उन्हें ऐसे किसी भी काग़ज़ात को पेश करने की अनुमति दी गई, जिनमें उनकी पिछली दो पीढ़ी के पूर्वजों के नाम दर्ज हों, और एक अन्य दस्तावेज़ों के सेट (इसे लिस्ट-B नाम दिया गया) के माध्यम से उनके रिश्ते उनसे साबित किये जा सकें। आवेदकों के लिए अब यह सरकारी दस्तावेजों के परिदृश्य में एक दुःस्वप्न में डूबने की शुरुआत थी, जिसमें नाम, तिथि और हिज्जे की विसंगतियां एक आम बात थीं, और उसके परिणाम सजा देने वाले थे। इसके चलते हुआ ये कि 1926 से असम में रहने वाले परिवारों, यहां तक कि जमीन के मालिकों तक के नाम एनआरसी की सूची से बाहर पाए गए।

एनपीआर पर सवाल

अभी तक इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं बनी है कि पहचान सिद्ध करने की नई प्रक्रिया में कौन-कौन से दस्तावेज़ शामिल होने वाले हैं। हमारे पास केवल असम का उदाहरण है और हम वहीँ से उसे निकाल सकते हैं और समझदारी भरा अनुमान लगा सकते हैं।

जहाँ असम के लिए एनआरसी की प्रक्रिया के लिए इसकी कट-ऑफ तारीख 25 मार्च 1971 थी, वहीं राष्ट्रीय एनआरसी के लिए कोई एक निश्चित तिथि तय नहीं की जा सकती है। जो लोग 26 जनवरी 1950 (संविधान के लागू होने की तारीख़) से पहले पैदा हुए, उन्हें सिर्फ़ भारत में अपने जन्म को साबित करने की आवश्यकता है। हमें अभी तक इस बात की जानकारी नहीं है कि वे किन दस्तावेज़ों के माध्यम से उनसे ऐसा करने की उम्मीद की जा रही है। मुस्तफ़ा इस बात को रेखांकित करते हैं, जो क़ानूनी तौर पर व्यापक वैश्विक स्तर के आधार पर प्रचलित है; कि जन्म का आधार किसी भी व्यक्ति को स्वतः नागरिकता का हक प्रदान करता है और कोई भी ताक़त इसे रद्द नहीं कर सकती। कई देशों का क़ानून यह कहता है। 

भारत चाहे तो 2020 से जन्म के पंजीकरण को अनिवार्य बनाकर आगे से इस सिद्धांत को अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल बना सकता है। ज़ोर-शोर से जागरुकता अभियान चलाकर, इस प्रकार के क़ानून को अमली जामा पहनाया जा सकता है। पीछे की तारीख़ के मद्देनज़र क़ानून बनाने की तुलना में भविष्य की तारीख़ को ध्यान में रखकर लागू किये जाने वाले क़ानून कहीं अधिक न्यायसंगत होंगे।

नागरिकों को वर्गीकृत करने के लिहाज़ से दूसरी ऐतिहासिक तिथि 1 जुलाई 1987 है। इस तारीख़ से पहले भारत में उनके जन्म को साबित करने वाला कोई भी दस्तावेज (लिस्ट-A) उनकी नागरिकता स्थापित करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। जो लोग 1 जुलाई 1987 और 31 दिसंबर, 2003 के बीच जन्मे हैं या आज की तारीख़ में 16 से 32 वर्ष की आयु के बीच हैं, उन्हें अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए अपने माता-पिता में से किसी एक की भारतीय नागरिकता को साबित करने की आवश्यकता होगी। सबूत के तौर पर किन दस्तावेज़ों की सूची चाहिए इसे अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया है, लेकिन इसमें अधिक विकल्प शामिल किये जाने की संभावना है।

मिसाल के तौर पर फ़िलहाल आधार और पैन कार्ड को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जाता है, लेकिन हो सकता है ये आगे चलकर स्वीकार्य हो जाएँ। 1 जनवरी 2004 के बाद से पैदा हुए लोगों के लिए क़ानून सख़्त हो जाता है। उन्हें भारत में अपने स्वयं के जन्म को साबित करने के अलावा, यह भी साबित करना होगा कि उनके माता-पिता दोनों ही भारतीय नागरिक हैं, या, यदि उनमें से कोई एक विदेशी है, तो वह अवैध घुसपैठिया नहीं था। इसके गंभीर निहितार्थ उनके लिए हैं, जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों से संबद्ध हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या के अनुसार आरक्षण का लाभ किसी उम्मीदवार को सिर्फ़ उसके अपने गृह राज्य के लिए ही मिल सकता है। अब इसे प्रवासी श्रमिकों के एक परिवार के सन्दर्भ में देखें जहां तीन पीढ़ियों का जन्म तीन अलग-अलग राज्यों में हो सकता है, वे किस प्रकार से आरक्षित सीटों के अपने अधिकार का उपयोग करने के पात्रता हासिल कर सकेंगे? ख़ासकर तब, जब एनआरसी की प्रक्रिया उन्हें एक राज्य में अनिवासी-मूल वाला दावेदार और दूसरे राज्य द्वारा ग़ैर-निवासी के रूप में घोषित करेगी? क्या होगा, यदि ऐसे श्रमिकों ने अपने समुदाय से बाहर जाकर शादी-ब्याह किया हो? आरक्षण पर उनके बच्चों के दावों का क्या होगा? अभी तक इन मामलों पर कोई स्पष्टता नहीं है।

जनगणना के बाद क्या?

जो लोग जनगणना के बाद वैध नागरिकों की सूची से बाहर रह जायेंगे, उन्हें सबसे पहले रजिस्ट्रार जनरल के पास सूची में सुधार के लिए अपना आवेदन देना होगा। यह संभावित हल का पहला चरण है। इसके बाद यह  मामला फ़ोरेनर्स ट्रिब्यूनल में चला जाता है, या कहें कि असम के अनुभव की रौशनी में इस तरह की संभावना है। और इस चरण पर पहुँचने पर, जब एक बार मामला फ़ोरेनर्स ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश हो चुका हो, तो जेल में बंद किये जाने (डिटेंशन) की पूरी-पूरी संभावना बन जाती है।

1 अप्रैल 2020 से आरंभ होने वाली एनपीआर (NPR) गणना, निवास की स्थिति के प्रश्न को निपटा देगा, यानी जहां किसी विदेशी सहित कोई भी प्रतिवादी पिछले छह माह से निवास कर रहा है। अगस्त 2019 में इसके लिए एक पायलट प्रोजेक्ट संचालित किया गया था, जिसके द्वारा ये सभी चौदह प्रश्न निर्धारित किये गए। जिस मात्रा में ये सूचनाएं माँगी गई हैं या जिस प्रकार की माँगी गई हैं, वे अपने आप में अत्यधिक घुसपैठ को दर्शा रही हैं। दोनों प्रकार की सूचनाएं, जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक डाटा एकत्र किए जाने हैं। भारतीय क़ानून के तहत बायोमेट्रिक जानकारी के लिए किसी प्रकार की विशेष सुरक्षा प्राप्त नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य के पास जमा की जाने वाली नागरिकों से सम्बन्धित सूचनाएं सुरक्षित नहीं हैं, क्योंकि इसकी सुरक्षा सरकार के लिए प्राथमिकता की सूची में नहीं है। 

आधार कार्ड से हैक किए गए डाटा की ख़बरें और उसे बाज़ार में बेच दिए जाने की नित नई ख़बरें बार-बार इस मुद्दे को साबित करती हैं। नाम, जन्म तिथि, वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, व्यवसाय, आदि और बायोमेट्रिक जानकारी के साथ-साथ, इस जनगणना के जरिये मोबाइल फोन नंबर की जानकारी भी एकत्र की जायेगी। मोबाइल फ़ोन पहले से ही एक निगरानी उपकरण है, जो अलग से चिंता का एक और कारण है। फिलहाल मंडराते एनपीआर प्रक्रिया से भारतीयों की स्वतंत्रता के ख़ात्मे के लक्षण लगते हैं, चाहे नागरिकों के रूप में उन्हें शामिल कर लिया जाये या अवैध प्रवासियों के रूप में उन्हें बहिष्कृत करना। यह न सिर्फ़ बहिष्कृत घोषित कर दिए गए लोगों की नागरिकता के चले जाने का ख़तरा है, बल्कि यह उन लोगों की नागरिकता की गुणवत्ता में भी गिरावट लाता है जो इसमें शामिल होते हैं।

इन बिन्दुओं को विस्तार से बताते हुए फ़ैज़ान मुस्तफ़ा को नीचे वीडियो में देखें:

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Faizan Mustafa: Which Documents Will be Required for the NRIC?

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