फातिमा शेख: ऐतिहासिक क्षरण और बहिष्कार की राजनीति

फातिमा शेख; फोटो साभार: मुंबई मिरर
इतिहास सत्ता का युद्धक्षेत्र है, एक ऐसा क्षेत्र जहां कहानियां सिर्फ कही नहीं जातीं बल्कि उत्पीड़न को बरकरार रखने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। हम जो कहानियां सहेजते हैं और जो खामोशियां हम लागू करते हैं, वे न तो आकस्मिक हैं और न ही सौम्य; वे जानबूझकर की गई राजनीतिक हरकतें हैं जो जातिवादी, सांप्रदायिक, पितृसत्तात्मक और सक्षमतावादी पदानुक्रमों को मजबूत करने के लिए बनाई गई हैं। इतिहास से हाशिए की आवाज़ों को व्यवस्थित रूप से मिटाना सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के वर्चस्व की परियोजना का केंद्र है। यह अतीत में और वर्तमान व भविष्य में उत्पीड़ितों को उनके उचित स्थान से वंचित करता है।
भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख की बात करें। सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले के साथ उनका जीवन और कार्य एकजुटता और प्रतिरोध का सार है। साथ मिलकर उन्होंने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिगत बहिष्कार को चुनौती दी, एक समावेशी शिक्षा प्रणाली के लिए प्रयास किया जिसने हाशिए पर पड़े लोगों को सशक्त बनाया। फातिमा शेख का योगदान और उनकी भूमिका भारतीय समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है, लेकिन फिर भी उन्हें इतिहास से गायब करने की कोशिशें लगातार जारी हैं। उनकी विरासत को अनदेखा किया जा रहा है और जातिवाद और सांप्रदायिकता के प्रभाव में यह प्रयास किया जा रहा है कि उनका नाम और योगदान लोगों की यादों से मिट जाए। उनका मिटाना महज एक चूक नहीं है बल्कि एक सोची-समझी हरकत है, जो उत्पीड़न के खिलाफ अंतर-संघर्षों के अस्तित्व को नकारने का प्रयास करती है।
मिटाने की यह राजनीति कोई अलग-थलग नहीं है; यह इतिहास को साफ करने, असहमति को बेअसर करने और असमानताओं को सामान्य बनाने की एक व्यापक परियोजना का हिस्सा है। फातिमा शेख जैसी शख्सियतों को बाहर करके दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों को व्यवस्थित रूप से लोगों के जेहन के हाशिये पर धकेल दिया जाता है और देश के नैरेटिव में उनके उचित स्थान से वंचित कर दिया जाता है।
ऐतिहासिक पुनर्लेखन: उत्पीड़न के लिए अतीत को स्वच्छ करना
फातिमा शेख जैसी शख्सियतों को जानबूझकर हटाना मौजूदा पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए डिजाइन किए गए ऐतिहासिक संशोधनवाद के पैटर्न को उाजगर करता है। इतिहास को इस तरह से तोड़ मरोड़ किया जाता है कि सुधार आंदोलनों को जाति-निरपेक्ष, पुरुष-प्रधान और हिंदू-नेतृत्व वाले रूप में प्रस्तुत किया जाए, जबकि इन आंदोलनों को आकार देने वाली आपसी संघर्षों को छिपा दिया जाता है। इतिहास से फातिमा शेख को हटाने से दलितों, मुसलमानों और महिलाओं के बीच कट्टरपंथी एकजुटता अदृश्य हो जाती है और उद्धारक के रूप में विशिष्ट प्रोटोटाइप सुधारकों की सुविधाजनक, प्रमुख नैरेटिव को मजबूत किया जाता है।
उदाहरण के लिए, बी.आर. अंबेडकर को एक प्रतीकात्मक व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है। उन्हें संविधान निर्माता के रूप में सम्मानित किया गया है, लेकिन जाति की उनकी तीखी आलोचना और समतावादी समाज के लिए उनके क्रांतिकारी दृष्टिकोण को उनसे छीन लिया गया है। आरक्षण के लिए उनकी वकालत, शैक्षिक समानता के लिए एक जीवन रेखा को दरकिनार कर दिया गया है, जबकि आज इन नीतियों पर क्रूर हमला किया जा रहा है। जाति उत्पीड़न को कायम रखने में हिंदू धर्म की भूमिका की अंबेडकर की तीखी आलोचना को जानबूझकर स्कूली पाठ्यक्रमों और सार्वजनिक चर्चाओं से हटा दिया गया है, जिससे उनके कट्टरपंथी विचारों को खत्म करते हुए उन्हें अपनाना आसान हो गया है।
इसी तरह, अशफाकउल्ला खान और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को सांप्रदायिक रूढ़ियों को कायम रखने के लिए व्यवस्थित रूप से कम करके आंका जाता है। झलकारीबाई जैसी महिलाएं जो रानी लक्ष्मीबाई के साथ लड़ने वाली दलित योद्धा थीं और बेगम रोकैया जो महिला शिक्षा की पैरवी करने वाली मुस्लिम सुधारक थीं, उनको पितृसत्तात्मक और जातिवादी बयानों को कायम रखने के लिए बाहर रखा जाता है। यहां तक कि बिरसा मुंडा जैसे आदिवासी नेता जिन्होंने औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ और आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, उन्हें खोखले प्रतीकों में बदल दिया गया है, उनके इतिहास को होशियारी से मिटा दिया गया है ताकि उन्हें हाशिए पर रखा जा सके।
लेकिन जब विकलांग व्यक्तियों की बात आती है तो चुप्पी सबसे ज़्यादा असहज होती है। ऐतिहासिक नैरेटिव से उनकी गैरमौजूदगी न केवल स्पष्ट है बल्कि कपटी भी है। यह भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त सक्षमतावाद को दर्शाता है, जो विकलांगता को एक सामाजिक मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि एक निजी पीड़ा के रूप में देखता है जिसे अनदेखा किया जाना चाहिए। विलोप करने की यह प्रक्रिया विकलांग लोगों को सबसे ज्यादा सांकेतिक प्रतिनिधित्व से भी वंचित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि वे शिक्षा, नीति और समाज के ढांचे से बाहर रहें।
एबलिज्म की खतरनाक चुप्पी
ऐतिहासिक नैरेटिव में विकलांगता पर चर्चा का अभाव शायद मिटाने या हटाने का सबसे खतरनाक रूप है। यह न केवल विकलांगों के जीवन को नकारना है, बल्कि उनके संघर्षों और योगदानों को स्वीकार करने से भी इनकार करना है। एबलिज्म के दृष्टिकोण इस विचार को कायम रखते हैं कि विकलांग लोग समाज में एजेंसी या भागीदारी करने में असमर्थ हैं, जिससे उनके हाशिए पर जाने को बल मिलता है।
"मूक-बाधिर दूसरों के साथ स्कूल नहीं जाते" जैसे नैरेटिव को चुनौती नहीं दी जाती, मानो उनका बहिष्कार स्वाभाविक है। यह व्यवस्थित बहिष्कार विकलांगों की अदृश्यता को मजबूत करता है, दूसरों को अलग-थलग करने की नैरेटिव तैयार करता है और उन्हें सामाजिक पदानुक्रम के निचले पायदान पर छोड़ देता है, जिसका इतिहास में कोई स्थान नहीं है और न्याय का कोई दावा नहीं है।
एबलिज्म वर्चस्व का एक साधन है जो जाति, लिंग और धर्म के साथ मिलकर उत्पीड़न की व्यवस्था को कायम रखता है। विकलांग लोगों के जीवन और संघर्षों का दस्तावेजीकरण करने से इनकार करके, समाज एक आसान तरीके से उन्हें हाशिए पर डाल देता है, जहां विकलांग लोग अदृश्य, अनदेखे और प्रतिनिधित्वहीन होते हैं। यह चुप्पी निरर्थक नहीं है, यह हिंसक है।
शिक्षा: बहिष्कार का हथियार
इतिहास से हाशिए की आवाज़ों को मिटाना शिक्षा की राजनीति से गहराई से जुड़ा हुआ है। शिक्षा सिर्फ मुक्ति का साधन नहीं है; इसे बहिष्कृत करने का हथियार भी बनाया गया है। किसकी कहानियां पढ़ाई जाएं, इस पर नियंत्रण करके, प्रमुख समूह इस मिथक को कायम रखते हैं कि दलित, मुसलमान, आदिवासी, महिलाएं और विकलांग लोग ज्ञान, शक्ति या नेतृत्व के अयोग्य हैं।
यह बहिष्कार शिक्षा के निजीकरण में स्पष्ट है जो मौलिक अधिकार को अभिजात्य वर्ग के विशेषाधिकार में बदल देता है। हाशिए पर पड़े समुदाय, जो पहले से ही व्यवस्था के उत्पीड़न से जूझ रहे हैं, उन्हें शिक्षा के स्थानों से बाहर कर दिया गया है, जिससे गरीबी और बहिष्कार का चक्र जारी है। आरक्षण की नीतियां, जिनका उद्देश्य समान पहुंच प्रदान करना है, लगातार कमज़ोर की जा रही हैं। उनकी आवश्यकता पर सवाल उठाया जा रहा है क्योंकि उन्हें जन्म देने वाले संघर्षों को लोगों की यादों से मिटा दिया गया है।
विकलांग लोगों के लिए तो यह बहिष्कार और भी ज़्यादा है। सुलभ शिक्षा प्रणाली और बुनियादी ढांचा लगभग न के बराबर है, जिससे उन्हें अधिकार-आधारित प्रणालियों के बजाय दान पर निर्भर रहना पड़ता है। विकलांगों के लिए शिक्षा के विचार को बाद की एक सोच के रूप में देखा जाता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि वे हाशिये पर रहें, समाज में भागीदारी के अवसरों से वंचित रहें।
कट्टरपंथी इतिहास को पुनः प्राप्त करना
मिटाने या हटाने की राजनीति का विरोध करने के लिए हमें हाशिए पर पड़े समुदायों के कट्टरपंथी इतिहास को पुनः प्राप्त करना होगा। फातिमा शेख की नैरेटिव को न केवल उनकी विरासत के लिए श्रद्धांजलि के रूप में बल्कि दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, महिलाओं और विकलांग लोगों के संघर्षों को मिटाने वाले बयानों के खिलाफ एक हथियार के रूप में पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए।अंबेडकर, झलकारीबाई, अशफाकउल्ला खान, बिरसा मुंडा और अनगिनत अन्य लोगों के इतिहास को उनकी संपूर्णता में बताया जाना चाहिए, जिसमें उनकी क्रांतिकारी आलोचनाएं और अंतर-संघर्षों को सबसे आगे रखा जाना चाहिए।
विकलांगता पर चर्चा की कमी को भी संबोधित किया जाना चाहिए। विकलांग लोगों के जीवन और संघर्षों को दस्तावेजबद्ध किया जाना चाहिए, स्वीकार किया जाना चाहिए और मुख्यधारा के नैरेटिव में शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए एल्बिस्ट दृष्टिकोण को खत्म करना होगा और ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी जो विकलांगता को एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे के रूप में पहचानें, न कि व्यक्तिगत लड़ाई के रूप में।
स्मृति और न्याय की राजनीति
इतिहास मिटाने की राजनीति सिर्फ अतीत के बारे में नहीं है, बल्कि यह वर्तमान को नियंत्रित करने और भविष्य को रोकने को लेकर है। फातिमा शेख और उनके जैसे अन्य लोगों को इतिहास में उनके उचित स्थान से वंचित करके, सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग बहिष्कार की एक ऐसी व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है जो प्रमुख जातियों, धर्मों और क्षमताओं को विशेषाधिकार देती है।
फातिमा शेख की विरासत हमें याद दिलाती है कि शिक्षा केवल कुछ लोगों के लिए विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि सभी का अधिकार है। उनका काम जातिवादी, सांप्रदायिक, पितृसत्तात्मक और सक्षमतावादी नैरेटिव को चुनौती देता है जो भारतीय समाज को रेखांकित करते हैं, शिक्षा को मुक्ति और एकजुटता के साधन के रूप में देखते हैं। उनका सम्मान करना उन ताकतों के खिलाफ लड़ना है जो उन्हें मिटा देती हैं।
इतिहास मिटाने के खिलाफ लड़ाई आखिरकार न्याय के लिए लड़ाई है। यह सुनिश्चित करने की लड़ाई है कि इतिहास सभी समुदायों के संघर्षों और योगदानों को दर्शाता है और शिक्षा पदानुक्रम को खत्म करने के बजाय उन्हें कायम रखने का एक साधन बन जाती है। यह लड़ाई मांग करती है कि हम प्रमुख नैरेटिव को चुनौती दें, उनकी चुप्पी को उजागर करें और प्रतिरोध और एकजुटता को प्रेरित करने के लिए स्मृति की कट्टरपंथी क्षमता को पुनः प्राप्त करें। आइए हम इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं, इतिहास से मिटाए गए सभी लोगों की विरासत को अपना मार्गदर्शक बनाएं; जबकि यह पूछना अहम है कि 'मिटाने या हटाने के ऐसे कृत्य से किसे फायदा होता है?'
शिरीन अख़्तर, दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। शर्मिष्ठा अत्रेजा, दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। ये विचार उनके निजी हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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