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मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में शासन की मनगढ़ंत कहानी

मणिपुर में हाल ही में हुई हिंसा के संदर्भ में तीन ऐसे सवाल हैं जो पहाड़ी इलाकों में पनपे असंतोष के पीछे के कारणों की व्याख्या करने में मदद कर सकते हैं।
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मणिपुर में इम्फाल शहर के हिंसा प्रभावित इलाके में रविवार, 28 मई, 2023 को पहरा देते पुलिसकर्मी। चित्र सौजन्य: PTI

अन्य क़ानूनों के विपरीत, भारत में जनजातीय इलाका शासन पर बने कानूनों की स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं की जाती है, और न ही इन्हें अंतिम रूप से लागू किया जाता है। संविधान की पांचवीं अनुसूची कहती है कि राज्य सरकारों को अनुसूचित इलाकों में "अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों द्वारा या उनके बीच भूमि के हस्तांतरण को प्रतिबंधित या रोकने के लिए" कानून बनाना चाहिए। जबकि, छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में आदिवासी इलाकों में प्रशासन काम करता है। इन इलाकों को कानूनी संरक्षण दिया गया है, लेकिन सरकारों ने उन खामियों का फायदा उठाया है, जो भूमि को जनजातीय आबादी से अलग करने की अनुमति देती हैं, जिससे जनजातीय भूमि का इलाका कम हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप उनका जबरन पलायन होता है।

मणिपुर की स्थिति 

मणिपुर और त्रिपुरा पूर्व रियासतें हैं जिन्हें अक्टूबर 1949 में भारत में शामिल किया गया था। जबकि मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा को एक ही दिन में राज्य का दर्जा दे दिया गया था, मणिपुर को शुरू में छठी अनुसूची में शामिल नहीं किया गया था। मणिपुर में, मैतेई लोग लगभग 53 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि विभिन्न नागा जातीय समूहों में 24 प्रतिशत शामिल हैं, और कुकी/ज़ोमी जनजातियाँ (जिन्हें चिन-कुकी-मिज़ो लोगों के रूप में भी जाना जाता है) जनसंख्या का 16 प्रतिशत हैं। जनगणना रिपोर्ट 2011 के अनुसार नागा और कुकी/ज़ोमी जातीय समूह का मणिपुर के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा है, जो इसके भूभाग का 90 प्रतिशत है। लंबे समय से, मणिपुर में, विशेष रूप से पहाड़ी इलाकों में, प्रशासन की खराब गुणवत्ता का ज्वलंत प्रश्न रहा है।

इसलिए, इस संदर्भ में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371सी का उचित मूल्यांकन करना जरूरी बन जाता है। यह प्रावधान न केवल सभी निर्वाचित जनजातीय विधायकों के प्रतिनिधित्व वाली पहाड़ी इलाका समितियों (एचएसी) की स्थापना के लिए अनिवार्य है, बल्कि उनके उचित कामकाज को सुरक्षित करने के लिए, सरकार के कामकाज के नियमों में संशोधन का भी प्रावधान करता है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 371सी(2) "करेगा" शब्द का इस्तेमाल करता है, जो राज्य के राज्यपाल पर एचएसी के कामकाज की रिपोर्ट सालाना या जब भी आवश्यक हो, भारत के राष्ट्रपति को भेजने के लिए अनिवार्य बनाता है।

पहला सवाल जिसका जवाब सरकार को देना है: वह यह कि, राज्यपाल से ऐसी कितनी रिपोर्टें राष्ट्रपति को मिली हैं और इनमें क्या जानकारी दी गई है?

पहाड़ी इलाक़ा समितियों के बाद ज़िला परिषदें

26 दिसंबर, 1971 को, भारत सरकार ने पहाड़ी इलाकों और आदिवासी समूहों की सुरक्षा के लिए मणिपुर (पहाड़ी इलाका) जिला परिषद अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम के कारण मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में छह स्वायत्त जिला परिषद, या एडीसी बनाने का रास्ता साफ हुआ था, ये तब तक काम करेंगी जब तक कि उस इलाके को पूर्ण जिला न बना दिया जाए। 1972 में राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद, एडीसी के कामकाज़ को चलाने के लिए मणिपुर विधानसभा द्वारा नियम बनाए गए थे।

एचएसी और एडीसी स्थापित करने के मामले में जरूर संवैधानिक विशेषाधिकार की सराहना करनी चाहिए: इन्हे आदिवासी भावनाओं और लोकाचार को तरजीह देते हुए तथा स्थानीय स्तर पर सुशासन सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था, और इसकी तुलना संविधान के भाग IX के तहत, ग्राम पंचायतों से की जा सकती है जो कानूनन बाध्य हैं। 

जो भी हो, मणिपुर में हाल की हिंसा के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिर ये संस्थान कितने प्रभावी रहे हैं। कल्पना के विपरीत, एडीसी को अप्रभावी बना दिया गया, 18 जुलाई, 1990 तक पहाड़ी इलाकों में छठी अनुसूची के विस्तार की मांग को लेकर प्रस्ताव पास करने पर एचएसी को मजबूर किया गया। पहाड़ी लोगों ने उस समय यह भी कहा था कि जब तक यह विस्तार नहीं हो जाता, तब तक एडीसी का कोई चुनाव नहीं होगा। यह मांग आज तक पूरी नहीं हुई है।

संक्षेप में, एडीसी निरर्थक हो गई हैं। स्थापना के 21 वर्षों के बाद, 2010 में चुनाव होने पर इन्हें संक्षिप्त रूप से पुनर्जीवित किया गया था। लेकिन फिर, 31 मई, 2020 से चुनाव नहीं हुए हैं। इसके बजाय, सरकार ने चेयरपर्सन्स को "कार्यवाहक" का दर्जा देकर भंग एडीसी को प्रतीकात्मक रूप से बहाल कर दिया था। इसलिए दूसरा सवाल यह उठता है कि, इन चुनावों में देरी करने का राज्य सरकार का क्या औचित्य था?

2021 में, एचएसी ने मणिपुर (पहाड़ी इलाक) एडीसी विधेयक 2021 को सदन के पटल पर रखने के लिए विशेष विधानसभा सत्र की मांग की थी, जिसमें 1971 के जिला परिषद अधिनियम में संशोधन करने की मांग की गई थी। राज्य सरकार ने इस अनुरोध को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिसने ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर (एटीएसयूएम) द्वारा लगाए गए आर्थिक नाकेबंदी की जमीन तैयार कर दी - वही इसने छात्र संगठानों जिन्होने 3 मई को एक शांतिपूर्ण विरोध रैली का आयोजन किया था, को भी हवा दी।

25 नवंबर, 2021 को एटीएसयूएम और राज्य सरकार ने पहाड़ी इलाकों का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन मंत्रियों (जो गवाह के रूप में थे) की उपस्थिति में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसने एटीएसयूएम को आश्वस्त किया कि एडीसी विधेयक के मसौदे पर विधानसभा में पांच दिनों के भीतर चर्चा होगी।

याद करें कि अगस्त 2015 में, मणिपुर विधानसभा ने एक "आपातकालीन सत्र" में तीन विधेयक पेश किए थेद प्रोटेक्शन ऑफ मणिपुर पीपल बिल, 2015; मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक, 2015, और मणिपुर दुकान और प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2015 -- जो दो दिनों के भीतर पारित हो गए थे। इन अधिनियमों के विरोध में हुए आंदोलन के परिणामस्वरूप नौ आदिवासियों की मौत हुई, तथा विरोध प्रदर्शन 600 से अधिक दिनों तक चला। केंद्र सरकार के दखल के बाद ही इन तीनों कानूनों को वापस लिया गया। फिर तीसरा सवाल यह उठा कि, क्या सरकार जिन मामलों को प्राथमिकता देती है, उन पर उसका विवेक निरंकुश रहना चाहिए?

अगर अब हम इस साल की ओर लौटें तो, 3 जनवरी को इम्फाल में मुख्यमंत्री सचिवालय में अपनी पहली कैबिनेट बैठक की थी। उसके बाद सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री सपम रंजन सिंह ने मीडिया को बताया कि मार्च और अप्रैल के पहले सप्ताह में शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकाय और एडीसी चुनाव होंगे। लेकिन ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ। इस तरह से किसी जरूरी संस्थान को निष्क्रिय रखना संदेह पैदा करता है और इसके संभावित लाभार्थियों के लिए खुद इसकी व्याख्या करने की गुंजाइश छोड़ देता है।

ज़मीन की प्यास

चुराचांदपुर जिले में 3 मई को एटीएसयूएम के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन के परिणामस्वरूप अभूतपूर्व तबाही हुई। यह उस रणनीति का प्रत्यक्ष परिणाम था जिसने आदिवासियों और उनकी भूमि जोत की अनुसूची V और VI की सुरक्षा की अवहेलना की थी। जमीन और आरक्षण को लेकर राजनीति मणिपुर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राज्य सरकार के इस रवैये से आक्रोश पैदा होना लाजमी था।

पिछले नवंबर में मणिपुर उच्च न्यायालय के जारी "विशेष आदेश", के तहत (11 अप्रैल को, इन चर्चों को संरक्षित वन, आरक्षित वन, आर्द्रभूमि आदि के रूप में संरक्षित वन, आरक्षित वन, आर्द्रभूमि आदि के रूप में घोषित किया गया था और इंफाल में "अनधिकृत चर्चों" की ढाह दिया गया, ऐसा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं का पालन किए बिना किया गया और अपील करने के लिए 90 दिनों की वैधानिक अवधि की अनदेखी की गई जिससे आदिवासियों का  नाराज होना लाजिमी था। 

अगले ही महीने 27 तारीख को मणिपुर उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने मुतुम चूड़ामणि मीतेई बनाम मणिपुर राज्य और अन्य मामले में राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति वर्ग में मेइती समुदाय को शामिल करने के संबंध में एक सिफारिश प्रस्तुत करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया था। 

मणिपुर ट्राइबल फोरम दिल्ली, ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की (और विस्थापित व्यक्तियों की सुरक्षा और एक विशेष जांच दल की स्थापना के लिए अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की)। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद (2000) का हवाला देते हुए मौखिक रूप से टिप्पणी की, कि उच्च न्यायालय के पास 11 अप्रैल के आदेश को पारित करने का कोई अधिकार नहीं था। 9 मई को दूसरी सुनवाई में, शीर्ष अदालत ने गंभीर रूप से पाया कि उच्च न्यायालय के पहले के चार सप्ताह से एक वर्ष का विस्तार भी न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इसने बताया कि एसटी सूची में कर्णहा या न करना संविधान के अनुच्छेद 342 (1) के तहत विशुद्ध रूप से भारत के राष्ट्रपति की सिफारिश पर किया जा सकता है। 

1965 में "राष्ट्रीय एकीकरण" की जरूरत का हवाला देते हुए, लोकुर समिति की रिपोर्ट ने एसटी के रूप में मान्यता तय करने के लिए पांच पहचान करने की सिफारिश की थी- आदिमता, विशिष्टता, अलगाव, अवरोध और पिछड़ापन। यदि कोई समुदाय एसटी श्रेणी में शामिल होने के लिए उक्त पाँच पहचान में से किसी में भी फिट नहीं पाया जाता है, और उसके द्वारा यह मांग उठाई जाती है, तो यह गलतफहमी, राजनीतिक प्राथमिकता और यहां तक ​​कि संघर्ष को बढ़ावा देने का कारण बन सकता है। इसलिए, जब तक मणिपुर उच्च न्यायालय का आदेश कायम है, यह केवल इस धारणा को बढ़ावा देगा कि मणिपुर में जनजातीय असंतोष "निरर्थक" है। यह व्यावहारिक रूप से गैर-मौजूद एडीसी को लेकर गुस्से को और हवा देगा।

गैर-आदिवासियों का कोई भी दावा कि उनके पास अनुसूची VI इलाकों में भूमि खरीदने का अधिकार है (या होना चाहिए), संवैधानिक विचार की अवहेलना करने के बराबर है। मान लीजिए कि किसी समुदाय का आदिवासी दर्जा पाने का दावा वैध लगता है, उस स्थिति में, उन्हें उचित प्रक्रियाओं के आधार पर आगे बढ़ाया जाना चाहिए, जिसमें पहला कदम दावे की वैधता का पता लगाना और फिर निष्कर्षों के आधार पर संविधान में संशोधन करना है। यह भी याद करें कि समता बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य (1997), आंध्र प्रदेश (अनुसूचित क्षेत्र) भूमि हस्तांतरण विनियम 1959 के संदर्भ में दिए गए मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि गैर-आदिवासी को कोई भी भूमि हस्तांतरण निषिद्ध होगा। 

सही रास्ता ढूँढना

यह समय आदिवासी समुदाय की हालातों और मांगों से निपटने के लिए स्थायी समाधान खोजने का समय है। वे चाहते हैं कि वे ऐसी शासन के तहत रहे जो समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों के आधार पर संवैधानिक संस्थाओं द्वारा शासित हो। हमारे संघीय और बहुलवादी कानूनी प्रणाली में मान्यता प्राप्त और अच्छी तरह से स्थापित उनके प्रथागत कानूनों के तहत उन्हें शासन से वंचित करने का कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में, अगर कानून का शासन मार्गदर्शक है और न्यायालय सभी नागरिकों के अधिकारों का वफादार संरक्षक है, तो सही रास्ता खोजना इतना कठिन होना चाहिए।

 

लेखक, फ़ैकल्टी ऑफ़ लॉ, दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Fiction of Governance in Manipur’s Hill Areas

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