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जबरी रजामंदी और पारदर्शिता की कमी, टीकों के मामले में उल्टी पड़ सकती है

भारतीय टीके के बेसुध खोज में और उसका श्रेय लेने के लिए, मोदी सरकार सामूहिक टीकाकरण कार्यक्रमों को चिरस्थायी क्षति पहुँचा रही है।
कोरोना वायरस

दवा नियंत्रक की भारत बायोटैक के कोवैक्सीन टीके को चिकित्सकीय ट्राइल मोड में जल्दबाजी में आकस्मिक मंजूरी देने के बाद अब सरकार ने इस टीके को अपने आम टीकाकरण अभियान का अभिन्न हिस्सा बना लिया है। सरकार ने सीरम इंस्टीट्यूट से ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका टीके की 1.1 करोड खुराकें और भारत बायोटैक के टीके की 55 लाख खुराकें खरीदी हैं । सरकार का कहना है कि किसे, कौन सा टीका लगना है, इस मामले में न तो राज्यों को और न टीका लगवाने वाले व्यक्ति को इन दोनों टीकों में से चुनाव करने का विकल्प दिया जाएगा। इसके अलावा, जिन लोगों को कोवैक्सीन का यह टीका लगाया जा रहा है, उनसे एक रजामंदी फार्म पर दस्तख़त करने के लिए भी ‘कहा जा रहा’ है, जिसमें यह कहा गया है कि वे ‘स्वेच्छा’ से कोवैक्सीन के चिकित्सकीय ट्राइल में शामिल हो रहे हैं!

जमीनी स्तर पर इसका उल्टा असर पडऩा शुरू हो गया है। टीकाकरण अभियान के दूसरे दिन ही, टीका लगवाने वालों की संख्या काफी नीचे आ गयी थी। कुछ अस्पतालों में रेजीडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन जैसे कुछ तबकों ने चिकित्सकीय ट्राइल में ‘स्वैच्छिक’ भगीदारी के इस तरीके पर अपनी नाराजगी दर्ज करायी है। इसने लोगों के बीच टीके को लेकर चिंताओं को बढ़ाने और टीके के संभावित प्रतिकूल प्रभावों को भी बढ़ाने का ही काम किया है। आम टीकाकरण अभियान के विशाल पैमाने को देखते हुए, टीके के प्रतिकूल प्रभाव के कुछ न कुछ मामलों का होना तो स्वाभाविक है। किसी भी टीके के लगाए जाने की स्थिति में हल्का बुखार आना, इंजैक्शन की जगह पर कुछ सूजन आना आदि, कुछ मामूली प्रभाव तो देखने को मिलते ही हैं और कुछ और मामले विशिद्ध रूप से संयोग के हो सकते हैं। पहले तीन दिनों में जिन 3.81 लाख स्वास्थ्यसेवकों को टीका लगाया गया था (इंडिया टुडे, 19 जनवरी), उनमें से सिर्फ 580 पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिले थे और उनमें से भी सिर्फ सात लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था, जबकि दो की मौत हो गयी। मृतकों में से एक के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट बताती है कि उसे जब टीका दिया गया, वह निमोनिया से पीडि़त था। टीका लगाने संबंधी दिशानिर्देशों के अनुसार, ऐसी हालत में उसे टीका लगाया ही नहीं जाना चाहिए था।

दुर्भाग्य से, टीके का श्रेय लेने के लिए जो चीख-पुकार भरा अभियान छेड़ा गया है, उसका नतीजा आम टीकाकरण के लिए आवश्यक बुनियादी सुरक्षा नियम-कायदों की अनदेखी के रूप में सामने आ सकता है। पुन: शीर्ष पर बैठे मसीहा मोदी के खुद ब खुद सब के लिए निर्णय लेने और बाकी सब के उन निर्णयों को सिर्फ लागू करने का शासन, जिसे ‘मोदी मॉडल’ भी कहा जाता है, उसके चलते ही देश पर अचानक लॉकडाउन थोपा गया था और जनता पर अकथनीय तकलीफें ढहायी गयी थीं। जबकि कोविड-19 की महामारी पर अंकुश लगाने के लिहाज से इसका कोई लाभ नहीं हुआ था। मोदी सरकार के प्रशासन के मॉडल की यही समस्या है कि इसमें सिर्फ शीर्ष पर निर्णय लिए जाते हैं और हर मुद्दे को कानून व व्यवस्था के प्रशासकीय प्रश्न में तब्दील कर दिया जाता है। जाहिर है कि महामारी पर नियंत्रण, एक सार्वजनिक स्वास्थ्य का प्रश्न है और इस प्रयास में प्रशासन के सभी स्तरों को भागीदार बनाना जरूरी है, केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक ही नहीं, स्थानीय निकायों तक को भी। और इसके लिए यह भी जरूरी है कि जनता के साथ, जिसके स्वास्थ्य की रक्षा करने का दावा किया जा रहा है, इस टीकाकरण मुहिम के साझीदारों जैसा सलूक किया जाए, न कि ऐसी प्रजा का, जिससे धोंस में लेकर हुक्म मनवाना है।

सार्वजनिक स्वास्थ्यविदों तथा रोगप्रतिरोधकताविदों ने केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) द्वारा आइसीएमआर-एनआइवी-भारत बायोटैक के टीके, कोवैक्सीन को सीरम इंस्टीट्यूट-ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका के टीके के साथ ही आपात उपयोग के लिए मंजूरी दिए जाने पर गंभीर सवाल उठाए थे। उनकी आलोचना संक्षेप में यह थी कि दवा नियंत्रक, सीडीएससीओ ने भाजपा सरकार के दबाव में, अपने ही दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया था और सीरम इंस्टीट्यूट-ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका के टीके, कोवीशील्ड के लिए मंजूरी देने के साथ ही, कथित ‘राष्ट्रवादी’ टीके--भारत बायोटैक के कोवैक्सीन--को मंजूरी दे दी थी। आपात उपयोग की इस मंजूरी के लिए बहाना यह बनाया गया था कि यह मंजूरी ‘चिकित्सकीय ट्राइल मोड’ में उपयोग के लिए है। लेकिन, दवा नियंत्रक ने न तो इसका कोई विवरण दिया था कि चिकित्सकीय ट्राइल मोड का क्या अर्थ है और न इसके आगे कोई दिशा-निर्देश दिए गए थे कि इस मोड को कैसे अमल में लाया जाएगा। पितृ संस्था, स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी यह स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सकीय ट्राइल मोड में आम टीकाकरण किस तरह से किया जाने वाला है?

स्वास्थ्य मंत्री, हर्षवद्घ्र्रन समेत सरकारी अधिकारियों ने अब साफ कर दिया है कि उनकी नजर में दोनों टीके ‘बराबर असरदार’ हैं और उनका इस्तेमाल अदल-बदल कर किया जाएगा। लेकिन, यह समझ पाना मुश्किल है कि तीसरे चरण के ट्राइल के डॉटा के बिना ही, कोवैक्सीन के असरदार होने का फैसला उन्होंने कैसे कर लिया? सरकार ने यह भी साफ कर दिया है कि करीब 3-3.5 करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों-फ्रंटलाइन वर्कर्स को और 27-30 करोड़ ज्यादा जोखिम की श्रेणी में आने वाले आम नागरिकों को (जिसमें 50 वर्ष से ज्यादा आयु के लोग तथा इससे कम आयु के पहले से बीमारियों से ग्रस्त लोग आएंगे) जिनका टीकाकरण किया जाना है, इसका चुनाव करने का कोई मौका नहीं दिया जाएगा कि कौन सा टीका लगवाना चाहते हैं। राज्य सरकारों को भी इसका चुनाव करने का कोई मौका नहीं दिया जाएगा। यानी चुनाव के नाम पर लोगों के पास एक ही विकल्प है, अगर इन्हें विकल्प कहना भी यथोचित है-- टीका लगवाओ या मत लगवाओ!

सीरम इंस्टीट्यूट-ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका ने अपने टीके के लिए, भारत से पहले तथा दूसरे चरण के और अन्य देशों से तीसरे चरण के ट्राइल का डॉटा दिया था। महामारी के मौजूदा हालात में, ज्यादातर देशों के दवा नियामकों ने इतने डॉटा को आपात उपयोग के लिए टीके को मंजूरी देने के लिए काफी माना है। आइसीएमआर तथा पुणे के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरॉलाजी ने कोवैक्सीन के लिए बुनियादी निष्क्रियकृत वाइरस विकसित किया था और उसे आगे टीके का विकास करने के लिए भारत बायोटैक को सौंप दिया था। भारत बायोटैक ने भी पहले तथा दूसरे चरण के ट्राइल किए थे, जो यह बताते हैं कि यह टीका सुरक्षित है और टीका लेने वाले में ताकतवर एंटीबॉडी पैदा करता है।

इस टीके के तीसरे चरण के ट्राइल फिलहाल एडवांस्ड स्तर पर हैं और तीसरे चरण के ट्राइल का जिसका मुख्य मकसद टीके के असरदार होने का डॉटा एकत्रित करना है , उसकी अभी प्रतीक्षा की जा रही है।

दवा नियंत्रक ने आखिर क्यों इस टीके के लिए मंजूरी देने के लिए कुछ हफ्ते और इंतजार नहीं किया? तीसरे चरण के प्राथमिक डॉटा का आना कुछ हफ्तों की ही तो बात थी। इस तरह के जल्दबाजी के और भोंडे कदम, भारत की वैज्ञानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठता को चोट पहुंचाने का ही काम करते हैं। भारतीय वैज्ञानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठता को गौ-विज्ञान, वैदिक गणित, प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी तथा उडऩे वाले रथों की मौजूदगी के दावों जैसी चीजें, पहले ही काफी चोट पहुंचा चुकी हैं। उनकी प्रतिष्ठता और भी गिर जाएगी। ऐसा लगता है मानो, टीकाविरोधी षडयंत्र सिद्घांतवादियों को, जो अब तक अमरीका तक ही सीमित थे, अब भारत समेत दुनिया के विभिन्न अन्य हिस्सों में भी उन्हें कुछ न कुछ अनुयाई मिल गए हैं। लोगों पर कोई खास टीका थोपने की कोई भी कोशिश, टीके को लेकर लोगों के बीच मौजूद चिंताओं को बढ़ाने का ही काम करेगी और हमारे देश के टीकाकरण अभियान को उसी तरह से नुकसान पहुंचाएगी, जैसे 1975 की इमर्जेंसी के दौरान, जबरिया नसबंदी ने परिवार नियोजन के अभियान को पहुंचाया था।

कोवैक्सीन के तीसरे चरण के ट्राइल के डॉटा के लिए चंद हफ्ते इंतजार करने से क्या नुकसान हो सकता था, वह भी तब जबकि भारत में कोविड-19 के केस इस समय अपेक्षाकृत कम चल रहे हैं? दूसरी बात यह है कि चिकित्सकीय ट्राइल, वालंटियरों पर चलाए जाते हैं। लेकिन, टीकाकरण की मौजूदा मुहिम में, इन ट्राइलों को स्वास्थ्यकर्मियों तथा फ्रंटलाइन वर्करों के लिए अनिवार्य ही बना दिया गया है? उनसे कहा जा रहा है कि या तो हम जो टीका तुम्हें दे रहे हैं, उसे ले लो और इसके सहमति पत्र पर दस्तखत कर दो कि स्वेच्छा से चिकित्सकीय ट्राइल में शामिल हो रहे हो या फिर तुम्हें टीका नहीं मिलेगा। यह तो वह जानकारीपूर्ण सहमति नहीं है, जिसकी चिकित्सकीय ट्राइल में शामिल होने वालों से अपेक्षा की जाती है। यह तो गला पकडक़र हामी भरवाना है। तीसरे, सरकार के प्रवक्ता किस आधार पर इसके दावे कर रहे हैं कि दोनों टीके समान रूप से असरदार हैं? आखिरकार, तीसरे चरण के ट्राइल तो मुख्यत: इसका पता लगाने के लिए ही होते हैं कि कोई टीका कितना असरदार है और इस चरण के ट्राइल का डॉटा भारत बायोटैक को अभी भी देना बाकी है।

पुन: रोगप्रतिरोधकताविज्ञानी कोई इस पर सवाल नहीं उठा रहे हैं कि ज्यादा संभावना तो यही है कि यह टीका वांछित रूप से कारगर निकलेगा और उसकी भी कारगरता 50 फीसद से ज्यादा निकलेगी, जिसेे कि दुनिया के करीब-करीब सभी नियामकों ने टीके के लिए मानक माना है। वैसे भी भारत बायोटैक के टीके में निष्किृयकृत समूचे वाइरस का उपयोग किया जा रहा है। यह टीका बनाने की सबसे प्राचीन प्रौद्योगिकियों में से है और इस लिहाज से यह आजमूदा टीका प्रौद्योगिकी है। इसके विपरीत, फाइजर-बोयोएनटैक तथा मॉडर्ना द्वारा टीके लिए इस्तेमाल की गयी एमआरएनए प्रौद्योगिकी, टीके के लिए एक नयी प्रौद्योगिकी है। इस मामले में कोवैक्सीन वास्तव सिनोवैक तथा सिनोफार्म टीकों जैसा ही है, जिनका सफलता के साथ ट्राइल हो चुका है और जिन्हें तीसरे चरण के ट्राइल के डॉटा के आधार पर, अनेक देशों के नियामकों ने मंजूरी भी दे दी है।

याद रहे कि पश्चिमी समाचार एजेंसियों ने चीनी तथा रूसी टीकों के संबंध में काफी भ्रांतियां फैलाने की भी कोशिशें की हैं। जाहिर है कि यह इन समाचार एजेंसियों के टीका राष्ट्रवाद का ही हिस्सा है। इसमें अपने ही देश की दवा कंपनियों के हितों को आगे बढ़ाने की इच्छा भी शामिल है। तुर्की, यूनाइटेड अरब अमीरात, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि अनेक देशों के दवा नियामकों ने, खुद अपने देशों में तथा दूसरे देशों में भी हुए ट्राइलों के आधार पर, चीनी टीकों को मंजूरी दे दी है और अपना आम टीकाकरण अभियान भी शुरू कर दिया है।

वैसे  इसे लेकर कुछ विभ्रम की भी स्थिति है कि ट्राइल डॉटा के हिसाब से, किसी टीके के मामले में अच्छा प्रदर्शन किसे माना जाएगा? सिनोवैक तथा सिनोफार्म टीकों के ट्राइल के महत्वपूर्ण नतीजे यह दिखाते हैं कि इन टीकों से मौतों की संख्या करीब-करीब शून्य पर आ आती है और गंभीर संक्रमण के केसों में पूरे 78 फीसद की कमी हो जाती है। सिनोवैक के टीके के सिलसिले में 50.4 फीसद के जिस स्कोर का काफी प्रचार हुआ है, वह एक मामूली लक्षण प्रदर्शित करने वाले तथा आरटी-पीसीआरए से पुष्टि होकर प्रमाणित मामलों में प्रभाव का आंकड़ा है। वास्तव में टीकों के प्रदर्शन से संबंधित हरेक आंकड़ा अपने आप में महत्वपूर्ण होता है और कोई भी टीका जो मौतों को घटाकर करीब शून्य पर ला दे और डाक्टर के पास जाने से रोगी को बचाए, महामारी के दौर में तो स्वागतयोग्य ही माना जाएगा।

कोवैक्सीन के मामले में सिर्फ पहले तथा दूसरे चरण के ट्राइल के डॉटा के आधार पर जल्दबाजी में आपात उपयोग के लिए मंजूरी दिए जाने से एक सवाल यह भी उठता है कि अन्य टीकों के मामले में भी ऐसी ही मंजूरी क्यों नहीं दी गयी? कोविड-19 के टीकों के विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रस्तुत किए गए परिदृश्य के अनुसार, इस समय करीब 20 टीकों का तीसरे चरण का ट्राइल चल रहा है, जिसमें एक और भारतीय कंपनी, जायडुस कैडिला का टीका भी शामिल है। रूसी गमालेया टीके के लिए डा रेड्डी लैब से गठबंधन किया गया है और इस टीके के भी भारत में पहले तथा दूसरे चरण के और दूसरे देशों के तीसरे चरण के, कारगरता के प्राइमरी डॉटा उपलब्ध हैं। क्या अन्य सभी टीकों को भी उसी आधार पर मंजूरी दी जाएगी? या ऐसी मंजूरी सिर्फ हमारे ‘देसी’ टीके के लिए ही सुरक्षित है? या यह मंजूरी सिर्फ इसका एलान करने के लिए है कि हमारे पास भी अमरीका, रूस, चीन तथा यूके की ही टक्कर की वैज्ञानिक सामर्थ्य है?

बेहतर होगा कि सरकार संजय गांधी के नसबंदी अभियान और उससे हुए भारत के परिवार नियोजन कार्यक्रम को नुकसान पर नजर डाल ले। 1975 की इमर्जेंसी से पहले, नसबंदी की दरें पुरुषों और महिलाओं के मामले में लगभग एक जैसी थीं। लेकिन, आज स्थिति यह है कि 93 फीसद नसबंदियां महिलाएं कराती हैं और पुरुष सिर्फ 7 फीसद। इमर्जेंसी में हुई जबरिया नसबंदी की प्रतिक्रिया में, पुरुषों की नसबंदी को जो जबर्दस्त धक्का लगा था, उसे अब तक संतुलित नहीं किया जा सका है। जबरन टीकाकरण का अभियान भी टीकाकरण को, जो कि किसी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति का बहुत ही नाजुक घटक होता है, ऐसा झटका दे सकता है, जिससे उबरने में बहुत समय लग सकता है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Forced Consent and No Transparency Can Create a Backlash against Vaccines

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