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उत्तर भारत के जंगलों में लगने वाली आग मानव निर्मित आपदा है

पहाड़ी जंगलों से वनवासियों को दूर करने और मोनोकल्चर प्लांटेशन को बढ़ावा देने से आग की घटनाएँ बढ़ रही हैं जो विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे ख़राब हस्तक्षेप के कारण हो रही हैं और इसलिए इन्हें मानव निर्मित घटनाएं कहना ही सही होगा।
उत्तर भारत

अभी अप्रैल का पहला सप्ताह ही है। और उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं ने वन भूमि के बड़े हिस्से को लगभग घेरना शुरू कर दिया है। पिछले 24 घंटों में उत्तराखंड के जंगलों में आग की पैंतीस घटनाओं ने राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों में सुर्खियां पाई हैं। इसी तरह की खबरें हिमाचल प्रदेश से भी आ रही हैं।

इस हालत में, दोनों राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे स्थिति को बिगड़ने न दें और इससे निपटने के लिए युद्धस्तर पर निर्णय लें। हालांकि, प्रेस में हताशा, आवेग और नौकरशाही के हस्तक्षेप की खबरें बराबर आ रही हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री आग को बुझाने या नियंत्रण में लाने के लिए हेलीकॉप्टरों के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं; जबकि इसके लिए लोगों का साथ लेना चाहिए, जितना जल्दी यह बात समझ में आएगी उतना बेहतर होगा। 

पहाड़ी जंगलों में आग की घटनाएँ कोई नई बात नहीं है, जिसकी मुख्य वजह करीब करीब सभी  सरकारों की मोनोकल्चर रोपण की नीतियां रही है। इसकी एक वजह ये भी है कि विश्व बैंक जंगलों में हरियाली को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने का धन मुहैया कराता है, और इसके लिए पर्वतों में मोनोकल्चर रोपण किया जाता है जोकि ऐसी पौधे या पेड़ लगाए जाते हैं जो हमारे जंगलात के लिए विदेशी है या ठीक नहीं हैं- खैर इस मुद्दे पर हम बाद में लौटेंगे। लेकिन अभी जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह यह कि आग की शुरुआत काफी जल्दी हो गई है क्योंकि अभी तो गर्मियों का लंबा समय पड़ा है जोकि कम से कम 60 दिनों का विनाशकारी समय हो सकता है।

जंगलों में आग के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से जलवायु परिवर्तन का होना है और उसका पूरे भौगोलिक क्षेत्र पर इसके परिणाम का पड़ना हैं। जिसमें मुख्यत कम बर्फ का गिरना, अपेक्षाकृत सुखी सर्दी का पड़ना, यहाँ तक कि मध्य हिमालय के एरिया यानि 3,000 फीट से लगभग 7,000 फीट तक की ऊँचाई वाले इलाके में कम वर्षा का होना आदि अन्य बड़े कारण हैं। लेकिन यह अभिव्यक्ति की एक उत्कृष्ट शैली है, जिसमें बहाने और जिम्मेदारी न निभाने का बोलबाला है – इसका एक कारण सरकारी एजेंसियों, वन विभाग और आम लोगों, वन अधिकार कार्यकर्ताओं/वनवासियों के बीच जीवंत संपर्क का न होना भी है। 

जंगलात में आग की घटनाएं मानव निर्मित घटनाएं है जो घटनाएँ विभिन्न स्तरों पर खराब हस्तक्षेप के कारण हो सकती हैं, आइए हम इन पर चर्चा करते हैं। उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आपदा के जोखिम को कम करने लिए उपाय करने की जरूरत है और नए हालत को समझने की जरूरत भी है।

विश्व बैंक के तत्वावधान में हिमाचल प्रदेश में वृक्षारोपण की नीति में एक बड़ा बदलाव लाया गया था, जिसके तहत राज्य में हरित कवर/आवरण या हरियाली को बढ़ाने पर जोर दिया गया था। ऐसे पेड़ों की प्रजातियां लगाना जो जल्दी से बढ़ती हैं, लगाई गई। चिर-चीड़/देवदार उन प्रजातियों में से एक है जो वृक्षारोपण के मामले में उठाए गए युद्धस्तर के कदम है क्योंकि सूखे इलाकों में भी यह तेजी से बढ़ता है। पाइन यानि चीड़ हिमालय की कोई प्राकृतिक प्रजाति नहीं है, अंग्रेजों इसे अपने साथ लाए थे ताकि वे अपनी टीबी (तपेदिक) के इलाज़ के लिए सैनिटोरियम में ताजी हवा का इंतजाम कर सकें।  

उत्तराखंड (तब यूपी) और हिमाचल दोनों की पर्वतीय सरकारों ने बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाया था और उन्हें मिश्रित वनों और घास के मैदानों में भी लगाया गया था। संजीव पांडे, जाने-माने वन-विशेषज्ञ और हिमाचल कैडर के पूर्व आईएफएस (भारतीय वन सेवा) अधिकारी इसे "चीड़-उपनिवेश" का दर्जा देते हैं।

चीड़ के वृक्षारोपण ने देशी जंगलों को अपना उपनिवेश बना लिया और कुछ वर्षों के बाद इससे कहर बरपा हो गया। क्यों? क्योंकि चीड़/देवदार के पेड़ एक किस्म की सुइयां गिराते हैं जो कि बहुत ही भयावह होती और ये आग को तेजी से पकड़ती हैं। दूसरी बात, चीड़ के पेड़ के नीचे कोई भी हरी वनस्पति नहीं उपज सकती है, एकमात्र अपवाद लैंटाना केमरा है, जो एक अन्य विदेशी प्रजाति है और वे पहाड़ के जंगलों के रास्तों में भरी पड़ी हैं जो कि जंगल की आग बढ़ाने का कारण भी बनती है। तीसरा, चीड़ के पेड़ की जड़ें गहरी होती हैं और ये चट्टानों से भी पानी चूसते हैं और इस तरह आस-पास के इलाके को शुष्क या सूखा बना देते हैं। चीड़/देवदार के जंगल के नीचे कोई जल निकाय/तालाब या झरना ज़िंदा नहीं रह सकता है।

ऐसे कई उदाहरण हैं जिनके बारे में संजीव पांडे बताते हैं, कि कुल्लू जिले के कुछ गांव जंगलों की संरचना से जुड़े हुए थे। इनमें से अधिकांश वन ओक या शाहबलूत के पेड़ की विभिन्न क़िस्मों से जुड़े थे, जो पहाड़ों के लिए पेड़ों की सबसे उपयुक्त प्रजाति है। हालांकि, ईंधन और चारकोल बनाने के लिए ओक को जंगलों से निर्दयता से काटा गया, जिसके बाद इन अधिकांश गांवों में चीड़/देवदार के पेड़ों का कब्जा हो गया था। ओक के पेड़ बेहतरीन कौयगुलांट पदार्थ निकालते है जो जंगलों में पानी की कमी को पूरा करते हैं और इस क्षेत्र में बड़े ओक के जंगलों की भरमार है’, खासकर शिमला शहर के आसपास - तारादेवी और शोघी जैसी जगहों में कुछ बेहतरीन जल निकाय या झरने हैं।

अब वक़्त आ गया है कि दोनों सरकारें अपनी वृक्षारोपण की रणनीतियों पर फिर से विचार करें  और जंगलों में चीड़/देवदार के पेड़ों के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाए। 

दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण जंगलों से पहाड़ी लोगों का भारी अलगाव है। दिलचस्प बात यह है कि लंबे समय से पंजीकृत जंगलों में वनवासियों का अधिकार होता था। अंग्रेजों ने 1865 में भारतीय जंगलों पर अपना एकाधिकार जमाते हुए उन्हे नियंत्रण में कर लिया और उसी वर्ष वन अधिकार कानून पेश कर दिया था। 

बावजूद इस कानून के पारित होने के, पारंपरिक वन समुदायों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए वज़ी वूल उर्ज नामक प्रावधान किया गया था। वन समुदायों के अधिकार सीमित थे लेकिन उनके सभी अधिकार पंजीकृत थे। इन अधिकारों में घरों के निर्माण, पशुओं को चराने और चारा इकट्ठा करने का अधिकार शामिल था। वन गाँव के जनसाधारणके जीवन का हिस्सा हैं। लेकिन आज विभिन्न सरकारों ने बड़े पूँजीपतियों, देशी और विदेशी को खुश करने के लिए इन अधिकारों का भी हनन करने की कोशिश की है, जो कि जंगलों को अपने लाभ को बढ़ाने के मामले में उन्हें सहमत करने के एकमात्र संसाधन के रूप में मानते हैं।

जनसाधारण का मतलब भूमि, जल और जंगलों पर लोगों का अधिकारो से है। विभिन्न सरकारों द्वारा निजी कॉर्पोरेट हितों को साधने के लिए इन अधिकारों का अतिक्रमण किया है। हिमाचल सरकार इस तरह की दखल में काफी आगे निकल है। इसने ग्राम पंचायतों के माध्यम से ग्राम समुदाय द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र देने के प्रावधानों में कुछ संशोधन वापस ले लिए है। ऐसा पनबिजली, सीमेंट से संबंधित कंपनियों को खुश करने के लिए किया गया था। संजीव पांडे कहते हैं कि जंगलों को एक पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में माना जाना चाहिए और इसलिए न केवल विकास की लप्पेबाजी लोगों को जंगलों से दूर कर देगी, बल्कि सरकार की रणनीति वनों को पूरी तरह से बर्बाद कर देगी। 

इतना ही नहीं जिन लोगों को कभी जंगलों के रक्षक के रूप में माना जाता था उन्हें अब अतिक्रमणकारी माना जाता है। इन पर्वतीय राज्यों में वन अधिकार अधिनियम 2005 का एक भी मामला अभी तक नहीं सुलझा है। दूसरी ओर, सरकार कहती है कि सभी किस्म के जंगलों के अधिकारों के मामलों को बहुत पहले ही सुलझा लिया गया है, जबकि हक़ीक़त ये है कि 1980 के दशक में लोगों को दिए गए कुछ भूमि के पट्टों को अभी भी मान्यता नहीं मिली है और भूमि अधिकारों का अभी भी पालन नहीं किया जाता है। ऐसे वातावरण में लोग जंगलों से अलग-थलग होने पर मजबूर हो जाते हैं जो उनके आवास भी जो बड़े पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा थे।

तीसरा कारण शासन में बड़ी गिरावट का है जिसके तहत राज्यों में राजकोषीय घाटे के मानकों को पूरा करने के लिए मानव संसाधनों को सीमित किया जा रहा है। पहले वन विभाग ग्रामीणों के बीच से ही "वन रक्षकों" को नियुक्त करता था। लेकिन अब कई वर्षों से यह योजना बंद पड़ी है और वन विभाग में कार्यरत कुछ लोग अधिकारियों के क्वार्टर में घरेलू मदद के रूप में काम करते हैं।

जंगलों के प्राकृतिक रक्षक उसमें रहने वाले लोग हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें वन प्रबंधन की बड़ी रणनीति में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके बजाय, सरकारें मुनाफे, खनिज, जल, वन संपदा आदि को निकालने के लिए जंगलों को निजी पूंजी को सौंप रही हैं और इन सबका उपयोग वनवासियों को जंगलों से दूर करने के लिए किया जा रहा है। यह एक स्थायी मॉडल नहीं है, बल्कि यह जंगलों और लोगों के लिए खतरनाक साबित होगा।

न केवल जंगलों का प्रबंधन करने में बल्कि जंगल की आग को नियंत्रित करने के मामले में  किस किस्म के पौधे लगाने हैं उसकी रणनीति भी बड़ी भूमिका निभाएगी।

जंगलों में आग की रोकथाम जनसाधारण करेगा न कि हेलीकॉप्टर। अब वक़्त आ गया है जब हमें इस बात का एहसास हो जाना चाहिए।

(लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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