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मीडिया का ग़लत गैरपक्षपातपूर्ण रवैया: रनौत और वीर दास को बताया जा रहा है एक जैसा

आइये देखें कि कैसे झूठी समानता के जरिए चुपके से यह दावा किया जा रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा कंगना रनौत और वीर दास दोनों को ही समान रूप से प्रभावित करता है।

vir das and kangana ranaut
चित्र साभार: फिल्मीबीट

इससे भी अधिक घृणास्पद और क्या हो सकता है कि जब कभी भी कोई विवाद खड़ा होने लगता है, तो खुद को निष्पक्ष, ईमानदार और वस्तुपरक साबित करने के लिए उबाऊ मीडिया हर बार की तरह झट से इन मामलों में कूद पड़ता है। और निश्चित रूप से, यहाँ पर बात सिर्फ टेलीविज़न नेटवर्क पर बैठे किसी बेतुके संकीर्ण हिंदुत्ववादी एंकरों की ही नहीं की जा रही है, बल्कि यह एक व्यथा है जिसने तथाकथित लिबरल गुटबाजों को जकड़ रखा है। 

और इसलिए, जैसे ही कंगना रनौत वाला “भीख” या भीख में मिली आजादी वाले आंदोलन वाला बयान थोड़ा सा ठंडा पड़ना शुरू हुआ था कि इस बीच हास्य कलाकार वीर दास का “दो भारत” वाला वीडियो वायरल हो गया और विवादास्पद पॉप चार्ट पर हिट होने लगा है। 

पलक झपकते ही लिबरल प्राइमटाइम टेलीविज़न एंकरों का समूह रनौत और दास के बारे में अजीबोगरीब तरीके से एकरूपता दिखाने में जुट गया, जिसमें - बोलने की आजादी और इसकी सीमायें, बौद्धिक पूर्वाग्रह और असहिष्णुता, चुनिंदा तरीके से आक्रोश व्यक्त करने, और सबसे बदतर बात यह कि, उन्हें एक साथ जोड़कर दिखाने की कोशिशें, मानो दोनों एक ही नाव पर सवार हों। इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है।

आइये देखते हैं कि कैसे एक झूठी साम्यता को चुपके से यह दिखाने के लिए पेश किया जाता है कि बोलने की आजादी का मुद्दा किस प्रकार से दोनों सितारों को समान रूप से प्रभावित करता है, और आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि ऐसा किसी मूर्ख-युवा नौसिखिये द्वारा नहीं बल्कि अनुभवी स्टार एंकरों द्वारा किया जा रहा है, और इनमें से कुछ नाम इस प्रकार से हैं।

हमारा यह कहना नहीं है कि रनौत और दास को राजद्रोह के केस में नामजद किया जाना चाहिए, लेकिन निश्चित रूप से यह सवाल खड़ा होता है– इन दोनों सितारों को बोलने की आजादी वाली बहस में एक साथ जोड़ने की क्या जरूरत आन पड़ी है, जबकि उनके द्वारा कही गई बात पूरी तरह से एक दूसरे से भिन्न है?

इस बारे में क़ानूनी परिप्रेक्ष्य पाने के लिए मैंने कुछ क़ानूनी जानकारों से बात की।

इस सबकी शुरुआत कैसे हुई? बॉलीवुड अभिनेत्री रनौत पिछले कई दिनों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और निश्चित रूप से गृहमंत्री अमित शाह के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को साबित करने के लिए लगातार कड़ा रुख अख्तियार कर रही थीं। अपनी भक्ति की सबसे ताजातरीन घोषणा उनकी ओर से तब की गई जब उन्होंने टाइम्स नाउ के एक कार्यक्रम में कहा कि “1947 में, यह आजादी नहीं मिली थी बल्कि भीख या दान में मिली थी,” और यह कि “असली आजादी तो सिर्फ 2014 में आई थी।” चूँकि उन्होंने 1947 का जिक्र किया है, इसलिए हम मानकर चलते हैं कि यह संदर्भ एक सदी या उससे अधिक समय से ब्रिटिश शासन से हासिल की गई स्वतंत्रता के सन्दर्भ में कहा गया था। 

इसके बाद तो जैसे तबाही ही मच गई। और रनौत को स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों और शाहदतों को अपमानित करने और अनदेखी करने के लिए फटकार लगाई जाने लगी। कानून के विद्यार्थियों से लेकर राजनेताओं तक की ओर से उनके खिलाफ शांति भंग करने और जनता को शरारत के लिए उकसाने के आरोपों के साथ राजद्रोह के कानून के तहत गिरफ्तारी की मांग को जोरशोर से उठाया जाने लगा।

इसके कुछ दिनों बाद ही हास्य कलाकार वीर दास के द्वारा वाशिंगटन डीसी के जॉन ऍफ़ कैनेडी सेंटर में अपने प्रदर्शन ‘मैं दो प्रकार के भारत से आया हूँ’ के एक व्यंग्यपूर्ण वीडियो को उपलोड कर दिया गया। इसमें उन्होंने सार्वजनिक जीवन में दोहरेपन और लोगों एवं नेताओं के दोमुहें चरित्र के बारे में बात की है, और इसके साथ ही किसानों के विरोध प्रदर्शन से लेकर सामूहिक बलात्कार तक के विषयों को शामिल किया गया है। आमतौर की तरह, इसने अति-राष्ट्रवादियों (पढ़ें मोदी के अंधभक्तों) के बीच एक उन्मादी लहर पैदा करने का काम किया, और उनकी ओर से एक विदेशी भूमि पर भारत की छवि को तार-तार इत्यादि करने के लिए राजद्रोह के तहत दास की गिरफ्तारी के लिए सोशल मीडिया और सार्वजनिक रूप से हाय-तौबा मचाने के लिए विवश कर दिया है। उनके द्वारा दास के व्यंग्य को देश और इसके लोकतंत्र के लिए एक खतरे के रूप से देखा जा रहा है।

अब, यही वह बिंदु है जहाँ से समस्या शुरू होती है – स्टार एंकरों द्वारा इस मुद्दे से कैसे निपटा गया?

महिला पत्रकार फाये डिसूजा, जिन्हें ताजातरीन खबरों पर अपनी नेक मूसलाधार धारा प्रवाह बोलने के कारण मिरर नाउ से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था, ने अपने यू ट्यूब चैनल पर अपने बोलने की आजादी के बचाव के साथ अपना प्रवचन शुरू किया हुआ है - कि कैसे प्रत्येक नागरिक के पास बोलने की आजादी और अपनी राय की अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार है, और यह कि हम उनसे असहमत हो सकते हैं, भले ही वे गलत हों, आदि-आदि। और फिर अचानक से उन्होंने पैनल में शामिल लोगों के सामने सवाल उछाला: ऐसे में क्या फिर इन सभी लोगों द्वारा उल्लंघन करने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करना उचित है?

दो मुद्दों को आपस में मिला देने का यह उत्कृष्ट नमूना है, बिना इस बात की चिंता किये बगैर कि दोनों के बीच में एक अंतर है जिसे हम नीचे देखेंगे।

इंडिया टुडे टीवी पर राजदीप सरदेसाई ने अपनी वाकपटुता और लिबरल मूल्यों के लिए मशहूर टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा को आमंत्रित किया, और चेहरे को सनसनीखेज बनाते हुए मांग की कि लिबरल क्यों दास के पक्ष में तो बोल रहे हैं लेकिन कंगना के पक्ष में नहीं। क्या हम उन सभी व्यक्तियों के प्रति असहिष्णु नहीं हैं जो हमसे भिन्न दृष्टिकोण को पेश करते हैं? उन्होंने चिल्लाकर कहा “हो सकता है कि कंगना रनौत के विचार आपसे मेल न खाते हों; लेकिन उन्हें भी निशाना बनाया जा रहा है, उनके खिलाफ मामले दर्ज किये जा रहे हैं। ऐसे में उदार ख्यालात वाली महुआ मोइत्रायें कहाँ हैं?”

इसके जवाब में मोइत्रा ने पहला महत्वपूर्ण मुद्दा यह उठाया था, जब उन्होंने चुनौती दी और सबसे पूछा कि दास के वीडियो में “तथ्यात्मक तौर पर क्या गलत था” यदि कोई चाहे तो चुन कर बताये। फिर उन्होंने कहा कि वे हर सही-सोच रखने वाले भारतीय के बचाव में खड़ी होंगी लेकिन किसी “पागल” का साथ नहीं दे सकती हैं।”

सरदेसाई के कार्यक्रम को “खबरें बिना किसी शोरगुल” के तौर पर टैग किया जाता है, और ऐसा लगता है कि सिर्फ सरदेसाई को ही सबसे अधिक शोर मचाने की अनुमति है।

टाइम्स नाउ के राहुल शिवशंकर के पास इसकी गहराई में जाने के लिए कोई दिखावा करने की भी जरूरत नहीं थी और उन्होंने सपाट स्वर में पूछा कि क्या रनौत और दास को भारत विरोधी कहे जाने पर कोई अतिरेक था। शिवशंकर सीधे अपने पैनल में बैठे लोगों के पास गए और उनसे यह बताने की मांग की कि इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले विवाद में वे किसके पक्ष में खड़े हैं।

इसी चैनल की नविका कुमार ने तो इस बारे में कुछ भी छुपाने की जहमत तक नहीं उठाई कि वे किसके पक्ष में हैं, जब वे किसी निराश आंटी की तरह बौखला उठीं मानो जिसने अपने बच्चों को कुछ गलत करते हुए पकड़ लिया है। फिर उन्होंने अपनी आँखें घुमाई और अपने दर्शकों को यह कहते हुए चेताया कि एक ‘लक्ष्मण रेखा’ होती है, जहाँ पर यथोचित प्रतिबंधों को कभी पार नहीं करना चाहिए, कि रचनात्मक स्वतंत्रता और अपने देश की छवि को धूमिल करने के मध्य एक महीन रेखा होती है। बेशक, स्क्रीन हैशटेग #गुटबाजी यानि लिबरल, रनौत भाजपा की कठपुतली है, लेकिन वीर का व्यंग्य रचनात्मक है, के साथ छलांग मार रहा है। उन्होंने नाटकीय नाराजगी व्यक्त करते हुए कह “यह पाखंड एक मजाक है,” और एक बार फिर से रनौत और दास के मुद्दे को अपने साथी एंकरों की तरह ही घालमेल कर दिया।”

तो आप पूछेंगे कि यहाँ पर छल और चालबाजी कहाँ है?

ऐसे में जो लोग इस मुद्दे से अनभिज्ञ हैं, उनके लिए शुरुआत के लिए, भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन के कारण होने वाली घटनाओं के बारे में दस्तावेज़, पुष्टि, प्रमाणपत्र, सत्यापन मौजूद हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, चूँकि रनौत ने 1947 को संदर्भित किया था, जिसका अर्थ है कि वे स्पष्ट रूप से एक सदी या उससे भी अधिक के औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता को संदर्भित कर रही थीं। यहीं पर वे हकीकत और कहानी के बीच में फर्क कर पाने में विफल रही हैं। यहाँ तक कि भक्तों में भी इस बात को लेकर आम सहमति होगी कि 1947 में ब्रिटेन और भारत के बीच में सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, और यही स्वतंत्रता आंदोलन का आशय और सन्दर्भ है। 1950 में हमें अपना खुद का संविधान मिला, और यह एक ऐसा तथ्य है जिससे भक्त भी इंकार नहीं कर सकते हैं। सत्ता का यह हस्तांतरण एक हकीकत है और इसको लेकर कोई विवाद नहीं है। इसलिए, रनौत के बयानों को किसी की राय नहीं कह सकते हैं, वे इस मामले में तथ्यात्मक रूप से गलत हैं।

इसे ही हम फेक न्यूज़ कहते हैं, लेकिन इस फेक न्यूज़ के पास यह मौका नहीं है कि इसे सच मान लिया जाये। आइये इसे इस तरह से देखते हैं – यदि कंगना ने 2014 और मोदी का जिक्र नहीं किया होता, और इसकी जगह पर किसी अन्य व्यक्ति का जिक्र किया होता तो क्या होता। इसके साथ ही यदि भाजपा कंगना के प्रति शत्रुतापूर्ण होती तो उनके द्वारा शर्तिया तौर पर उन पर तथ्यों को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप लगाया जा रहा होता, और अंततः भारत की संप्रभुता और अखंडता पर प्रश्न खड़े किये जाते।

उदाहरण के लिए, राजद्रोह पर धारा 124 ए में कहा गया है, ‘किसी भी व्यक्ति द्वारा, शब्दों के जरिये, या बोलने या लिखने में से किसी के भी माध्यम से...यदि नफरत या अवमानना करने का प्रयास किया जाता है ...कानून [भारत] द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ दुर्भावना को भड़काने के प्रयास को दण्डित किया जायेगा...” पिछले दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर “यथोचित प्रतिबंध” लगाने के आधार के रूप में दो अभिव्यक्तियों – “विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध” और “सार्वजनिक व्यवस्था” को जोड़कर राजद्रोह कानून को और भी मजबूत बनाया गया था।

आखिरकार, संविधान के लागू होने पर सरकार को कानून द्वारा स्थापित किया गया था। क्या उनके द्वारा रनौत पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता था, जैसा कि वे त्रिपुरा में तथ्यों की तलाश में जुटे लोगों के उपर “फेक न्यूज़” फैलाने के नाम पर कर रहे हैं? हो सकता है उन्होंने ऐसा किया होता यदि उनके हाथों भी राजद्रोह कानून इतना ही दुरूपयोग हो रहा होता।

वीर दास के मामले में, कॉमेडियन पर किसी भी आपराधिक गतिविधि का आरोप नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि उनका भाषण सिर्फ एक राय थी, और वे अपनी किसी भी राय को व्यक्त करने के हकदार हैं, भले ही उनकी राय से हमारी सहमति न हो। एक राय रखना, भले ही वह सरकार की राजनीतिक नीतियों के विरोध में ही क्यों न हो, कोई अपराध नहीं है, बल्कि असहमति के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। भारत की मानहानि नाम का कोई ज्ञात अपराध नहीं है।

दास के पास तब तक अपनी राय व्यक्त करने का हक है, जब तक कि वे हिंसा करने के लिए नहीं भड़काते हैं। इसी प्रकार से, न तो उन्हें भारत को बदनाम करने के आरोप के लिए घसीटा जा सकता है क्योंकि यह एक राय है। राजद्रोह कानून और खूंखार गैरकानूनी गतिविधि नियंत्रण अधिनियम (यूएपीए) के तहत आप जो काम नहीं कर सकते हैं, वह है देश में हिंसा को भड़काने का काम। दुर्भाग्यवश, इन दोनों ही कानूनों का दुरूपयोग प्रधानमंत्री की आलोचना करने, पाकिस्तान की प्रशंसा करने या भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डालने की घटना पर सवाल खड़े करने जैसे अहानिकारक गतिविधियों के खिलाफ किया जा रहा है।

सारी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं अज्ञात नहीं हैं।

इसका एक उदाहरण जर्मनी के कानून में मिलता है, जहाँ पर नाजीवाद के वीरतापूर्ण बखान पर प्रतिबंध है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के तहत संरक्षित नहीं किया गया है क्योंकि नाजीवाद को एक विशिष्ट समुदाय के खिलाफ नुकसान और चोट पहुंचाने के इरादे से लक्षित किया जाता है।

उसी सुर में वीर दास को नुकसान या चोट पहुंचाने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है; यद्यपि भाजपा सरकार इसका इस्तेमाल कर सकती है, लेकिन यह जांच में नहीं टिकने वाला क्योंकि अदालतें इसे कानून का दुरूपयोग कहेंगी। 

यदि जर्मन कानून पर वापस लौटें तो क्या कोई यह नहीं कह सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के तहत हिंदुत्व की भी रक्षा की जानी चाहिए? वकीलों में इस बात पर सहमति है कि हिंदुत्व को कानून के तहत संरक्षित किया जा सकते है, बशर्ते उनके द्वारा, उदाहरण के लिए, मुस्लिम तुष्टीकरण के बारे में जो प्रचार किया जाता है, उसे उनकी राय के रूप में कहा जाये।

हालाँकि, यदि हिंदुत्व के हिमायती समुदायों के खिलाफ “गोली मारो सालों को” जैसे जानलेवा हिंसा की वकालत करते हैं, तो यह एक हिंसक कृत्य है, न कि कोई राय है। हालाँकि, हमारे देश में प्रक्रिया ही खुद में एक सजा है।

यहाँ, वीर दास यह नहीं कह रहे हैं कि मैं भारत को बर्बाद होते देखना चाहता हूँ, या चलो और हिन्दुओं को मारो पीटो। जबकि दूसरी तरफ, रनौत खुद भारत की आजादी की अखंडता पर सवाल खड़े करती नजर आ रही हैं! वीर दास ने तो देश के वर्तमान राजनीतिक हालात के बारे में केवल एक राय व्यक्त की है, जैसा कि वे इसे देख रहे हैं। 

ऐसे में, क्या पत्रकारों को इस झूठी समानता वाले उदाहरणों से बचने और खुद को साफ़-सुथरा और स्वच्छ दिखाने की एक कोशिश नहीं करनी चाहिए?

लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।

 अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/free-speech-row-misplaced-impartiality-media-equates-ranaut-vir-das

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