हाथरस रेप: कैसे राज्य SC-ST पीड़ितों के मुआवज़े व पुनर्वास के अधिकार को लागू करने में नाकामयाब रहा है
हाथरस पीड़िता के लिए न्याय की मांग ने जातिगत अत्याचार के मुद्दे को विमर्श में पहली पंक्ति में ला दिया है। सेंटर फॉर सोशल जस्टिस (CSJ) के कानूनी विेशेषज्ञ बता रहें है कि कैसे पीड़ित को मुआवज़े और पुनर्वास का अधिकार देने वाले कानूनी प्रावधानों की राज्य के अधिकारियों ने अवहेलना की है।
लेखक गायत्री सुमन, शोभाराम गिलहारे, दिव्या जायसवाल, हेमलता साहू, राजेंद्र कुमार बंजारे और तेंदन कुमार साहू जातिगत् अत्याचारों का शिकार होने वाले पीड़ितों के साथ काम करते हैं।
यह छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम (अत्याचार निवारण) के मैदान पर लागू होने को लेकर हुए एक विस्तृत अध्ययन का हिस्सा है। इस अध्ययन को CSJ ने अंजाम दिया था। यहां जो नतीज़े हासिल हुए हैं, उनके आंकड़ों का आधार छत्तीसगढ़ है। लेकिन यह नतीज़े एक विस्तृत राज्य तंत्र के अपने सबसे वंचित और संकटग्रस्त तबकों की सुरक्षा करने और अपराधियों को सजा दिलवाने में नाकामी को दिखाते हैं।
हाथरस पीड़ित और कई दलित महिलाएं, जो बयां ना किए जा सकने वाले अत्याचार का शिकार हुई हैं, उनके लिए न्याय की मांग करते हुए लाखों लोग सड़कों पर उतर चुके हैं। अब जातिगत और आपराधिक न्याय पर विमर्श सबका ध्यान खींच रहा है। इसलिए अब यह अहम हो जाता है कि तंत्र द्वारा हर दिन होने वाली हिंसा और पीड़ितों को थोड़ा-बहुत ही न्याय दिलाने में असफलता को सबके सामने लाया जाए।
अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निरोधक) संशोधन अधिनियम, 2015 के साथ-साथ 2016 में बनाए गए नियमों द्वारा पीड़ित और गवाह के अधिकारों का एक तेज-तर्रार तंत्र बनाया गया था। इससे समग्र मुआवज़ा और पुनर्वास की एक व्यवस्था तस्वीर में आई।
कानून के मुताबिक़, पीड़ितों को 8,25,000 (हत्या, गैंगरेप और 100 फ़ीसदी विकलांगता की स्थिति में) तक के मुआवज़े का अधिकार है।
इस मुआवज़े को अलग-अलग स्तरों पर दिए जाने का प्रावधान था। पहली किस्त FIR दर्ज होने के वक़्त, दूसरी किस्त पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल किए जाने के समय और तीसरी दोषसिद्धि के वक़्त पीड़ित को दी जानी होती है।
हत्या या मौत के मामले में पहली किस्त 50 फ़ीसदी की होगी, जो पोस्टमार्टम के तुरंत बाद दे दी जाएगी। बचा हुआ 50 फ़ीसदी मुआवज़ा पुलिस द्वारा कोर्ट में चार्जशीट दाखिल किए जाने के वक़्त देना होगा।
अत्याचार अधिनियम का नियम संख्या 12(4) कहती है कि पहली किस्त FIR दर्ज किए जाने के सात दिन के भीतर दे दी जानी चाहिए। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देने के लिए राज्य सरकार को उसे सीधे राज्य कोष तक पहुंच देनी होगी, ताकि तुरंत मुआवज़े का वितरण किया जा सके।
इसके साथ, कानून इस बात का प्रावधान भी करता है कि पीड़ित को सात दिन के भीतर गैर-आर्थिक मदद, जैसे- स्वास्थ्य, आवास, कपड़े, खाना आदि की मदद भी उपलब्ध करवाई जाए।
लेकिन मैदान पर इन दिशा-निर्देशों का शायद कभी-कभार ही पालन होता है।
2016 से 2018 के बीच हमने जितने भी मामले लड़े, उनमें स्तरीकृत मुआवज़े वाले प्रावधानों का पालन नहीं किया गया।
वक़्त पर मुआवज़े के वितरण के सामने ग़ैर ज़रूरी क़ानूनी बाधाएं पैदा की जा रहीं
हमने 2016 से 2019 के बीच जितने भी मामलों में पैरवी कीं, उनमें स्तरीकृत मुआवज़े वाली व्यवस्था का पालन नहीं किया गया। ज़्यादातर मामलों में पहले और दूसरे चरण को एक कर दिया गया और मुआवज़ा चार्जशीट दाखिल किए जाने के बाद एक साथ दिया गया। ऐसा करने से मुआवज़े के बुनियादी लक्ष्य का ही उल्लंघन हुआ।
गैर-आर्थिक पुनर्वास जैसे- कपड़ा, आवास, खाना आदि भी हमारे द्वारा लड़े गए किसी भी मामले में उपलब्ध नहीं कराए गए। इस तथ्य की पुष्टि तीन जिलों (रायपुर, बिलासपुर और रायगढ़) के RTI आंकड़ों से भी होती है। इन तीन जिलों में जितने भी मामले दर्ज किए गए, उनमें से किसी में भी गैर-आर्थिक आपात मदद उपलब्ध नहीं कराई गई।
औसत तौर पर मुआवज़े की पहली किस्त के लिए पीड़ितों को तीन महीने का इंतज़ार करना पड़ा।
हमने एक हत्या का केस लड़ा था, उसमें मुआवज़े को लेकर यह अकर्मण्यता ज़्यादा बेहतर तरीके से नज़र आती है। मामले में पी़ड़ित के परिवार को 8,25,000 का मुआवजा़, आरोपी की दोषसिद्धि के एक साल बाद दिया गया। वह भी तब जब जिला प्रशासन को फ़ैसले की एक कॉपी उपलब्ध कराई गई। यह कानून के प्रावधानों से बिलकुल उलट है, जिनमें हत्या पीड़ित के परिवार को पूरा मुआवज़ा चार्जशीट के स्तर पर ही मिल जाता है। यहां तक कि तब ट्रॉयल भी शुरू नहीं हुई होती हैं।
छत्तीसगढ़ जनजाति और अनुसूचित विभाग में लगाई गई RTI में यह सवाल पूछा गया था कि किन जिलों के जिलाधिकारियों को राज्य कोष तक सीधी पहुंच दी गई है। इस RTI का कोई जवाब नहीं दिया गया। इससे संकेत मिलता है कि इस तरह की ताकत प्रदेश के किसी भी जिलाधिकारी को नहीं दी गई है।
इसके लिए तर्क दिया गया कि बिना मेडिकल रिपोर्ट के मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता और यौन उत्पीड़न में स्वास्थ्य परीक्षण कराया जाना ज़रूरी नहीं होता। लेकिन कानून के अंतर्गत इस तरह की अहर्ताओं की ज़रूरत नहीं होती।
कुछ यौन उत्पीड़न के मामले, जिनमें SC-ST एक्ट के साथ IPC की धारा 354 लगाई गई है, उनमें भी कुछ जिला प्रशासन ने मुआवज़ा दिए जाने से इंकार कर दिया। तर्क दिया गया कि बिना स्वास्थ्य रिपोर्ट के मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता और यौन उत्पीड़न में स्वास्थ्य परीक्षण की जरूरत नहीं होती। हालांकि कानून के अंतर्गत इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। SC-ST एक्ट की सूची-1 साफ कहती है कि IPC की धारा 354 और SC-ST अधिनियम के तहत लगाए गए मामलों में तीन स्तर पर मुआवज़ा दिया जाना जरूरी है।इसी तरह जिला प्रशासन द्वारा मुआवज़े की रकम को फिक्स्ड डिपॉज़िट अकाउंट में ज़मा करने पर जोर देना भी कानून के हिसाब से अनिवार्य नहीं है।
कई बार 90 फ़ीसदी तक मुआवज़ा फिक्स्ड डिपॉज़िट में ज़मा किया जाता है। ऊपर जिस हत्या के मामले की चर्चा हुई थी, उसमें भी ऐसा ही हुआ था। फिर कई बार मनमाफ़िक तरीके से 10000 रुपये की तरल नगदी का प्रावधान जोड़ दिया जाता है। बाकी का पैसा फिक्स्ड अकाउंट में जमा कर दिया जाता है। पीड़ित, खासकर पीड़ित के ऐसे परिवार जो अपने प्राथमिक कमाऊ सदस्य को खो चुके हैं, उन्हें मुआवज़े की रकम तक आसानी से पहुंच नहीं मिल पाती, इसलिए यह पुनर्वास मुआवज़े के अपने लक्ष्य को ही खो देता है।
2019 तक केवल दस राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश ने ही पीड़ितों के सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास के लिए योजना की सूचना दी है। ना तो छत्तीसगढ़ और ना ही उत्तरप्रदेश इस सूची का हिस्सा हैं।
सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास की योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने की कमज़ोर इच्छाशक्ति
यह कानून कोर्ट और प्रशासन दोनों पर ही पीड़ितों के सामाजिक आर्थिक पुनर्वास कराने के विशेष कर्तव्य का उल्लेख करता है। इस पुनर्वास में पीड़ित और उनके परिवारों को रोज़गार, शिक्षा, आवास और ज़मीन की सुविधा उपलब्ध कराई जानी होती है।
कानून यह भी कहता है कि राज्य सरकार को इन सुविधाओं से संबंधित कानून बनाना चाहिए और संबंधित अधिकारियों की भूमिका और कर्तव्यों को भी तय करना चाहिए। 2019 तक केवल दस राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश ने ही पीड़ितों के सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास के लिए योजना की सूचना दी है। ना तो छत्तीसगढ़ और ना ही उत्तरप्रदेश इस सूची का हिस्सा हैं।
वास्तविकता में, हमारे अनुभव और हमें हासिल RTI आंकड़ों के मुताबिक़, बहुत कम पीड़ितों को ही इस तरह की मदद हासिल हो पाई है।
कानून का एक और क्षेत्र, जिसे अकसर नज़रंदाज कर दिया जाता है, वह विशेष SC-ST न्यायालयों की वह ताकत है, जिसके मुताबिक़ वे अलग-अलग व्यक्तियों के लिए सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास योजना बना सकते हैं। लेकिन कोर्ट कभी-कभार इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, इस तरह पुनर्वास का पूरा जिम्मा कौशलविहीन और अफ़सरशाही रवैये वाले जिला प्रशासन पर आ जाता है।
निगरानी और सतर्कता समितियों की चूक
मुआवज़ों में देरी का एक सबसे प्रमुख कारण यह है कि निगरानी और सतर्कता समिति (MVC) के लिए देरी एक नियमित प्रक्रिया बन गई है। यह समितियां ST-SC एक्ट के तहत बनाई जाती हैं। ताकि वे सामूहिक तौर पर त्रैमासिक बैठक के वक़्त मुआवज़े का वितरण कर सकें।
इन समितियों में कुछ राज्य और नागरिक समाज के प्रतिनिधि होते हैं, इनका काम पूरा समग्र तौर पर ST-SC कानून का पालन देखना होता है।
उनके अधिकार और कर्तव्य व्यापक हैं। इन समितियों को अपने इलाके में अत्याचार के मामलों की पहचान करनी होती है। इसके बाद उन्हें इन मामलों में पीड़ित के राहत और पुनर्वास की निगरानी करनी होती है। उन्हें पुनर्वास योजनाओं को तैयार और उनकी निगरानी करनी होती है, साथ में अत्याचार संभावित इलाकों की पहचान भी कर जागरुकता कार्यक्रम चलाकर निरोधक करवाई करना भी इन्हीं समितियों की जिम्मेदारी होती है। यह समितियां जिला वैधानिक सेवा (डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस) से समन्वय बनाकर पीड़ितों को कानूनी मदद उपलब्ध करानी होती है और कानून के अंतर्गत अधिकारियों और संस्थानों का परीक्षण और उनकी जिम्मेदारी तय करनी होती है। इसलिए ST-SC कानून में राज्य की जवाबदेही तय करने के ढांचे में यह समितियां बेहद जरूरी हिस्सा होती हैं, ताकि अत्याचार के मामलों में कमी लाई जा सके।
समितियों की संचालन कार्रवाई के लेखा-जोखा विश्लेषण से हमें पता चलता है कि निगरानी व सतर्कता समितियों को सिर्फ़ मुआवज़ा बांटने वाले फोरम तक सीमित कर दिया गया है। उन्हें सिर्फ मुआवज़े से मतलब होता है।
एक जनवरी, 2016 से 30 जून, 2018 तक, 17 जिलों में इन समितियों की संचालन कार्रवाई के लेखा-जोखा विश्लेषण से इनकी पंगुता के बारे में पता चलता है।
कुल मिलाकर लेखा-जोखा विश्लेषण में ऊपर उल्लेखित किसी भी तरह कर्तव्य सामने नहीं आए। समितियों की संचालन कार्रवाई के लेखा-जोखा विश्लेषण से हमें पता तलता है कि निगरानी व सतर्कता समितियों को सिर्फ़ मुआवज़ा बांटने वाले फोरम तक सीमित कर दिया गया है। । इसका नतीज़ा ना केवल मुआवज़े में देरी हुई है, बल्कि इससे निगरानी और सतर्कता समितियां निष्क्रिय हो गई हैं।
एक मजबूत सांस्थानिक निगरानी ढांचे के आभाव में यह कानून लक्षित ढंग से क्रियान्वित नहीं हो सकता।
(लेखक वकील और पैरालीगल हैं, जो सेंटर फॉर सोशल जस्टिस की छत्तीसगढ़ यूनिट से संबंधित हैं। यह लोग ग्रामीण छत्तीसगढ़ में वंचित तबक़ों को क़ानूनी प्रतिनिधित्व उपलब्ध कराने के क्षेत्र में सक्रियता से काम कर रहे हैं। इन्होंने कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए जातिगत अत्याचारों के कई पीड़ितों की मदद की है। इनसे kmk36garh@gmail।com पर संपर्क किया जा सकता है। यह इनके निजी विचार हैं।)
यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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