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ऐतिहासिक बदलाव से गुजर रही है खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा की दिशा

सऊदी अरब और तुर्की के संबंधों में जमी बर्फ़ को लगातार पिघलते देखा जा सकता है। दूसरी तरफ़ 10 दिन पहले, बगदाद में सऊदी अरब और ईरान के शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों के बीच बातचीत हुई। इस बातचीत को अमेरिका की खाड़ी नीतियों में बदलाव का नतीज़ा माना जा रहा है।
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खाड़ी क्षेत्र की भूराजनीतिक दिशा द्विपक्षीय-बहुपक्षीय मामलों में लगातार बदल रही है। जनवरी में सऊदी अरब और कतर ने एक-दूसरे से दोबारा बातचीत शुरू की है। बाइडेन प्रशासन में बदली अमेरिकी रणनीति ने सऊदी और कतर की नीतियों की कई मामलों में आलोचना की है। यह फिलहाल सऊदी-कतर सहयोग में साझा तथ्य है।

सऊदी अरब और तुर्की के संबंधों में जमी बर्फ़ को लगातार पिघलते देखा जा सकता है। दूसरी तरफ़ 10 दिन पहले, बगदाद में सऊदी अरब और ईरान के शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों के बीच बातचीत हुई। इस बातचीत को अमेरिका की खाड़ी नीतियों में बदलाव का नतीज़ा माना जा रहा है।

यूएई के राष्ट्रपति शेख खालिफ़ बिन जाएद के सलाहकार अनवर गार्गश ने पिछले हफ़्ते कहा, "पिछले अगस्त में हुए अब्राहम समझौते के चलते मध्यपूर्व का चेहरा बदल रहा है।" गार्गश ने इस समझौते को 'एक वैकल्पिक रणनीतिक विचार' बताया था, जिसका लक्ष्य क्षेत्रीय सुरक्षा को मजबूत करना था। लेकिन यह ऊंचे दावे बिना आधार के नहीं किए जा रहे हैं।

बल्कि यूएई-इज़रायल के संबंधों में हुए ऐतिहासिक बदलावों से क्षेत्रीय स्तर पर एक नए समूह के बनने का रास्ता साफ़ हुआ। इस नए समूह में वृहद पूर्वी भूमध्यसागर, पश्चिमी एशिया और फारस की खाड़ी से संबंधित देश- ग्रीस, साइप्रस, इज़रायल औऱ यूएई शामिल हैं।

अमेरिका, पारंपरिक खाड़ी सुरक्षा रणनीति के तहत, विरोधी खेमे में फूट डालता रहता था। ताकि ईरान के खिलाफ़ मौजूद किसी भी तरह की भावनाओं का अमेरिका के हितों के लिए दोहन किया जा सके। लेकिन अब इस पारंपरिक रणनीति में अंतर आया है, जिससे क्षेत्र में शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू हुई है।

यह सही है कि खाड़ी क्षेत्र के सुरक्षा ढांचे में आए बदलावों की अपनी व्यक्तिगत विशेषताएं भी होंगी। इसलिए सऊदी अरब और कतर के बीच सामान्य होते संबंधों की वज़ह, अमेरिका की नई विदेश नीतियों के प्रति सऊदी अरब की चिंताएं हैं। रियाध, बाइडेन प्रशासन के साथ अपने संबंधों को बेहतर करना चाहता है। इस क्रम में सऊदी अरब डेमोक्रेटिक सांसदों की नज़रों में अपनी और अपने राजकुमार की खराब साख में कुछ सुधार करना चाहता है।

सऊदी अरब और कतर के मध्य संबंधों में सुधार का मतलब यह नहीं है कि दोनों के बीच द्विपक्षीय सहयोग गहरा हो जाएगा या 'मोरिबंद खाड़ी सहयोग परिषद' को नया जीवन मिल जाएगा। लेकिन इससे कूटनीति को ज़्यादा जगह मिलेगी, जिससे आपसी डर और हिंसा का ख़तरा कम होगा। बता दें यहां तुर्की की वज़़ह से ही कुवैत में वह आत्मविश्वास आया, जिसके चलते कुवैते, सऊदी अरब के सामने खड़ा हो पाया। लेकिन अब सऊदी और कुवैत के रिश्ते सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इससे तुर्की में भी सऊदी अरब के साथ अपने संबंध मजबूत होने की उम्मीद पैदा हुई है।

सऊदी अरब के नेतृत्व वाले प्रतिबंधों को कतर द्वारा ठोस जवाब देने से तुर्की के क्षेत्रीय प्रभाव में विस्तार हुआ था। इसमें कोई शक नहीं है कि तुर्की-कतर के सैन्य अड्डे और कतर में तुर्की के सैन्यकर्मियों की मौजूदगी से कतर का भयादोहन मजबूत हुआ था।

बहुत सारे पश्चिमी विशेषज्ञों ने जल्दबाज़ी में यह विश्लेषण कर दिया कि सऊदी-कतर की शांति स्थापना से ईरान को सबसे ज़्यादा नुकसान होगा। यहां उन्होंने खाड़ी देशों की प्रयोगधर्मिता को नज़रंदाज कर दिया। जब साढ़े तीन साल पहले खाड़ी विवाद शुरू हुआ, तो निश्चित तौर पर उससे सबसे ज़्यादा लाभ ईरान को हुआ था। इस संकट से ईरान को कुवैत के साथ अपने संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाने का मौका मिला। अब खाड़ी कूटनीति में ईरान-कुवैत के संबंध एक अहम विशेषता बन चुके हैं।

इस बीच विएना में अमेरिका के JCPOA पर वापस लौटने और ईरान के खिलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों को वापस लेने की वार्ता भी सही दिशा में प्रगति कर रही है। इससे रियाध को दोबारा सोचने का मौका मिलेगा। इस तरह अब सऊदी अरब दस दिन पहले बगदाद में अपने गुप्तचर प्रमुख खालिद बिन अली अल हुमैदान और ईरान के 'इस्लामिक रिवोल्यूशनी गार्ड्स कॉर्प्स' के कुलीन 'कुद्स लड़ाकों' के प्रमुख जनरल इस्माइल कानी के बीच हुई मुलाकात की व्याख्या कर सकेगा।

यह बैठक पहले हो सकती थी। लेकिन वाशिंगटन द्वारा ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की पिछले साल जनवरी में हत्या से इस पर विराम लग गया। इतना कहा जा सकता है कि सऊदी अरब, ईरान के बारे में जो सोच रहा है, वह अमेरिका की ईरान रणनीतियों से स्वतंत्र है। इससे उम्मीद जागती है।

सऊदी-ईरान के बीच तनाव में ठील आने से रातों-रात संबंध बहुत अच्छे नहीं हो जाएंगे, क्योंकि दोनों के संबंधों के बीच महीन विरोधाभास मौजूद हैं। इसके बावजूद आपसी विद्वेष के खात्मे से खाड़ी में सुरक्षा स्थिति में सुधार होगा।

बल्कि आने वाले एक साल में अमेरिका-ईरान संबंधों की दिशा निर्णायक साबित होने वाली है। अगर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध ख़त्म हो जाते हैं और ईरान के अंतरराष्ट्रीय समुदाय में समावेश की प्रक्रिया तेज हो जाती है, तो पश्चिम एशिया की तस्वीर पूरी तरह बदल जाएगी। इससे फ़र्क नहीं पड़ता की आने वाले चुनावों में ईरान में सत्ता का केंद्र किसके पास रहता है। ईरान की क्षेत्रीय स्थिरता का हिस्सा बनने की मंशा सच्ची है।

ईरान की कभी बम बनाने की मंशा नहीं थी। दूसरी बात, ईरान की प्राथमिकता अपने पड़ोस में शक्ति प्रभाव फैलाने की नहीं, बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था के पुनर्निमाण की है, जिसे दशकों के पश्चिमी प्रतिबंधों से बहुत नुकसान हुआ है। एक सक्रिय सत्ता के तौर ईरान के लिए घरेलू उम्मीदों को गंभीर तौर पर लेना जरूरी है। फिर बाइडेन प्रशासन ने फिलिस्तीन फाइल को दोबारा खोल दिया है।

इन सारे घटनाक्रमों से अब अब्राहम समझौते को ईरान के खिलाफ़ मोड़ने की संभावना ख़त्म हो गई हैं। यह चीज इज़रायल और यूएई द्वारा "पश्चिम की ओर देखो" की नीति अपनाने की व्याख्या भी करता है। इसी नीति के तहत इज़रायल और यूएई ने ग्रीस और साइप्रस के साथ मिलकर एक नए क्षेत्रीय समूह का गठन किया गया है।

शुक्रवार को साइप्रस के पाफोस में चारों देशों की बीच हुई विदेश मंत्री स्तर की बातचीत को इस प्रकाश में देखा जा सकता है। वार्ता के आयोजक साइप्रस के विदेश मंत्री निकोस क्रिस्टोडॉउलाइड्स ने इस कार्यक्रम को बड़बोले ढंग से एक नए युग की शुरुआत बताया, जो "वृहद भूमध्यसागर, मध्यपूर्व और खाड़ी को खुशहाली और शांति से भरा स्थिर क्षेत्र बनाने" के साझा दृष्टिकोण से संचालित है।

उन्होंने दावा किया कि इस नए युग से "हमारे पड़ोस को अशांति, विवाद और संकट के प्रतिबंधात्मक विमर्श से निकलने" में मदद मिलेगी और इससे सकारात्मक और समावेशी एजेंडा आगे आएगा, जिससे सहयोग, शांति, स्थिरता और खुशहाली बढ़ेगी।

लेकिन यहां चारों भागीदारों की मंशा तुर्की से साझी दुश्मनी का दोहन कर रणनीतिक प्रभाव हासिल करने की है। इसलिए चारों अपने संसाधनों को एकसाथ ला रहे हैं और आपसी सहयोग को मजबूत कर रहे हैं। (जेरूसलम पोस्ट में इज़रायली नज़रिए को पढ़िए, जिसका शीर्षक 'इज़रायल, यूएई, साइप्रस का सम्मेलन का मक़सद तुर्की को संदेश देना है।')

रविवार को इज़रायल, ग्रीस ने अब तक के सबसे बड़े आपसी रक्षा ऊपार्जन समझौते की घोषणा की। जिसके तहत 1.65 बिलियन डॉलर की मदद से इज़रायल की रक्षा ठेकेदार कंपनी एलबित सिस्टम 22 साल तक हेलेनिक एयरफोर्स के लिए प्रशिक्षण केंद्र का संचालन करेगी। समझौते के तहत इस प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना भी एलबित सिस्टम ही करेगी।

इज़रायल के रक्षा मंत्री बेनी गांट्ज ने कहा, "मैं मानता हूं कि इस कार्यक्रम से इज़रायल और ग्रीस की अर्थव्यवसा मजबूत होगी और क्षमताओं में वृद्धि होगी। इस तरह दोनों देशों के बीच रक्षा, आर्थिक मुद्दों और राजनीतिक स्तर पर साझेदारी में गहराई आएगी।" इस बीच यूएई और ग्रीस ने भी एक अहम रक्षा सहयोग कार्यक्रम पर हस्ताक्षर किए हैं। ग्रीस की योजना 40 जंगी विमानों को खरीदने की है, जिनमें फ्रांस का राफेल और अमेरिका का F-35 विमान शामिल हैं। रिपोर्टों के मुताबिक़ बाइडेन प्रशासन ने 50 F-35 की यूएई को होने वाली बिक्री को अनुमति दे दी है।

साफ़ है कि तुर्की की क्षेत्रीय प्रभुत्व बनाने की महत्वकांक्षा को रोकेने के मुद्दे पर ग्रीस, इज़रायल और यूएई के हित एकसाथ आ रहे हैं, इससे साइप्रस भी सहमत है। इसे अमेरिका का सहयोग भी प्राप्त है। लेकिन यहां सऊदी अरब और इजिप्ट को चार देशों के समूह से अलग रखा गया है। यह देश तुर्की के साथ अपने संबंधों में स्थायित्व लाने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

इज़रायल का अनुमान है कि अमेरिका-ईरान संपर्क के पक्ष में बन रहे माहौल को अब रोका नहीं जा सकता और आगे खाड़ी में कोई भी नया सुरक्षा आयाम ईरान के समावेश के साथ ही बनेगा। अब इज़रायल को तेजी से सोचने की जरूरत है क्योंकि ईरान से डर का उपकरण अपनी उपयोगिता से ज़्यादा पुराना हो चुका है। यह भी स्पष्ट है कि ईरान की इज़रायल विरोधी नीतियां कभी यहूदी विरोधी नीतियों में नहीं बदलीं। अब तलवार अलग रखकर आपसी संबंधों को सुधारने का वक़्त है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

 

Gulf Security Paradigm in Historic Shift

 

 

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