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इतिहास बताता है कि अमेरिका भी तालिबान की तरह ही चरमपंथी है

अमेरिकी नेता जब दुनिया में इंसाफ़ और जम्हूरियत को बढ़ावा देने की बात करते हैं तो मुस्लिम जगत को यह बात प्रतिशोध और लोलुपता की तरह दिखायी-सुनायी देती है।
इतिहास बताता है कि अमेरिका भी तालिबान की तरह ही चरमपंथी है

तालिबान और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक बड़ी समानता है कि जंग और तबाही को लेकर दोनों के भीतर एक स्थायी जुनून है। हालांकि, उनके बीच एक अंतर है और वह अंतर यह है कि तालिबान ज़्यादातर अपने ही देश के लोगों को मारते हैं जबकि अमेरिका के शिकार बड़े पैमाने पर दूसरे देशों के नागरिक होते हैं।

कुछ लोग शायद कहेंगे कि तालिबान के उलट अमेरिका जम्हूरियत और आज़ादी को बढ़ावा देने के लिए जंग करता है। लेकिन, ऐसा कहने वाले जिन बातों की अनदेखी करते हैं, वह यह कि दूसरे देशों के चुनावों में अमेरिकी हस्तक्षेप के बहुत सारे रिकॉर्ड हैं। राजनीतिक वैज्ञानिक डोव लेनिन के जुटाये आंकड़ों के मुताबिक़, अमेरिका ने 1946 और 2000 के बीच इस तरह के हस्तक्षेप 81 बार किये हैं। इस तरह के 59% मामलों में अमेरिका की पसंदीदा पार्टियों को इतने वोट मिले कि वे सत्ता में आ गयीं।

अमेरिकी हस्तक्षेप चुनावों को प्रभावित करने के लिहाज़ से हमेशा से सौम्य नहीं रहे हैं। इन हस्तक्षेपों ने नाटकीय ढंग से तख़्तापलट करवाये हैं, नेताओं की हत्या करवायी है, छद्म युद्ध लड़े हैं और समाज को बर्बर तक बना दिया है। इस तरह की तमाम घटनाओं की अगर एक सूची बनायी जाये, तो एक किताब तैयार हो जायेगी।

इसलिए, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी और इस्लामी उग्रवाद के फिर से उभर आने की आशंकाओं को देखते हुए इस तरह की छानबीन को सिर्फ़ मुस्लिम देशों में अमेरिकी लूटपाट तक सीमित करना ही समझदारी है।

आगे बढ़ने से पहले आइये पीछे की घटनाओं पर एक नज़र डालते हैं और इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की ओर से 2014 में सीरिया पर बमबारी का आदेश देने के बाद द वाशिंगटन पोस्ट के सैन्य इतिहासकार एंड्रयू बेसेविच के लिखे एक लेख पर नज़र डालते हैं। उस लेख में बासेविच ने लिखा था, "सीरिया इस्लामिक दुनिया का कम से कम 14वां ऐसा देश बन गया है, जहां अमेरिकी सेना ने हमला किया है या कब्ज़ा कर लिया है या बमबारी की है…और उसने यह सब साल 1980 से किया है।”

बेसेविच ने इसके लिए एक चेक-लिस्ट को सामने रखा है, "आइये, इन पर टिक करें: ईरान (1980, 1987-1988), लीबिया (1981, 1986, 1989, 2011), लेबनान (1983), कुवैत (1991), इराक (1991-2011, 2014) -), सोमालिया (1992-1993, 2007-), बोस्निया (1995), सऊदी अरब (1991, 1996), अफगानिस्तान (1998, 2001-), सूडान (1998), कोसोवो (1999), यमन (2000, 2002- ), पाकिस्तान (2004-) और अब सीरिया। वाक़ई हैरतअंगेज़! ”

अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर करने में नाकाम रहता है, तो बासविच की इस सूची के बढ़ने की संभावना है। इस हफ़्ते काबुल हवाई अड्डे पर हुई बमबारी में 13 अमेरिकी नौसैनिक मारे गए, जिसे लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ऐलान किया कि वह इसे अंजाम देने वालों को नहीं बख़्शेंगे। इस नहीं बख़्शे जाने में अनिवार्य रूप से अफ़ग़ानिस्तान पर बमबारी की जायेगी और इसमें अमेरिका शामिल होगा।

पहला खाड़ी युद्ध

सोवियत संघ के पतन ने अमेरिका को किसी भी मौक़े पर एकतरफ़ा सैन्य कार्रवाई के लिए प्रोत्साहित किया। यह मौक़ा इराक़ी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के 1990 में कुवैत पर हमले ने मुहैया करा दिया था। ईरान के साथ चले आठ साल के युद्ध के ख़त्म हो जाने के बाद अपने देश के ख़ज़ाने को बढ़ाने को लेकर बेताब हुसैन ने इतिहास का हवाला देते हुए दावा किया कि कुवैत ने उस इराक़ी क्षेत्र पर कब्ज़ा किया हुआ है, जो तेल समृद्ध क्षेत्र है।

हालांकि, कुवैत पर दबाव बनाने की हुसैन की इस नीति में एक पेंच था। यह दावा किया गया था कि इराक़ स्थित अमेरिकी राजदूत अप्रैल ग्लास्पी ने कुवैत पर हमले को हरी झंडी दे दी थी, जिसमें हुसैन से कहा गया था कि वाशिंगटन अरब देशों के अंदरूनी संघर्षों में किसी का पक्ष नहीं लेगा। हालांकि,ग्लास्पी और अमेरिकी राजनयिकों ने इन आरोपों से इनकार कर दिया था। 2010-11 में विकीलीक्स की ओर से अमेरिकी गुप्त राजनयिक से जुड़े इस तार का ख़ुलासा करने के बाद यह बहस फिर से शुरू हो गयी थी।

इस सचाई के बावजूद,अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इराक़ पर लगातार बमबारी की,उसके सैन्य और सामाजिक बुनियादी ढांचे को तबाह कर दिया गया। ज़मीनी हमला तो बेहद बर्बर था। अमेरिकी सेना ने खाइयों में तैनात तक़रीबन 8,000 इराक़ी सैनिकों को ज़िंदा दफ़नाने के लिए टैंकों और मिट्टी खोदने वाले लड़ाकू मशीनों से इस क़दर रौंद डाले थे कि उनके पैर और हाथ बाहर चिपके हुए मिले थे।

इराक़ी सेना कुछ ही हफ़्तों में भड़भड़ाकर ढह गयी थी। ऐसा दावा किया जाता है कि अमेरिकी नेतृत्व वाले उस अभियान में तक़रीबन 25,000 सैनिक मारे गये थे। लेकिन, बाद के सालों में जो कुछ हुआ,वह और भी बदतर था। कुवैत पर हमला करने को लेकर इराक़ पर थोपे गये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 661 को कभी वापस नहीं लिया गया। तेल से मिलने वाले इराक़ के राजस्व को संयुक्त राष्ट्र के उस विशेष खाते में जमा किया गया, जिससे इराक़ के खाद्य पदार्थों और दवाओं के आयात पर नियंत्रण रखा गया।

संयुक्त राष्ट्र के इन प्रतिबंधों की सख़्ती के विरोध में संयुक्त राष्ट्र के कई अधिकारियों ने इस्तीफ़े तक दे दिये थे और इनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही थी। इस्तीफ़ा देने वालों में डेनिस हॉलिडे भी थे, जिन्होंने पत्रकार जॉन पिल्गेर को बताया था, “मुझे एक ऐसी नीति लागू करने का निर्देश दिया गया था, जो नरसंहार की परिभाषा को तुष्ट करती हो,जानबूझकर बनायी गयी वह एक ऐसी नीति थी,जिसने प्रभावी रूप से दस लाख से ज़्यादा लोगों को मार डाला था।” 

ऐसा नहीं था कि हॉलिडे इस आंकड़े को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2003 तक 1.7 मिलियन इराक़ियों की मौत हुई हो। उनमें से 5,00,000 बच्चे थे। जब एक टीवी चैनल ने 1997 से 2001 के बीच अमेरिकी विदेश मंत्री रहे मैडलिन अलब्राइट से पूछा था कि क्या तक़रीबन पांच लाख इराक़ी बच्चों की मौत इसके लिए ज़रूरी था, तो उन्होंने जवाब दिया था, “यह एक बहुत ही मुश्किल विकल्प है, लेकिन, हमें लगता है कि यह क़ीमत चुकाना ज़रूरी था।” 

अलब्राइट का ऐसा बोलना क्या अल क़ायदा के ओसामा बिन लादेन के बोलने की तरह नहीं है ?

अफ़ग़ानिस्तान

11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावरों पर बमबारी की गयी और उन्हें गिरा दिया गया। इसके बाद अमेरिकियों ने तालिबान से ओसामा को सौंप देने की मांग की थी। तालिबान के इन्कार किये जाने पर अमेरिका की अगुवाई वाले गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया था। तालिबान काबुल से भाग गया। वे काबुल से तब तक दूर रहे जब तक कि वे इस महीने की शुरुआत में राजधानी पर काबिज होने के लिए फिर से संगठित नहीं हो गये।

लेकिन,अफ़ग़ानिस्तान कभी से इराक़ नहीं था। मसलन,1989 में इराक़ की साक्षरता दर 95% थी और इसकी 93% आबादी की पहुंच आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक मुफ़्त थी। लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान की मुश्किलें इराक़ की मुश्किलों से किसी क़दर कम नहीं थीं: 2001 से "अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान युद्ध क्षेत्र" में तक़रीबन 2,41,000 लोग मारे गये। मरने वालों में 71 हज़ार नागरिक थे। कहा जाता है कि 1,00,000 और लोग वहां लम्बे चले युद्ध के अप्रत्यक्ष भेंट चढ़ गये थे।

दूसरा खाड़ी युद्ध

अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर करने में अमेरिकियों के नाकाम होने की एक वजह यह भी थी कि राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और ब्रिटिश प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर ने इराक़ में शासन परिवर्तन का फ़ैसला कर लिया था। इसके लिए सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक विनाश के हथियार होने का दावा करने का झूठ गढ़ा गया था।

पत्रकार डेविड कॉर्न ने इस तरह के झूठ की एक सूची तैयार की है। उदाहरण के लिए, बुश ने दावा किया था कि हुसैन के पास जैविक हथियारों का विशाल भंडार है। सीआईए (सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी) के निदेशक जॉर्ज टेनेट ने 2004 में कहा था कि अमेरिकी नीति निर्माताओं को इस बात की जानकारी थी कि "बग़दाद के निपटान में हथियारो के ज़ख़ीरे या भंडार के प्रकार या मात्रा के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी।" दिसंबर 2002 में बुश ने कहा था, "हम नहीं जानते कि (इराक़) के पास परमाणु हथियार है या नहीं।” सैद्धांतिक तौर पर बुश का यह बयान विरोधाभासी था, “हमने कहा था कि सद्दाम के पास परमाणु हथियार नहीं था और शायद वह 2007 से 2009 तक परमाणु हथियार नहीं बना पाता।”

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोंडोलीज़ा राइस ने 2002 में दावा किया था कि इराक़ ने जो एल्युमीनियम ट्यूब ख़रीदी थी,वह "परमाणु हथियार कार्यक्रम के लिए एकदम उपयुक्त थी।" हालांकि,ऊर्जा विभाग में काम कर रहे अमेरिका के तत्कालीन परमाणु विशेषज्ञों ने उन्हें बताया था कि ऐसा होने की संभावना नहीं है। 2003 में इराक़ पर हमला करने से पहले उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने इस बात का बार-बार दावा किया था कि 9/11 के हमले के हमलावरों में से एक मोहम्मद अट्टा ने प्राग में एक इराक़ी ख़ुफ़िया अधिकारी से मुलाकात की थी। लेकिन,सीआईए ने इसके उलट बयान दिया था।

इसके बावजूद, अमेरिका ने 19वीं शताब्दी में इराक़ पर बमबारी करने को लेकर "इच्छाओं के टकराव" की अगुवाई की थी। हुसैन का शिकार किया गया और उसे फांसी पर लटका दिया गया। फिर भी इराक़, हमले के बाद के सालों में भी अमेरिकी सैनिकों और इराक़ी सशस्त्र बलों पर छापामार हमले जारी रखने का गवाह बना रहा। सांप्रदायिक संघर्ष कई गुना बढ़ गये, जिससे आख़िरकार इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड लेवेंट (ISIS) का उदय हुआ।

एक सरकारी डेटाबेस-इराक़ी बॉडी काउंट के मुताबिक़, 2003 से अब तक लड़ाकों सहित 2,88,000 लोग मारे गये हैं। इसके लिए तो बुश और ब्लेयर पर भी युद्ध अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जाना चाहिए था।

लीबिया

जब अमेरिका ने हुसैन के इराक़ पर बमबारी करके उसे मटियामेट कर दिया, तो लीबिया के ताक़तवर नेता मुअम्मर गद्दाफ़ी ने आतंकवाद को ख़ारिज कर दिया और अपने मिसाइल और परमाणु कार्यक्रमों तक ख़त्म कर डाले। यूरोपीय देशों ने उसकी उस अक़्लमंदी की सराहना की थी। लेकिन फिर, 2011 में "अरब क्रांति की लहर" ने लीबिया के लोगों को गद्दाफ़ी के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया।

यही वह समय था, जब एक बार फिर अमेरिका (और फ़्रांस भी) लीबिया में शासन परिवर्तन को लेकर विचार करना शुरू कर दिया था।

ओबामा की अगुवाई में नाटो ने लीबिया और गद्दाफ़ी की सेनाओं को घेरना शुरू कर दिया। ओबामा ने बाद में इस तरह की कार्रवाई को कुछ इस तरह से सही ठहराया था, "हमारे पास (गद्दाफ़ी की) हिंसा को रोकने की एक अनूठी क्षमता थी।"

2020 में कैटो इंस्टीट्यूट के डॉग बैंडो ने लिखा था, “दरअसल, वह डर एक छलावा था। गद्दाफ़ी कोई फ़रिश्ता तो नहीं था, लेकिन उसने नागरिकों को निशाना भी नहीं बनाया था, और आलोचकों के हवाले से गद्दाफ़ी के जिन सख़्त बयानों की बात की जाती है,वे महज़ उन लोगों पर हमले के लिहाज़ से दिये गये बयान थे, जिन्होंने हथियार उठा लिए थे। गद्दाफ़ी ने उन लोगों को भी माफ़ी देने का वादा किया था, जिन्होंने अपने हथियार छोड़ दिये थे।”

बैंडो ने का मानना था कि  नागरिकों की सुरक्षा का ख़्याल किये बिना नाटो ने सरकारी बलों और बुनियादी ढांचे पर बमबारी की थी। देश एक ऐसे गृहयुद्ध में झोंक दिया गया, जो इस समय भी जारी है, ऐसा इसलिए हुआ,क्योंकि अमेरिका ने वैकल्पिक शासन स्थापित करने को लेकर न तो समय दिया और न ही अपनी ताक़त का इस्तेमाल किया।

फ़ॉक्स न्यूज़ ने 2016 में ओबामा से पूछा था कि क्या उन्हें लगता नहीं कि उनके राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उनकी वह सबसे बड़ी ग़लती थी। ओबामा ने जवाब दिया था, "आने वाले दिनों के लिए योजना बनाने में नाकामी, इस बारे में सोचने पर मुझे लगता है कि लीबिया में हस्तक्षेप करना शायद सही था।" एक नोबल शांति पुरस्कार पाने वाले की यह एक अजीब-ओ-ग़रीब टिप्पणी थी !

अक्टूबर 2011 में सिरते में गद्दाफ़ी को एक पुलिया में छिपा हुआ पाया गया। गद्दाफ़ी को पीटा गया, संगीन को उसके मलद्वार में घुसेड़ दिया गया, और आख़िरकार गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गयी। जब विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन से गद्दाफ़ी की मौत के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, “हमें पता चला, हमने देखा कि वह मर गया।”

ऐसा नहीं कि मरने वाला सिर्फ़ गद्दाफ़ी था। बैंडो ने लिखा, "असली हारने वाले तो लीबियाई लोग हैं। इस लड़ाई में हज़ारों लोगों की मौत हुई है और हज़ारों लोग शरणार्थी बने हुए हैं। जनजातियों के बीच भी विभाजन बढ़ रहे हैं। भविष्य अब भी धुंधला ही दिखता है।”

सीरिया

लीबिया के इस गृहयुद्ध में झोंक दिये जाने का एक कारण ओबामा का वह फ़ैसला भी था, जिसमें राष्ट्रपति बशर अल-असद के ख़िलाफ़ विद्रोह में सीरियाई लोगों का समर्थन किया गया था। सीआईए ने 2012 तक असद विरोधी ताक़तों को हथियार मुहैया कराने के लिए लीबिया के पैसों का इस्तेमाल किया। पत्रकार सेमुर एम हर्ष ने यह दिखाने के लिए उन दस्तावेज़ों का पता लगाया, जिसमें अमेरिका की रक्षा ख़ुफ़िया एजेंसी ने चेतावनी दी थी कि "असद शासन के पतन से अराजकता फैलेगी और जैसा कि लीबिया में हुआ था, शायद वैसा ही हो कि जिहादी चरमपंथी सीरिया पर कब्ज़ा कर ले।"

लेकिन,उस समय सीरिया में शासन परिवर्तन को लेकर अमेरिका पर जुनून सवार था। असद ने 9/11 के हमले की तो निंदा की थी, लेकिन उन्होंने इराक़ के ख़िलाफ़ बुश के युद्ध के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ भी उठायी थी। हर्श ने विकीलीक्स के दस्तावेज़ों का हवाला देते हुए दिखाया है कि "बुश प्रशासन ने सीरिया को अस्थिर करने की कोशिश की और ये कोशिशें ओबामा के शासनकाल में भी जारी रहीं।”

इन दस्तावेज़ों में एक नाम दमिश्क स्थित अमेरिकी दूतावास के प्रभारी विलियम रोबक का भी था, जो असद सरकार को अस्थिर करने के तरीक़े बता रहे थे। रोबक चाहते थे कि सीरिया में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए वाशिंगटन सऊदी अरब और मिस्र के साथ काम करे।

लोकतंत्र के लिए इतना कुछ !

इसमें कोई शक नहीं कि सीरिया में सामने आने वाली उस ताबही के लिए अकेले अमेरिका ही ज़िम्मेदार नहीं था। इसके बावजूद, इराक़ और लीबिया को स्थिर किये बिना सीरिया में उसका हस्तक्षेप, बमबारी और उन देशों को तबाह करने की उसकी प्रवृत्ति की गवाही देता है, जिनके शासन का वह विरोध करता है। उनके लोगों की जान जाना तो महज़ एक इससे जुड़ा हुआ नुक़सान है।

रिकॉर्ड के लिहाज़ से सीरियन ऑब्जर्वेटरी फ़ॉर ह्यूमन राइट्स का कहना है कि दिसंबर 2020 तक 3,87,111 लोग मारे गये हैं। 2,05,300 लोग लापता बताये जा रहे हैं और उन्हें मृत मान लिया गया है। तक़रीबन 1,30,00,000 नागरिक विस्थापित हुए हैं।

पत्रकार टॉम एंगेलहार्ड्ट ने 2018 में एक लेख लिखा,जिसका शीर्षक था- "संयुक्त राज्य अमेरिका असली चरमपंथी मुल्क है।" उस शीर्षक को बदलकर कुछ इस तरह पढ़ा जाना चाहिए: संयुक्त राज्य अमेरिका भी तालिबान की तरह ही चरमपंथी है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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