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वर्ल्ड रिफ़्यूज़ी डे : आख़िर कौन होते हैं रिफ़्यूज़ी? क्या होता है रिफ़्यूज़ी होने का मतलब?

20 जून को वर्ल्ड रिफ़्यूज़ी डे के तौर पर मनाया जाता है, आख़िर क्या होता है रिफ़्यूज़ी होने का मतलब, यह हमने जानने की कोशिश की।
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न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी, नज़र में धूल जिगर में लिए गु़बार चले..1994 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म मम्मो का ये गाना हर उस बेवतन शख़्स की कैफियत हो सकती है जो चाह कर भी अपने वतन जा ना पा रहा हो।

वैसे मम्मो इकलौती फ़िल्म नहीं है जिसमें अपने से दूर जाने का ग़म, वतन छूटने का दर्द दिखाया गया हो, ख़ालिद हुसैनी की किताब 'द काइट रनर' पर बेस्ड फिल्म में अफगानिस्तान के आमिर और हसन की कहानी हो या फिर 'द स्विमर' में ओलंपिक में हिस्सा लेने के जुनून में सीरिया से समंदर पार कर निकली दो रिफ्यूजी बहनों की कहानी, या फिर  Born in syria  सैकड़ों फिल्में, किताबों में रिफ्यूजियों के दर्द की चीर-चीर कर पेश किया गया है लेकिन बावजूद दुनियाभर में बढ़ती शरणार्थियों की संख्या, उनको लेकर दुनिया का रवैया हैरान करने वाला है।

म्यांमार शणार्थियों का प्रदर्शन

आज वर्ल्ड रिफ्यूजी डे है, इस मौक़े पर दिल्ली में UNHCR ( United Nations High Commissioner for Refugees ) के बाहर म्यांमार के रिफ़्यूजी लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और UNHCR को एक ज्ञापन सौंपा। क़रीब तीन सौ की संख्या में पहुंचे इन रिफ्यूजी लोगों को पुलिस ने UNHCR के ऑफिस तक भी नहीं पहुंचने दिया सड़क के दोनों तरफ बैरिकेडिंग करके रास्ता रोक दिया। लेकिन फिर भी इन लोगों ने बैरिकेडिंग के बाहर ही एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया, मीडिया के सामने अपनी बात रखी और शांतिपूर्वक अपने कार्यक्रम को करके लौट गए। बेहद उमस भरे मौसम के बावजूद छोटे-छोटे बच्चों ने भी इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया। सौंपे गए ज्ञापन के माध्यम से भारत में रह रहे म्यांमार के इन रिफ़्यूजी लोगों ने अपनी समस्याओं को 10 बिंदुओं में पेश किया। 

* ''इसमें पहला पॉइंट था - UNHCR रिफ़्यूजी कार्ड बनाने में बहुत ज़्यादा वक़्त ले रहा है और अब उसकी जगह एक नीला पेपर इशू कर रहा है जो किसी शख़्स को महज़ asylum seeker की तरह पहचान दे रहा है''। 

* ''वहीं भारत सरकार ने virtually declare कर दिया है कि यहां कोई रिफ्यूजी नहीं है। ये ऐसा है कि UNHCR जिन्हें रिफ़्यूजी मान रहा है भारत उन्हें illegal migrants मान रहा है जिसकी वजह से हमें रेजिडेंशियल परमिट और long term visas  नहीं मिल रहा है''। 

इसके साथ ही इस ज्ञापन में रेजिडेंशियल परमिट न होने की वजह से आधार कार्ड के न बनने, बैंक खातों के ने खोल पाने की भी बात कही गई, साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा मिलने में आ रही दिक्कतों का भी ज़िक्र किया गया। 

प्रदर्शन के बाद प्रार्थना सभा में हिस्सा लेता एक शरणार्थी 

No one is illegal

यहां पहुंची एक शरणार्थी ने कहा कि '' हमारे भी राइट हैं- ह्यूमन राइट, हमें भी एक उज्जवल भविष्य चाहिए और उसके लिए हम लड़ते रहेंगे, हम कहना चाहते हैं कि हम illegal नहीं हैं, हमारे भी अधिकार हैं, हम भी उज्जव भविष्य चाहते हैं, हम भी एक बेहतर ह्यूमन रिसोर्स साबित हो सकते हैं, अगर हमें बेहतर मौक़े मिले तो, हमें हमारे बच्चों के लिए उज्जव भविष्य चाहिए, हमारे लिए भी रास्ते खोलिए, we want to be visible all over the world, No one is illegal, हम अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहेंगे। 

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वर्ल्ड रिफ्यूजी डे पर शरणार्थियों को समर्थन देने 1976 में बने संगठन People's Union for civil Liberties ( PUCL ) से जुड़े एन डी पंचोली मिले जो कहते हैं कि '' हम लोग शुरू से ही शरणार्थियों से जुड़ी समस्याओं को लेकर चिंता ज़ाहिर करते रहे हैं, हमनें 70 का दशक देखा 80 और 90 का भी दशक देखा भारत हमेशा से शरणार्थियों का स्वागत करता रहा है, उनके प्रति सहानुभूति दिखाता रहा है,लेकिन पिछले सात-आठ साल में नीतियों में किए गए बदलाव के बाद अंतर दिखाता है '' रोहिंग्या पर पूछे एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि '' रोहिंग्या के प्रति सरकार का जो व्यवहार है वो बहुत ही अनुचित है और अस्वीकार्य है''। 

जहां एक तरफ म्यांमार के शरणार्थियों का शांतिपूर्वक प्रदर्शन चल रहा था वहीं दूसरी तरफ  UNHCR  ऑफिस के ठीक सामने कुछ शरणार्थी धूप में बैठे हुए थे। इन्हीं के बीच में एक बहुत ही चंचल बच्चा दिखा, ये मोहम्मद था। शरारतों से अपनी ओर खींचता मोहम्मद पिछले कई दिनों से UNHCR के बाहर पड़ा है। हमने उसकी मां से बात की तो पता चला वे किसी तरह सूडान से बचकर 2018 में हैदराबाद आई थी, जहां उसने शादी की लेकिन कुछ वजहों से अपने पति से अलग हो गई और अब उसे भारत सरकार की तरफ से देश छोड़ने का पत्र मिला है, वो सूडान नहीं जाना चाहती और यही फरियाद लेकर UNHCR के ऑफिस के बाहर बैठी है। पता चला कि बेटे को कोई किडनी प्रॉब्लम है लेकिन वे उसका ठीक से इलाज भी नहीं करवा पा रही। जिस वक़्त पता चला मोहम्मद बीमार है समझ नहीं आ रहा था कि कैसे बातों के सिलसिले को जारी रखना है, एक चार का मासूम इलाज और महफूज़ जगह की लिए तहस रहा है।  

मोहम्मद की मां के साथ ही एक और परिवार बैठा हुआ था ये परिवार अब्दुल का था, अब्दुल भी सूडान के थे और उनकी पत्नी परवीन ईरान की। अब्दुल बताते हैं कि सूडान में गृहयुद्ध चल रहा है पिछले एक महीने से पीछे छूटे परिवार के बारे में उन्हें कोई ख़बर नहीं मिल पाई है वे कहते हैं कि '' मैं यहां भारत में हूं लेकिन यहां भी जिन्दगी बहुत मुश्किल है दो-दो, तीन-तीन दिन तक खाना नहीं मिल पा रहा है, पैसे नहीं है''। 

यहीं मुझे अफगानिस्तान से आई एक रिफ़्यूजी मिलीं वो भी अपनी दो बेटियों के साथ एक कार के पीछे छुपकर बैठी हुई थीं, जब हमने उनसे इस तरह छुपकर बैठने का सबब जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि ''हम नहीं चाहते कि कोई हमारी तस्वीर खींचे क्या पता इससे UNHCR वाले नाराज़ हो गए तो''? ये शणार्थी एक रिफ़्यूजी के जो अधिकार होते हैं उन्हीं की मांग के लिए यहां बैठी हैं, वे बताती हैं कि वे इसी तरह बच्चियों को लेकर खुले आसमान के नीचे बैठी रहती हैं लेकिन UNHCR बहुत ही धीमी रफ़्तार से काम करता है। 

आख़िर क्यों UNHCR धीमी रफ़्तार से काम करता है? इस रिपोर्ट को करने के दौरान हम कई शरणार्थियों से मिले और सभी ने यही शिकायत की, हम इस सवाल का जवाब जानना चाहते थे हमने UNHCR के ऑफिस में जाने की कोशिश की तो हमें मना कर दिया गया, कहा गया कि फोन पर पहले बात कर लें, हमने फोन पर बात करने की कोशिश की लेकिन किसी ने भी फोन नहीं उठाया।

क्या शरणार्थियों की ज़्यादा संख्या की वजह से UNHCR को काम करने में परेशानी हो रही है? हमने पता चलाने की कोशिश की कि भारत में कितने शरणार्थी हैं? हमने UNHCR की वेबसाइट दिखी, जिससे पता चलता है कि 31 जनवरी 2022 तक भारत में 46000 से ज्यादा शरणार्थी हैं। कुछ और आगे बढ़े तो पता चला कि यहां 

  • सबसे ज़्यादा शरणार्थी श्रीलंका के हैं - 43 प्रतिशत ( भारत सरकार के मुताबिक ) 
  • जबकि तिब्बत से आए शरणार्थियों की संख्या - 34 प्रतिशत है ( भारत सरकार के मुताबिक) 
  • म्यांमार के 14 प्रतिशत  ( 31 मार्च 2023 तक UNHCR के मुताबिक) 
  • अफगानिस्तान के 7 प्रतिशत ( 31 मार्च 2023 तक UNHCR के मुताबिक) 
  • और बाक़ी- 2 प्रतिशत शरणार्थी हैं ( 31 मार्च 2023 तक UNHCR के मुताबिक) 

दुनियाभर में जिस तरह से हालात बदल रहे हैं उसका हासिल अगर देखा जाए तो वो ये शरणार्थी ही लगते हैं। जब भी हम शरणार्थियों से मिलते हैं ऐसा लगता है अधूरे लोग ख़ुद में अपने बिछड़े वतन, घर की यादों को साथ लिए चल रहे हैं। 

''रिफ़्यूज़ एक अकेलापन है'

हमने दिल्ली के भोगल में बहुत से अफगानी शणार्थियों से बात की, अफगानी रोटी का तंदूर चलाने वाले अब्दुल नासिर से मुलाक़ात हुई, अब्दुल आठ साल पहले हेरात से भारत आए थे जब हमने उनसे पूछा कि क्या वे अपने वतन लौटना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि '' जा नहीं सकते, ख़तरा है वहां, लेकिन हम यहां अकेले हैं हमारे सब रिश्तेदार वहां छूट गए अकेलापन महसूस होता है,लेकिन क्या करें सब कुछ छोड़कर निकलना पड़ा, उस वक़्त जान का बहुत ख़तरा था, जब मैं वहां से निकला था तो बेटे की उंगली पकड़ कर लाया था आज ये मेरे कंधे से भी ऊंचा हो गया है''। 

अब्दुल नासिर, दिल्ली के भोगल में अफगानी रोटी की दुकान चलाने वाले

जब हमने अब्दुल से पूछा क्या होता है रिफ़्यूज़ी होने का मतलब तो उनका जवाब था '' रिफ़्यूज़ एक अकेलापन है'' उदासी भरे लहज़े में जो बोला गया वो ऐसा एहसास था जिसे हम और आप चाह कर भी महसूस नहीं कर पाएंगे। 

वतन लौटने की आस

यहीं हमें दो बच्चे मिले इलियास और साहिल जो अपने अब्बा की दुकान में बैठे थे, इलियास का जन्म ईरान में हुआ था जबकि साहिल अफगानिस्तान में पैदा हुए थे दोनों सातवीं-आठवीं में पढ़ते हैं और आपस में अपनी ही ज़बान में बात करते हैं, उनकी दिली ख्वाहिश है अफगानिस्तान जाने की, वे क़ाबुल देखना चाहते हैं, अपने कल्चर को क़रीब से महसूस करना चाहते हैं लेकिन साथ ही वे ये भी कहते हैं कि वहां जा नहीं सकते क्योंकि वहां जाने में ख़तरा है। हमने इन बच्चों से भी पूछा कि क्या उन्होंने रिफ़्यूज़ी लफ़्ज़ कभी सुना है? क्या होता है उसका मतलब ? साहिल ने कहा कि उसे नहीं पता रिफ़्यूज़ी का मतलब क्या होता है लेकिन इलियास बताते हैं कि ''रिफ़्यूज़ी वे होते हैं जो अफगानिस्तान से आकर इंडिया में रहते हैं'' इन मासूम ने अपनी समझ के मुताबिक जवाब दिया लेकिन बच्चों से ये सवाल पूछना कोई गुनाह करने जैसा लग रहा था।  

वतन से दूर इन लोगों में कोई काबुल से था तो कोई हेरात से, ये लोग एक न एक दिन अपने वतन वापस जाने का सपना देखते हैं इन लोगों की इस तमन्ना ने रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी 'काबुलीवाला' पर बनी फिल्म के इस गाने की याद दिला दी।  

छोड़कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम 
फिर भी है यही तमन्ना तेरे ज़र्रों की क़सम 
हम जहां पैदा हुए उस जगह ही निकले दम 

दिल्ली के भोगल में हर दूसरी दुकान में एक अफगानी बैठा मिलेगा जिनके पास अपने वतन के बारे में सुनाने को बहुत कुछ मिलेगा। इन लोगों से मिलते हुए ऐसा लग रहा था हर किसी में अफगानिस्तान बसा हो। लेकिन ऐसा हम उन रोहिंग्या बस्तियों के बारे में नहीं कह सकते जहां म्यांमार से आए रोहिंग्या रहते हैं। न सड़क, न वॉशरूम जैसी कोई चीज़, बुनियादी सुविधाओं का दूर-दूर तक नाम-ओ-निशां नहीं। 

भारत में बहुत से शरणार्थी रहते हैं लेकिन रोहिंग्या के लिए सरकार से लेकर सड़क तक जिस भाषा का इस्तेमाल किया जाता है वो खौफ़ से भर देता है, इनके कैंप में बुनियादी सुविधा भले ही न हो लेकिन हर तरफ एक चीज़ जो दिखाई देती है वो है खौफ़, कभी भी उठाकर देश से बाहर फेंक देने का डर इन्हें हमेशा सताता रहता है। मुंह पर ताले लगाए बेहद ख़ामोशी से रहने वाले ये कभी घुसपैठिया बुलाए जाते हैं तो कभी आंतकी लेकिन हाथ जोड़े बस एक ही बात कहते हैं हमें ''यहां सांस लेने का अधिकार दे दो'', सिर्फ जिन्दा रहने का हक मांगते हैं ये लोग। 

संघर्ष भरी जिन्दगी जीने वाले इन लोगों में से कुछ लोग पूरी दुनिया के लिए उम्मीद हैं, ऐसी ही एक लड़की है तस्मिदा जौहर ( Tasmida Johar ) तस्मिदा भारत की पहली रोहिंग्या महिला ग्रेजुएट हैं जिन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए पूरा कर लिया है। और आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका या फिर कनाडा जाना चाहती हैं। 

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रिफ्यूजी होने का क्या मतलब है ?

हमने तस्मिदा से भी पूछा कि उनके लिए रिफ़्यूजी होने का क्या मतलब है? जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि '' जिस तरह से एक रिफ़्यूजी बनने के बहुत से कारण होते हैं वैसे ही एक रिफ़्यूजी होने के भी बहुत से मतलब हो सकते हैं लेकिन हम लोग जो बाप-दादा के ज़माने से वहां सदियों से रहते आ रहे थे हमें रिफ़्यूज़ी बना दिया गया,हमसे हमारी सरकार ने जीने तक का हक छीन लिया, हमारे हर अधिकार पर रोक लगा दी गई। 


रिफ्यूजी उसे कहते हैं ''जो एक नॉर्मल इंसान नहीं होता'' 

एक रिफ़्यूज़ी वो होता है जिसके पास किसी भी तरह का सहारा नहीं होता, जिसके सिर पर छत नहीं होती, वे एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते हैं, अगर दुनिया को मुझे बताना हो कि रिफ़्यूज़ी कौन है तो एक रिफ़्यूजी जो कैंप में रह रहे हैं, जहां उनके अपने देश में इतने बड़े-बड़े घरों में इतनी सहूलियत में रह कर आए हुए होते हैं, लेकिन दूसरे वतन में आकर उन्हें एक टाइम का खाना मिलता हो तो पता नहीं होता कि दूसरे वक़्त का मिलेगा भी कि नहीं, बच्चों को पढ़ाने का टेंशन, वापस न भेज दें, इतने डर में रहते हैं एक भारीपन हमेशा जेहन में रहता है। रिफ़्यूजी उसे कहते हैं ''जो एक नॉर्मल इंसान नहीं होता'' । 

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वे आगे कहती हैं कि ''कोई भी इंसान अपना देश छोड़कर अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहेगा, कम से कम मैं नहीं चाहूंगी, मेरे मां-बाप नहीं चाहेंगे, आप किसी भी रोहिंग्या से पूछ लो कि क्या आप वापस जाना चाहते हो 99 फीसदी लोगों का जवाब होगा कि अगर हमारे देश में हालात सही जाएं तो हम वापस जाना चाहते हैं, कोई भी अपनी ख़ुशी से यहां नहीं आया है अपनी जान बचाने के लिए आया है, जुल्म तो बहुत समय से हो रहा था लेकिन हमने देश उस वक़्त छोड़ा जब बात हमारी जान पर बन आई थी, हम सिर्फ जान बचाने के लिए यहां आ गए हैं, हमने दो-दो बॉर्डर क्रॉस किए, जान हथेली में लेकर निकले थे, ये बिल्कुल भी आसान सफर नहीं था, कितना कुछ सहकर आए, हमारी सरकार ही नहीं चाहती कि हम वहां रहें, इतना सह कर आए और यहां भी आकर हमें सुनने को मिलता है कि क्यों आए हो, वापस चले जाओ, हमें भाषा सीखने में दिक्कत आ रही होती है, पढ़ने में दिक्कत आ रही होती है, शिक्षा एक बेसिक ह्यूमन राइट है, वो तक हमें नहीं मिल रहा होता''।

हमने तस्मिदा से पूछा अगर उन्हें कभी मौका मिले रिफ्यूज़ी लोगों के लिए कुछ करने का तो वे क्या करना चाहेंगी इसके जवाब में वे कहती हैं कि '' मैं अपनी पढ़ाई पूरी करने बाद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में जाकर रिफ़्यूजी जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती उनकी आवाज़ बनना चाहती हूं, मेरे आवाज़ उठाने से अगर एक इंसान की भी जिन्दगी बदल जाए तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी'' 

दूसरा मैं रिफ़्यूजी को उनके देश उनके अधिकार के साथ उनके घर वापस भेजना चाहूंगी, और अगर ये संभव नहीं तो मैं उनके ऐसे किसी देश में भेजने की कोशिश करूंगी जहां पर वे सेफ फील करें, जहां वे अपनी पढ़ाई को जारी रख सकें, जहां उन्हें ये डर न हो कि हमें वापस भेज दिया जाएगा, हमें कोई मार न दे। 

''ये दिन पूरी दुनिया के लिए एक नाकामी का सबक है''
20 जून जो रिफ़्यूजी डे मनाया जाता है मेरे हिसाब से ये दिन पूरी दुनिया के लिए एक नाकामी का सबक है, ये हमें याद दिलाती है कि हमें नज़रअंदाज़ किया जा रहा है, हमें हमारे अधिकार नहीं मिल रहे, हमें बेसहारा रखा हुआ है। 

दुनिया में बढ़ते शणार्थियों को क्या नज़रअंदाज़ किया जा रहा है? हमें इसका जवाब नहीं पता लेकिन जिस दौर में पूरी दुनिया को एक परिवार बताया जा रहा है फिर क्यों शणार्थियों के लिए दरवाज़े नहीं खोले जाते ? 

2017 में एक फ़िल्म आई थी ' फर्स्ट दे किल्ड माई फादर'  इस फ़िल्म में एक लाइन थी '' Borders are No longer means of separation but bridges'' काश की दुनिया के लिए सरहदों का यही मतलब होता'' लेकिन अफसोस ये बात हमें फिल्म में ही दिख सकती है हकीकत शायद अब भी जुदा है। यहां बेवतन लोग कहते हैं

'' ये कैसी सरहदें उलझी हुई हैं पैरों में हम अपने घर की तरफ उठ कर बार बार चले 
ना रास्ता कहीं ठहरा ना मंजिल ठहरीं ये उम्र उड़ती हुई गर्द में गुज़ार चले । हज़ार बार चले हम हज़ार बार रुके''। 

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